ईश्वर के पूर्ण अवतार थे श्रीकृष्ण
सनातन धर्म में अवतार की अवधारणा यह है कि ब्रह्म अपनी माया शक्ति से इस सृष्टि का निर्माण करता है और वह स्वयं भी सृष्टि के कण-कण में समाया है। सृष्टि के सृजन, पालन और संहारकर्ता के रूप में ब्रह्म को ईश्वर कहते हैं। ब्रह्म का अंश आत्मा, माया के वशीभूत होकर जब शरीर में निवास करती है तो उसे जीव कहते हैं (गीता 15.7)। जड़, पेड़-पौधे, जीव, मनुष्य और देवता सभी में ब्रह्म की चेतना है अंतर इतना है कि इनमें क्रमश: चेतना का स्तर बढ़ता जाता है। ब्रह्म की चेतना की सर्वोच्च अभिव्यक्ति जिनमें होती है उन्हें अवतार कहते हैं।
अवतार दो तरह के होते हैं अंशावतार और पूर्णावतार। ब्रह्म के तीन गुण ज्ञान, प्रेम और शक्ति जिसमें पूर्ण रूप से प्रकट होते हैं वह पूर्णावतार कहलाता है। जिन अवतारों में ब्रह्म के इन गुणों का कोई एक भाग प्रकट होता है वह अंशावतार कहलाते हैं। इस प्रकार अंशावतार वह हैं जिनमें चेतना का स्तर हम मनुष्यों और देवताओं की चेतना से अधिक होता है परंतु ईश्वर की दिव्यता का पूर्ण प्रकटन नहीं होता, जैसे मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम आदि ईश्वर के अंशावतार थे। जहाँ ईश्वर की दिव्यता का पूर्ण प्रकटन हो जाता है, उनमें और ईश्वर में कोई अंतर नहीं रहता उन्हें पूर्णावतार कहते हैं। ईश्वर के दस अवतारों में राम और कृष्ण को पूर्णावतार माना जाता है।
गीता में कहा है कि जब-जब धर्म का पतन होता है और अधर्म बढ़ने लगता है तब-तब साधु पुरुषों की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए ईश्वर हर युग में अवतार लेता है (गीता 4.7-8)। श्रीकृष्ण की सभी लीलाएँ इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए थीं। वे यशोदा के नटखट बालक, गोपों के सखा, गोपियों के प्रेमी, पांडवों के सहायक, आदर्श गृहस्थ, द्वारका के आदर्श शासक, दुर्धर्ष योधा, अद्भुत कूटनीतिज्ञ, सच्चे मित्र, गीता के गायक के रूप में सर्वोच्च आध्यात्मिक पुरुष और योगेश्वर सभी कुछ एकसाथ हैं। उनकी लीलाएँ गीता के उपदेशों का व्यवहारिक क्रियान्वयन थीं।
गीता में कहा है कि कर्म में कर्ता होने का अहंकार और फल की आसक्ति न हो तो वह कर्म, कर्मयोग बन जाता है जो कर्म बंधन को काट देता है । श्रीकृष्ण का जीवन अहंकार और आसक्ति से विहीन था। द्वारका के राजा होने के बाद भी उन्होंने युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में अतिथियों के पाँव धोने का कार्य किया। तत्कालीन समाज में सारथी का सामाजिक दर्जा निम्न होता था। सूतपुत्र होने के कारण ही कर्ण को जगह-जगह अपमान सहना पड़ा था। परंतु श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया। स्वयं राजा व पूरे देश में सम्मानीय होने के बाद भी वह शान्ति स्थापना के लिए पांडवों के दूत बनकर हस्तिनापुर गये।
