झूठ बोले कौआ काटे ! राजनीति में मक्कारी, जनता नहीं बेचारी!
राजनीति में शुचिता-नैतिकता क्या इतिहास की चीज हो गई है? शराब नीति घोटाले की आंच दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल तक पहुंच गई है, तो चुनावी मौसम में दल बदलुओं की पौ बारह है।
दिल्ली शराब नीति घोटाले में पूछताछ के लिए 2 नवंबर को अरविंद केजरीवाल प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) में पेश नहीं हुए। उल्टा, ईडी को पत्र भेज कर केजरीवाल ने कहा कि पूछताछ के लिए भेजा गया नोटिस गैरकानूनी और राजनीति से प्रेरित है। उन्होंने कहा कि भाजपा के कहने पर नोटिस भेजा गया है। इसे इसलिए भी भेजा गया, ताकि, मैं चार राज्यों में होने वाले चुनाव प्रचार नहीं कर सकूं। नोटिस को तुरंत वापस लिया जाए। केजरीवाल ने लिखा है कि यह साफ नहीं है कि ‘आप’ने मुझे किस नाते समन भेजा है, एक गवाह के तौर पर या फिर संदिग्ध के तौर पर। मुझे समन में डिटेल भी नहीं दी गई। उन्होंने आगे लिखा है कि यह भी नहीं बताया गया कि मुझे व्यक्तिगत तौर पर बुलाया गया है या फिर मुख्यमंत्री के तौर पर या फिर आम आदमी पार्टी के मुखिया के तौर पर।
‘आप’ नेता व राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा ने तो आरोप लगाया कि भाजपा विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार करने की योजना बना रही है। इस कड़ी में अरेस्ट होने वाले केजरीवाल पहले नेता नहीं होंगे। उन्होंने दिल्ली सीएम के ईडी के सामने पूछताछ के लिए जाने से पहले उनकी गिरफ्तारी के डर की बात कही। चड्ढा ने एक लिस्ट दिखाते हुए बताया कि केजरीवाल के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन गिरफ्तार किए जाएंगे। फिर बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी का नंबर आएगा। केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन भी गिरफ्तार किए जाएंगे।
दूसरी ओर, पांच राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम और तेलंगाना में चुनावी मौसम में आयाराम-गयाराम का खेल जारी है। राजस्थान की लेडी योगी कही जाने वाली साध्वी अनादि सरस्वती ने चुनाव लड़ने के लिए भाजपा की सदस्यता से इस्तीफा देकर कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। इसी तरह, अजमेर के किशनगढ़ से भाजपा से टिकट नहीं मिलने से नाराज विकास चौधरी ने टिकट के लिए कांग्रेस का हाथ थाम लिया। कांग्रेस ने बसपा से आए तीन लोगों को भी टिकट देकर उपकृत किया।
मध्य प्रदेश में भाजपा से कांग्रेस मे पलटी मारने वाले दीपक जोशी को खातेगांव, गिरिजा शंकर शर्मा होशंगाबाद, चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी भिंड, भंवर सिंह शेखावत बदनावर, अभय मिश्रा सेमरिया, रामकिशोर शुक्ला महू, समंदर पटेल जावद, अनुभा मुंजारे बालाघाट और बौद्ध सिंह भगत को कटंगी से टिकट दिया है। जबकि, भाजपा ने मैहर से श्रीकांत चतुर्वेदी, बड़वाह सचिन बिरला, वारासिवनी प्रदीप जायसवाल और बिजावर से राजेश शुक्ला को टिकट दिया है। इसी तरह, कांग्रेस के पूर्व विधायक यादवेंद्र सिंह को बसपा ने सतना के नागौद और भाजपा की पूर्व विधायक ममता मीणा को आम आदमी पार्टी ने चाचौड़ा से अपना प्रत्याशी बनाया है।
