Silver Screen: जीवन से निकलकर भी Cinema जीवन से कितना जुड़ सका!

922

Silver Screen: जीवन से निकलकर भी Cinema जीवन से कितना जुड़ सका!

समाज में बढ़ती हिंसा, यौन हमलों और जालसाज़ी की सीख देने के लिए अक्सर ही Cinema को दोषी बनाया जाता है। यह तर्क पूरी तरह से अनुचित भी नहीं है। जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, ठीक उसी प्रकार सिनेमा के भी दोतरफ़ा परिणाम मिलते है। सिनेमा को समाज सुधारने, जागरूक करने एवं मनोरंजन करने के सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधनों में गिना जाता है।
सिनेमा हमारे जीवन का अटूट हिस्सा बनने के साथ व्यापारिक दृष्टि से भी लाभकारी बन गया। सिनेमा के माध्यम से दर्शकों को सामाजिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय मामलों के छुपे पक्ष भी ज्ञात होते हैं। इसके अलावा आम आदमी की जीवन शैली, शिक्षा, साहित्य और व्यक्तित्व विकास के प्रचार-प्रसार में भी सिनेमा बरसों से कारगर भूमिका निभाता रहा है। आज आधुनिक तकनीक से लबरेज फिल्में बनाने में विश्व की अग्रणी पंक्ति के देशों के मुकाबले में खड़ा है। लेकिन, सबसे जरुरी है फ़िल्मी कथानकों का जीवन से जुड़ना।
Silver Screen: जीवन से निकलकर भी सिनेमा (Cinema)जीवन से कितना जुड़ सका!
    जीवन मूल्य हमारे पारिवारिक संस्कार हैं, जो बचपन में ही घुट्टी में पिलाए जाते हैं। लेकिन, बाद में इन्हें समय-समय पर पालना-पोसना पड़ता है, ताकि उनकी चमक जीवनभर बरक़रार रहे। कभी इन जीवन मूल्यों को परिवार चमकाता है, कभी परिवेश और कभी ये सिनेमा जैसे माध्यम के जरिए पोषित होते हैं। भारतीय समाज और सिनेमा में निरंतर बदलाव हुए, लेकिन कुछ जीवन मूल्य कभी नहीं बदले। सिनेमा के नायक को उन जीवन मूल्यों का सबसे बड़ा पोषक बताया जाता रहा है। पर, सिनेमा की ये परंपरा हमेशा एक सी नहीं रही।
वक़्त के साथ-साथ इसमें उतार-चढाव आते रहे। फिल्मों के शुरूआती दौर में जीवन मूल्यों को संवारा गया, लेकिन बीच में इन्हें खंडित करने में भी कसर नहीं छोड़ी गई। कभी खलनायक के बहाने तो कभी भटके नायक ने जीवन मूल्यों की तिलांजलि दी। सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो सामाजिक धरातल को मजबूती देने वाली कुछ यादगार फिल्में ऐसी है, जिसे इस नजरिए से कभी भुलाया नहीं गया। सामाजिक दायित्वों की दृष्टि से भी ये फ़िल्में महत्वपूर्ण बनी। उनमें बरसों पहले बनी फिल्म ‘परिवार’ को हमेशा याद रखा जाएगा। आदर्श छोटे परिवार के नजरिए से यह एक कालजयी फिल्म थी। लेकिन, उसके बाद इस कथानक पर दूसरी फिल्म शायद नहीं बनी।
Silver Screen: जीवन से निकलकर भी सिनेमा (Cinema)जीवन से कितना जुड़ सका!
   इस बात का कोई कभी सटीक जवाब नहीं मिला कि जीवन मूल्यों को सिनेमा ने संभाला और संवारा या उसे दूषित ज्यादा किया! इसे लेकर हमेशा ही विवाद भी बना रहा। कहा जाता है, कि समाज के पतन के लिए सिनेमा ही ज़िम्मेदार है। लेकिन, ये कितना सच या झूठ है, इसका तार्किक रूप से किसी के पास कोई जवाब नहीं होता। क्योंकि, ऐसे कई प्रमाण है, जो इस तर्क को गलत साबित करते हैं। फिल्मों के आने के बरसों पहले भी समाज कई तरह की कुरीतियों और कुसंगतियों से घिरा था। सिनेमा ने समाज को आधुनिकता की राह जरूर दिखाई, पर सिनेमा कारण समाज दूषित हुआ, ये बात गले नहीं उतरती।
      देखा जाता रहा है, कि सिनेमा में कथानक में बदलाव करके बात को नए सिरे से कहने की कोशिश होती। इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। क्योंकि, जीवन मूल्य वही है, पर उनकी अहमियत हर समयकाल में अलग-अलग संदर्भों में बदलती है। कई बार कहानियों में परिवेश के हिसाब से बदलाव करके अपनी बात कहने की कोशिश होती है। वी शांताराम ने 40 के दशक में ‘जीवन प्रभात’ बनाई थी। इसमें अपने पति से प्रताड़ित और आहत होने वाली पत्नी को केंद्रीय कथानक बनाया था। परेशान होकर पत्नी अदालत में अपनी पीड़ा की गुहार लगाती है।
Silver Screen: जीवन से निकलकर भी सिनेमा (Cinema)जीवन से कितना जुड़ सका!
पर, फैसले के वक़्त न्यायाधीश कहते हैं कि पति को अपनी पत्नी के साथ ऐसी प्रताड़ना करने का अधिकार है। अदालत ने ये बात इसलिए कही थी, कि उस समय की सामाजिक परिस्थितियां ही कुछ ऐसी थी। इसके बाद वो महिला अपनी तरह प्रताड़ित पत्नियों का दल बनाती है और उन पतियों को पीटती है, जो अपनी पत्नियों पर अत्याचार करते थे। इसके सालों बाद माधुरी दीक्षित और जूही चावला की फिल्म ‘गुलाबी गैंग’ आई, जिसका कथानक भी इसी तरह का था।
