जतिन जिन्होंने सबका दिल जीता था…

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जतिन जिन्होंने सबका दिल जीता था…

आज हमें आजाद हुए 76 साल हो गए। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हम हिस्सा हैं। चुनाव लोकतंत्र की ताकत है। सबसे ताकतवर मतदाता है। आजादी के पहले मुकाबला अंग्रेजों से था। अब मुकाबला अपनों से है। तब हम अपना लहू बहाते थे। अब हम अपनी बोली से ही अपनों को लहुलुहान कर रहे हैं। तब हमारा हक अंग्रेजों ने छीन रखा था, अब हमें अपनों से ही हक की लड़ाई लड़नी पड़ती है। तब लोग अपनों के कष्ट दूर करने के लिए जीवन का बलिदान कर देते थे। और उनकी जुबां पर उफ भी नहीं आता था। वह लोग और थे। वह अलग ही माटी के बने थे। और उनमें से ही एक थे यतीन्द्रनाथ दास यानि जतिन्द्रनाथ दास। जो जेल में भारतीय कैदियों के हक की खातिर 63 दिन की लंबी भूख हड़ताल कर इस दुनिया को अलविदा कह गए थे। जिनके अंतिम दर्शन के लिए मानो पूरा भारत ही उमड़ पड़ा था। जवाहर, सुभाष, गणेश शंकर विद्यार्थी सभी जिसके लिए सड़कों पर उतर आए थे। ऐसे भारत माता के लाल का जन्म आज यानि 27 अक्टूबर को ही हुआ था। कम उम्र में भारत मां की बलिवेदी पर सर्वस्व न्यौछावर करने का पर्याय जतिन्द्रनाथ दास थे। आज थोड़ा सा जतिन्द्रनाथ के जीवन में झांक लेते हैं। उनको नमन कर लेते हैं। उनका मनन कर लेते हैं।

यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कोलकता में हुआ था। जब वे नौ वर्ष के थे तभी उनकी माँ का देहान्त हो गया था। उनके पिता ने उनका पालन पोषण किया था। पढ़ाई के दौरान ही जब गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो यतीन्द्र भी आन्दोलन में कूद पड़े थे। इस आन्दोलन में भाग लेने के चलते अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया था। जब यह आन्दोलन धीमा पड़ा तो उन्हें भी शेष क्रांतिकारियों के साथ छोड़ दिया गया। फिर क्या था, जतीन्द्र दास को यहीं से राह मिल गयी थी। उनके हृदय में अपनी मातृभूमि को स्वतंत्रत करने के लिए अथाह स्वप्न थे। लेकिन असहयोग आन्दोलन की विफलता के बाद उनके स्वप्न टूटने लगे थे। अन्य क्रांतिकारियों की भांति उन्हें भी इस आन्दोलन का वापस लेना समझ नहीं आया था और अच्छा भी नहीं लगा था। सन 1925 में जब जतिन कोलकाता के बंगबासी कॉलेज में बीए कर रहे थे, तब अंग्रेज सरकार ने उन्हें उनकी राजनैतिक गतिविधियों के लिये गिरफ्तार कर लिया। उन्हें मेमनसिंह जेल में डाल दिया गया। यहाँ उन्होंने राजनैतिक कैदियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के विरोध में भूख हड़ताल शुरू कर दी। 20 दिन की भूख हड़ताल के बाद जेल के अधीक्षक ने उनसे माफी मांग ली और उन्हें रिहा कर दिया। यहां से जतिन्द्रनाथ दास को यह समझ में आ गया था कि अपनों के हक के लिए लड़ना कितना जरूरी है।