दूसरी ओर, कुछेक पार्टी बदलने/छोड़ने या अफसरी त्यागने वालों की इच्छाएं दम तोड़ती नजर आई। राज्यमंत्री का दर्जा मिलने के बावजूद टिकट की आस में भाजपा छोड़ कर कांग्रेस का दामन थामने वाले अवधेश नायक कोलारस के भाजपा विधायक बीरेंद्र रघुवंशी, कांग्रेस टिकट नहीं मिला तो घर के रहे न घाट के। मैहर से भाजपा विधायक नारायण त्रिपाठी को अपनी खुद की पार्टी बना कर चुनाव लड़ने की नौबत आ गई। भिंड से बसपा विधायक संजीव कुशवाह आयाराम-गयाराम की कसौटी पर खरे उतरे। कुशवाह ने टिकट की आस में भाजपा का दामन थामा लेकिन जब संजीव कुशवाह को पार्टी ने टिकट दे दिया तो वापस बसपा में लौट गए। बसपा से दोबारा टिकट भी पा गए। राज्य प्रशासनिक सेवा अधिकारी निशा बांगरे ने आमला सीट से चुनाव लड़ने की प्रत्याशा में पद त्यागा पर इस्तीफा स्वीकार होने में लग रहे समय के चलते कांग्रेस ने मनोज मालवे को प्रत्याशी घोषित कर दिया। फिलहाल, न घर की रही न घाट की।
झूठ बोले कौआ काटेः
दिल्ली शराब नीति घोटाले में ‘आप’ नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया फरवरी से ही जेल में बंद हैं. हाल ही में ‘आप’ के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को भी ईडी ने गिरफ्तार किया। शराब घोटाले को लेकर ईडी का शिकंजा धीरे-धीरे ‘आप’ के कई नेताओं पर कसता जा रहा है। मनी लॉन्ड्रिंग मामले में दिल्ली के कैबिनेट मंत्री राज कुमार आनंद के ठिकानों पर भी ईडी ने छापेमारी की।
ईडी के राडार पर आने से पहले सीएम अरविंद केजरीवाल से 16 अप्रैल को सीबीआई ने करीब साढ़े नौ घंटे पूछताछ की थी। बाद में केजरीवाल ने कहा था कि पूरा कथित आबकारी नीति घोटाला झूठ, फर्जी और गंदी राजनीति से प्रेरित है। इसी के साथ उन्होंने पूछताछ के दौरान सीबीआई अधिकारियों की ओर से की गई हॉस्पिटैलिटी की तारीफ की।
हाल ही में शराब घोटाला मामले में मनीष सिसोदिया की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में 338 करोड़ रुपये की मनी ट्रेल अस्थायी रूप से साबित हुई है।
अब ईडी के सामने पेश होने की बजाय उससे ही सवाल-जवाब करने वाले सीएम केजरीवाल ने विक्टीम कार्ड का दांव चल दिया है। वे ईडी के सामने पेश होकर गिरफ्तार हो जाते तो विक्टीम कार्ड का दांव उतना असर नहीं छोड़ता। उनकी सोच यही होगी कि मप्र, छग और राजस्थान में चुनाव प्रचार के दौरान वह इस कर्ड को कितना भुना लें। और, यदि इस दौरान उनकी गिरफ्तारी हो भी गई तो उनकी पार्टी के लिए सोने में सुहागा हो सकता है। वैसे, इसका उल्टा भी हो जाए तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि, अन्ना हजारे के आंदोलन से ईमानदारी की राजनीति का सर्टिफिकेट लेकर उपजी पार्टी की सरकार पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगे हैं। ‘आप’ नेताओं के जेल जाने का सिलसिला भी जारी है। लोगों का मोहभंग हुआ तो 2024 में इंडिया गठबंधन के लिए भी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। गठबंधन के कई बड़े नेता पहले ही भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे हुए हैं, जमानत पर हैं।