अनासक्त इतने कि एक बार जो छूट गया उसे पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। वृंदावन में परिजनों और गोप-गोपिकाओं के प्राणप्रिय थे पर मथुरा जाने के बाद एक बार भी वृंदावन नहीं लौटे। बहुत से राजाओं को पराजित किया, मारा परंतु उनका राज्य उन्हीं के पुत्रों को दे दिया। जब कंस का वध किया तो राजगद्दी उग्रसेन को सौंप दी। महाभारत युद्ध समाप्ति के बाद जब ऐसा लगा कि यादव कुटुम्बी उद्धत हो रहे हैं और इनसे संसार में अशान्ति की आशंका हो गई है तो उनका सर्वनाश भी अपने सामने ही करा दिया। निराभिमानी इतने कि द्वारका के सम्राट होते हुए भी बचपन के मित्र सुदामा को लेने दौड़े चले आए और आँसुओं से उसका पाद प्रक्षालन कर दिया।
धर्म सदैव देश-काल और पात्र सापेक्ष होता है। एक समय जो धर्म है वह दूसरे समय अधर्म हो जाता है। एक अधिकारी के लिए जो धर्म है वह दूसरे व्यक्ति के लिए अधर्म हो जाता है। धर्म के व्यवहारिक स्वरूप को श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में चरितार्थ कर बताया। एक बार युधिष्ठिर ने गांडीव धनुष की निन्दा कर दी। अर्जुन की प्रतिज्ञा थी कि यदि कोई गांडीव धनुष की निन्दा करेगा तो वह उसका वध कर देंगे। इस प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए अर्जुन युधिष्ठर को मारने के लिए उद्धत हो गये। युधिष्ठर तो बड़े भाई थे उनका वध करना नीति के विरुद्ध था पर प्रतिज्ञा का पालन धर्म था। तब श्रीकृष्ण ने बीच का रास्ता निकाल दिया और कहा कि बड़ों का अपमान करना ही उनकी मृत्यु के समान है।
युद्ध क्षेत्र में कर्ण का रथ फँसा होने पर अर्जुन को प्रहार करने का आदेश दिया और कहा कि जिसने अपने जीवन में कभी धर्म का आदर नहीं किया उसे दूसरों से धर्माचरण की आशा रखने का हक नहीं है। कालयवन ने बिना कारण के मथुरा पर आक्रमण किया तो उसे छल से गुफा में ले गये जहाँ मुचकुन्द सोये हुए थे। कालयवन ने कृष्ण समझ कर मुचकुन्द को लात मारी और मुचकुन्द के जागते ही शाप के प्रभाव से भस्म हो गया। उन्होंने अश्वत्थामा के मारे जाने की घोषणा युधिष्ठिर से कराई कि और इससे पहले कि युधिष्ठर कहते कि वह हाथी था, श्रीकृष्ण ने शंख की तुमुल ध्वनि कर दी । जिससे द्रोणाचार्य आगे का वाक्य नहीं सुन सके और यह समझकर कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया है पुत्र शोक से विह्वल हो गये। इसी समय अर्जुन से द्रोणाचार्य का वध करवा दिया। इसी प्रकार दोपहर के समय सूर्य को बादलों से ढ़ँक कर संझा का आभास देकर जयद्रथ का वध करवा दिया। उन्होंने काँटे से काँटा निकालने की युक्ति अपनाई – कण्टकेनैव कण्टकम् – परंतु कर्म के अहंकार व फल की इच्छा से रहित तथा लोक कल्याण के लिए होने के कारण यह कार्य भी धर्म माने गये।
भक्तवत्सल श्रीकृष्ण भक्तों की पुकार पर दौड़े चले आते थे। कौरवों की सभा में द्रोपदी के चीर हरण के समय उन्होंने अपनी प्रभुता दिखा कर द्रोपदी के मान सम्मान की रक्षा की। भागवत् पुराण में श्रीकृष्ण की अनेक लीलाएँ वर्णित हैं जब उन्होंने भक्तों की पुकार पर तुरंत कृपा की।
गीता में कहा है कि कोई क्षणमात्र भी कर्म करे बगैर नहीं रह सकता (गीता 3.5)। श्रीकृष्ण का जीवन भी अहर्निश कर्मयोगी का था। कभी द्वारका, तो कभी हस्तिनापुर, तो कभी तीर्थयात्रा करते रहे। द्वारका की शत्रुओं से रक्षा के बाद रुक्मिणी का मनोरथ पूर्ण करने के लिए अल्प समय में ही द्वारका से विदर्भदेश पहुँच गये। सत्य पालन में इतने दृढ़प्रतिज्ञ थे कि एक बार अपनी बुआ को वचन दे दिया कि शिशुपाल के 100 अपराध माफ करुँगा तो 100 अपराधों तक अविचलित बने रहे। क्रांतिकारी इतने कि परदेशी इन्द्र की पूजा छुड़वाकर गोवर्धन पर्वत, जो फल, घास, जल, आश्रय के रूप में बृजवासियों का जीवनदाता था, की पूजा शुरू करवा दी और गोवर्धन पर्वत को अंगुलि पर उठाकर इन्द्र के कोप से ब्रजवासियों की रक्षा की और इन्द्र का मानमर्दन कर दिया।