दरअसल, ये ‘जीवन प्रभात’ का ही वर्तमान संस्करण था। ये महिलाओं पर अत्याचार की ऐसी सामाजिक बुराई थी, जो इतने सालों में भी नहीं बदली! हमारे जीवन मूल्य स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करते! पर, जहाँ भी इस तरह का भेद होता है, उसके खिलाफ आवाज भी उठती है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं पर हिंसा को लेकर अकसर फिल्में बनती रही है, जिसका अंत अत्याचारी को सजा मिलने पर होता है। अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू की फिल्म ‘पिंक भी स्त्री पक्ष को मजबूती से प्रस्तुत करती है।
    एक समय ऐसा भी आया, जब सामाजिक दुराचारों को परदे पर उतारा जाने लगा। तर्क ये दिया गया कि समाज में यही सब घट रहा है, तो उसे फ़िल्मी कथानकों का विषय क्यों न बनाया जाए! आततायियों और डाकुओं के अत्याचार की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। यदि ये सब सच है और समाज में होता है, तो फिर इन पर फ़िल्में क्यों नहीं बन सकती! यदि जीवन मूल्यों को सकारात्मक नजरिए से देखा जाता है, तो इनके नकारात्मक पक्ष को क्यों दबाया जाए।
Silver Screen: जीवन से निकलकर भी सिनेमा (Cinema)जीवन से कितना जुड़ सका!
कुछ साल पहले ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तरह बनी कई फिल्मों में लूट-खसोट, हत्या, बलात्कार, गुंडागर्दी, छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष ने ग्लैमरस तरीके से फिल्मों में एंट्री कर ली। यदि कोई फिल्म सामाजिक यथार्थ का आईना दिखाती है, तो ऐसी फिल्में बनने में बुराई क्या है! ऐसा सच जिसमें मानवीय मूल्यों का पतन होता है, तो ऐसी फ़िल्में भी स्वीकारी जानी चाहिए। ये बुराई है और इसका अंत कभी अच्छा नहीं होता, ये संदेश भी जीवन मूल्यों के लिए जरूरी है। आज मदर इंडिया, जागते रहो या ‘सुनहरा संसार’ जैसी फिल्म की तो कल्पना नहीं की जा सकती! लेकिन, फिर भी लगान, बागबान और ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ जैसी फ़िल्में भी जीवन मूल्यों को बचाने में समर्थ हैं।
     आज़ादी से काफी पहले से सिनेमा का चेहरा बदलने लगा था। वीर गाथाओं पौराणिक और प्रेम कहानियों से बाहर निकलकर बेहतर समाज की परिकल्पना लिए सिनेमा के कथानकों में बदलाव आया। ये वो दौर था, जब आज़ादी के बयार में जीवन के मूल्य ज्यादा कठोर हो रहे थे। ऐसे में देश और समाज के लिए ईमानदारी, मेहनत और भाई-चारे की कहानियों वाली फ़िल्में आई। लेकिन, आजादी के बाद देश में असली बदलाव आया। सत्यजीत रे, विमल राय जैसे फिल्मकारों ने गरीबों की पीड़ा पर फिल्में बनाई।
इसके बाद सामाजिक संदर्भों जैसे दहेज, वेश्यावृत्ति, बहुविवाह, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर भी फिल्में बनाई गई। ऋत्विक घटक, मृणाल सेन जैसे सामाजिक सोच वाले लोगों ने भी आम आदमी की परेशानियों पर नजर डाली और उसे सेलुलॉइड पर उतारा। कुछ नकारात्मक फ़िल्में बनी, पर ऐसी फिल्मों के लिए सिर्फ फिल्मकारों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता! क्योंकि, आज का युवा वर्ग और बच्चे इतने व्यस्त होते जा रहे हैं, कि उनके लिए पनपने वाले मानवीय रिश्तों को समझना और संभालना मुश्किल होता जा रहा है। सिनेमा में सामाजिक मूल्यों का पोषण इन्हीं के लिए जरुरी है।
    वास्तव में सिनेमा में मानवीय और पारिवारिक मूल्यों को बढ़ावा देने में ‘राजश्री’ की फिल्मों का बड़ा योगदान है। 1962 में ताराचंद बडजात्या ने इस कंपनी को परिवारिक फिल्म बनाने के मकसद से ही बनाया था। शुरूआती फिल्मों आरती, दोस्ती, तकदीर, जीवन-मृत्यु और ‘उपहार’ से चर्चा में आई इस फिल्म कंपनी ने हमेशा अपने लक्ष्य का ध्यान रखा। 1972 में राजकुमार बडजात्या ने इसकी संभाली और पारिवारिक फिल्मों की परंपरा को पोषित करने के साथ आगे भी बढ़ाया।
70 के दशक में जब एक्शन फिल्मों का दौर था, तब भी इस बडजात्या-परिवार ने जीवन मूल्यों वाले सार्थक सिनेमा का दामन नहीं छोड़ा। पिया का घर, सौदागर, गीत गाता चल, तपस्या, चितचोर, पहेली, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, अंखियों के झरोखे से, सुनयना, सावन को आने दो, नदिया के पार और ‘अबोध’ जैसी फिल्मों का निर्माण किया। लेकिन, फार्मूला सिनेमा ने ऐसे फिल्मों को आगे नहीं बढ़ने दिया। क्योंकि, उनका लक्ष्य सामाजिक चिंतन कम और बॉक्स ऑफिस से कमाई करना ज्यादा रहा।