राजनीति में शुचिता-नैतिकता की बातें अब इतिहास हो गई हैं। कुछ दशक पहले तक दल बदल पर कानून बनाए गए, लेकिन उसका कोई खास असर हुआ नहीं। पैसे-पोजिशन के लिए दल बदलते भी देर नहीं लगती। ऐसी व्यवस्थाओं और भावनाओं का मखौल सबसे अधिक तब उड़ाया गया जब चौथे आम चुनावों के बाद 1967 में कांग्रेस पार्टी ज्यादातर राज्यों में चुनाव हार गई। उसके एकछत्र राज का अंत हुआ, तब पहली बार कांग्रेस ने व्यापक तौर पर राज्यों में दल बदल कराकर सरकारें बदलीं। 1967 और फरवरी 1969 के चुनावों के बीच भारत के राज्यों और संघ-शासित प्रदेशों के करीब 3500 सदस्यों में से 550 सदस्यों ने अपना दल बदला था। केवल एक साल के भीतर ही 438 विधायकों ने दल-बदल किया। इस डेढ़ साल की अवधि में एक हजार से अधिक दल-बदल हुए। औसतन हर रोज एक से अधिक विधायकों ने दल-बदल किया। खुद कांग्रेस के 175 विधायक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए। तब भी ये आऱोप लगाए गए थे कि विधायकों को इसके लिए मोटा धन दिया जा रहा है।
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की मार्च 2021 की रिपोर्ट देखें, तो पिछले 5 सालों में कम से कम 433 सांसदों और विधायकों ने चुनाव जीतने के बाद पार्टी बदल ली और अगला चुनाव इसी पार्टी के टिकट पर लड़ा। मध्य प्रदेश, मणिपुर, गोवा, अरूणाचल प्रदेश और कर्नाटक में विधायकों के दल बदलने से सरकारें गिर गईं। 2016 से 2020 के दौरान हुए चुनावों में सबसे अधिक अर्थात् 170 (42 प्रतिशत) विधायक कांग्रेस ने गंवा दिए। भाजपा ने मात्र 18 (4.4 प्रतिशत) विधायक गंवाए। बसपा और टीडीपी ने 17, एनपीएफ और वाईएसआरसीपी ने 15, एनसीपी ने 14, सपा ने 12 और राजद ने 10 विधायक खोए। सबसे कम विधायक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट (1), द्रमुक (1) और रालोद (2) ने खोए। इन दलबदलुओं में से सबसे अधिक नेता भाजपा की शरण में गए।
उपरोक्त अवधि में इनमें से 405 विधायकों ने दोबारा चुनाव लड़ा, जिनमें 182 विधायक (44.9 प्रतिशत) अपनी पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए। कुल 38 विधायक (9.4 प्रतिशत) कांग्रेस में गए, जबकि 25 विधायक (6.2 प्रतिशत) टीआरएस में गए। 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा के 5 लोकसभा सदस्यों (41.7 प्रतिशत) ने दूसरी पार्टी का दामन थामा। कुल 12 लोकसभा सदस्यों ने अपनी पार्टी छोड़ी और उनमें से 5 (41.7 प्रतिशत) कांग्रेस में शामिल हुए।
2019 के चुनावों के दौरान कांग्रेस के 7 राज्यसभा सदस्यों (43.8 प्रतिशत) ने पार्टी को छोड़ दूसरी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा। कुल 16 राज्यसभा सदस्यों ने अपनी पार्टी छोड़ी और उनमें से 10 (62.5 प्रतिशत) भाजपा में शामिल हुए। 2019 लोकसभा चुनावों में जिन 12 सांसदों ने अपनी पार्टी छोड़ दूसरी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा, उनमें से एक भी सांसद चुनाव जीत नहीं पाया। पिछले पांच सालों में अलग-अलग राज्यों में 357 विधायकों ने अपनी पार्टी छोड़ दी, लेकिन उनमें से मात्र 170 विधायक ही दोबारा चुनाव जीत पाए। विधानसभाओं के उपचुनावों में 48 विधायकों ने पार्टी बदली, लेकिन उनमें से मात्र 39 ही जीत पाए। मौजूदा राज्यसभा में 16 ऐसे सदस्य हैं जो इससे पहले भी राज्यसभा में थे, लेकिन दूसरी पार्टी में। पार्टी बदलने के बावजूद वे चुनाव जीत गए।