कृष्ण की कूटनीतिज्ञता ही थी जिसने भारत भूमि को अत्याचारी राजाओं से मुक्त कर दिया। इन अत्याचारी राजाओं का मुखिया जरासंध था। कृष्ण ने उसे 17 बार उसकी संपूर्ण सेना का नाश कर उसे पराजित किया पर हर बार जीवित छोड़ दिया ताकि वह बचे-खुचे दुष्टों को एकत्र कर लाए और उनका संहार किया जा सके। महाभारत का युद्ध भारत रूपी राष्ट्र का ऑपरेशन था जिसमें अत्याचारी और अनाचारी शासकों रूपी सड़े अंगों को निकाल फेंका गया और नए युग की नींव रखी गई।
कृष्ण की निर्भयता और वीरता तो अविश्वसनीय सी लगती है । बाल्यावस्था में पूतना, तृणावर्त, बकासुर, अघासुर जैसे राक्षसों को मार डाला। भरी सभा में बालक कृष्ण ने कंस को पछाड़ दिया। मणिचोरी का कलंक लगने पर अकेले अगम्य गुफा में चले गये, जाम्बन्त से युद्ध किया और स्मन्तक मणि के साथ ही उसकी पुत्री जामबती को ब्याह लाए। जरासंध, जो अपनी और शिशुपाल जैसे मित्रों की सेनाएँ लेकर युद्ध के लिए तैयार बैठा था, से लड़ने के लिए कृष्ण बिना सेना के मात्र भीम और अर्जुन को साथ लेकर पहुँच गये।
ईश्वर को ज्ञानस्वरूप माना जाता है। कृष्ण ईश्वर के पूर्ण अवतार थे अत: ज्ञान के अनन्त स्रोत थे। गीता जैसा अद्भुत आध्यात्मिक ग्रंथ उनके श्रीमुख से प्रकट हुआ है। गीता में उन्होंने धर्म की ऐसी व्याख्या की कि सामान्य कर्मों को ईश्वर की पूजा का माध्यम बना दिया और यज्ञ का अर्थ वह सभी कर्म कर दिये जो अनासक्ति पूर्वक लोक कल्याण के लिए किये जाते थे। इस प्रकार धर्म बड़े राजाओं के द्वारा किये जानेवाले भव्य यज्ञों से निकलकर आम लोगों के लिए सुलभ हो गया।
उन्होंने स्वयं गीता में कहा है कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं (गीता 4.9) उन्होंने माता यशोदा और अर्जुन को अपने विश्व रूप का दर्शन कराया, स्पर्श मात्र से कुब्जा को सुन्दर युवती बना दिया, जयद्रथ वध के लिए असमय में ही शाम कर दी, शिशु अवस्था में ही राक्षसों का वध किया, उत्तरा के गर्भ में अंगुष्ठ पुरुष के रूप में प्रवेश कर परीक्षित की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की आदि कार्य सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं थे।
श्रीकृष्ण का सौंदर्य इतना अलौकिक था कि कालयवन तक उन्हें देखकर स्तब्ध रह गया था। गोपियों के तो वह प्राण थे। उनकी मुरली की तान पर जड़, चेतन, पशु, पक्षी तक मुग्ध हो जाते थे। गाएँ घास चरना और अपने बछड़ों को दूध पिलाना तक भूल जाती थीं। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वह कभी चिन्तित नहीं रहे। हर जगह आनन्द ही आनन्द बिखेरा। जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ कृष्ण ने पूर्णता का प्रदर्शन न किया हो। ब्रह्म के गुण – ज्ञान, प्रेम और शक्ति – कृष्ण में पूर्णता से प्रकट हुए थे इसलिए वह ईश्वर के पूर्णावतार कहे जाते हैं।