उसके बाद जतिन शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ जुड़ गए, जिन्होंने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की थी। शचीन्द्रनाथ सान्याल ने उन्हें बम बनाना सिखाया। वर्ष 1928 में उनकी भेंट भगत सिंह से हुई। भगत सिंह ने उन्हें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए बम बनाने के लिए कहा। 14 जून 1929 को उन्हें क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें लाहौर के केन्द्रीय जेल में डाल दिया गया और लाहौर षड्यन्त्र मामले में पूरक अभियोग चलाया गया। लाहौर जेल में भी उन्होंने अन्य क्रान्तिकारियों के साथ अमरण अनशन शुरू कर दी। इनकी मांग थी कि भारत के राजनैतिक कैदियों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाय जैसा यूरोपीय राजनैतिक कैदियों के साथ किया जाता है। उन्हें भी वे सब सुविधाएं दी जाएं जो यूरोप के राजनैतिक कैदियों को दी जातीं हैं। तब जेल में भारत के कैदियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें पहनने के लिये जो यूनिफॉर्म दिया जाता था उनकी बहुत दिनों तक सफाई नहीं होती थी।भोजनालय में चूहे और काकरोच का बसेरा होता था जिससे भोजन अत्यन्त असुरक्षित था। भारतीय कैदियों को पढ़ने के लिये अखबार आदि कुछ नहीं दिया जाता था, न ही लिखने के लिये कागज दिया जाता था। इसके विपरीत उन्हीं जेलों में ब्रितानी कैदियों की हालत बिल्कुल अलग थी। यह भूख हड़ताल ऐसी हुई कि इसकी चर्चा हर जगह होने लगी। जेल के अधिकारियों ने उनकी भूख हड़ताल तुड़वाने का निर्णय लिया। उनके शरीर में जबरन रबड़ की नली से दूध डालने का प्रयास किया, इस प्रयास में दूध उनके फेफड़ों में चला गया। वह पीड़ा से भर उठे लेकिन उन्होंने उपवास जारी रखा। उनकी स्थिति बिगड़ती चली गयी। उनके भूख हड़ताल की कहानियां बाहर जाने लगी थीं। लोगों के दिल में आक्रोश उत्पन्न हो रहा था। जतीन्द्र दास ने 13 सितम्बर 1929 को अंतिम सांस ली थी। वह उनकी भूख हड़ताल का 63वां दिन था।

उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके निधन के समाचार से सड़कें लोगों से पट गयी थीं और लोग बस उनके अंतिम दर्शन करना चाहते थे। तत्कालीन रिपोर्टों के अनुसार लगभग पाँच लाख लोगों ने उनके अंतिम संस्कार में भाग लिया था। हरीश जैन, जिन्होनें “हैंगिंग ऑफ भगत सिंह” क्रांतिकारी घटनाओं की पूरी श्रृंखला में से एक का सम्पादन किया है, उनका विचार है कि जतिन दास के आत्म-बलिदान और उसकी प्रतिक्रिया का ही परिणाम था कि अंग्रेजों ने किसी भी राजनीतिक कैदी का शव उनके परिजनों को सौंपने से इनकार कर दिया। इसीलिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शवों का सतलज के तट पर आधी रात को गुप्त रूप से अंतिम संस्कार किया गया था।

जतीन्द्र दास की अंतिम यात्रा में लाहौर से लेकर कलकत्ते तक लोग श्रद्धांजलि देने आए। उनके अंतिम दर्शन के लिए कानपुर रेलवे स्टेशन पर जवाहर लाल नेहरु एवं गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में लाखों लोग उमड़ पड़े थे। हावड़ा रेलवे स्टेशन पर सुभाष चन्द्र बोस ने नेतृत्व में पचास हजार लोगों ने श्रद्धांजलि दी थी।

वह जतिन्द्रनाथ दास यानि जतिन 24 साल 10 माह 17 दिन जीकर भी हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गए।जतिन जिन्होंने सबका दिल जीता था। आजादी की लड़ाई के महान योद्धा के रूप में वह हमेशा जिंदा रहेंगे। इन सपूतों के दम पर हमने आजादी पाई। और अब हम आजाद भारत में लोकतंत्र का महापर्व चुनाव की प्रक्रिया के आनंद में डूबे हैं। जतिन दास को याद कर एक बार यह चिंतन करते हैं कि हमने क्या पाया और क्या खोया है? यही जतिन के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है…।