संविधान की 10वीं अनुसूची के अनुसार दल बदल के मुद्दे पर सांसदों और विधायकों पर कार्रवाई का अधिकार स्पीकर के पास है। इसमें अंदर और बाहर दोनों जगह उनके आचरण के लिए अयोग्यता की कार्रवाई का अधिकार स्पीकर को दिया गया है। हालांकि, कानून में समय-सीमा की कोई बात नहीं होने की वजह से फैसले जल्दी नहीं हो पाते हैं। जानकार मानते हैं कि सत्ताधारी दल की सुविधानुसार स्पीकर दल बदल पर फैसला करते हैं। इसी कारण पार्टी बदलने के बावजूद भी नेता लंबे समय तक अपनी कुर्सी बचाए रखने में कामयाब रहते हैं।
इसी लिए, एक देश, एक चुनाव को लेकर गठित रामनाथ कोविंद कमेटी दल बदल कानून पर भी विचार करेगी। 17वीं लोकसभा में कम से कम 4 ऐसे सांसद हैं, जो दल तो बदल लिए हैं, लेकिन उन पर अयोग्यता की कार्रवाई पिछले दो साल से नहीं हुई है। कई विधानसभाओं में भी कुछ ऐसा ही हाल है।
और ये भी गजबः
अमेरिका के लोकतंत्र में दल बदल की साफतौर पर मनाही है। यूरोप के तमाम देशों में सख्त कानून है कि अगर किसी पार्टी का सदस्य दल बदलता है तो उसकी संसद सदस्यता खत्म कर दी जाती है। बांग्लादेश के संविधान में अनुच्छेद 70 कहता है कि एक जनप्रतिनिधि अपनी पार्टी के खिलाफ सदन में अगर वोट देता है या पार्टी बदलता है तो उसे सदस्यता से इस्तीफा देना होगा।
केन्या में उनके संविधान की धारा 40 कहती है कि अगर कोई सदस्य अपनी पार्टी छोड़ता है तो उसे अपनी सीट खाली करनी होगी। इसका फैसला स्पीकर करेंगे और सदस्य चाहे तो इसके खिलाफ हाईकोर्ट में अपील कर सकता है। सिंगापुर के संविधान में अनुच्छेद 46 के अनुसार अगर कोई सदस्य पार्टी छोड़ता है या पार्टी उसे हटाती है तो उसे अपनी सीट भी खाली करनी होगी। किसी भी सदस्य की अयोग्यता का फैसला संसद ही करेगी। दक्षिण अफ्रीका के संविधान की धारा 47 के अनुसार, अगर कोई सदस्य अपनी पार्टी छोड़ता है तो उसकी सदस्यता खुद ब खुद ही खत्म हो जाएगी।
ब्रिटेन और कनाडा में जरूर इसके नियम लचीले हैं लेकिन वहां आमतौर सरकार बनाने या गिराने के लिए अवसरवादी दल बदल नहीं देखा गया। वहां दल बदल को क्रासिंग द लाइन कहते हैं। ब्रिटेन और कनाडा में सत्ता पक्ष और विपक्ष अलग अलग बैठते हैं। वहां अगर एक सदस्य अपना फ्लोर क्रास करके दूसरे पाले में जाकर बैठ जाए तो इसे दल बदलना मान लेते हैं। ब्रिटेन में सत्ता पक्ष संसद में बायीं ओर और विपक्ष दायीं ओर बैठता है. ब्रिटेन में दल बदलने के नियम लचीले हैं. इस पर आमतौर पर कोई कार्रवाई नहीं होती. पार्टी बदलने पर न तो सदस्यता जाती है और ना ही सीट खाली करके फिर से चुनाव लड़ना होता है.
यद्यपि ब्रिटेन और कनाडा में ऐसा कम होता है लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसा कई बार हुआ लेकिन कोई भी जनप्रतिनिधि पैसे या पद के लालच में कभी पार्टी बदलता हुआ नहीं दिखा है।