मैडम क्यूरी से कवि देवताले और लोकतंत्र में मतदाता तक…

559

मैडम क्यूरी से कवि देवताले और लोकतंत्र में मतदाता तक…

“जीवन में कुछ भी नहीं जिससे डरा जाए, आपको बस यही समझने की जरूरत है।” मैडम क्यूरी यही संदेश देती हैं। कवि चंद्रकांत देवताले का भी यही भाव है।आज यानि 7 नवंबर की तारीख इन दोनों शख्सियत का जन्मदिन होने के कारण बहुत खास है। इसी दिन रेडियम और पोलोनियम की खोज करने वाली वैज्ञानिक मैडम क्यूरी का जन्म हुआ था। कैंसर के इलाज में क्यूरी का योगदान ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए इसी तारीख को कैंसर जागरूकता दिवस मनाया जाता है। यह दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मध्यप्रदेश में जन्मे प्रसिद्ध कवि चंद्रकांत देवताले का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था। देवताले की कविताएं यथार्थ में ले जाती हैं और इसमें लोकतंत्र और इसकी महत्वपूर्ण कड़ी मतदाताओं यानि आम आदमी का दर्द भी उन्होंने बखूबी महसूस और अभिव्यक्त किया है।

पहले बात करते हैं मैडम क्यूरी की। मैरी स्क्लाडोवका क्यूरीपोलिश (7 नवम्बर 1867 – 4 जुलाई 1934) विख्यात भौतिकविद और रसायनशास्त्री थी। मेरी ने रेडियम की खोज की थी। विज्ञान की दो शाखाओं (भौतिकी एवं रसायन विज्ञान) में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली वह पहली वैज्ञानिक हैं। वैज्ञानिक मां की दोनों बेटियों ने भी नोबल पुरस्कार प्राप्त किया। बडी बेटी आइरीन को 1935 में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ तो छोटी बेटी ईव को 1965 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। मैडम क्यूरी ने कैंसर से लड़ने में अहम योगदान दिया था। उनके योगदान को याद रखने के उद्देश्य से हर साल मैडम क्यूरी के जन्मदिन के मौके पर कैंसर जागरूकता दिवस मनाते हैं। तत्कालीन स्वास्थ्य और परिवार नियोजन केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने सर्वप्रथम राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस मनाने की घोषणा की थी। वर्ष 2014, सितंबर माह में एक कमेटी बनाई गई, जिसने राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस को हर साल 7 नवंबर को मनाने का फैसला लिया। वैश्विक स्तर पर कैंसर बड़ा जोखिम है। साल-दर साल कैंसर रोगियों और मृतकों की संख्या बढ़ रही है। भारत में बीते सालों में कैंसर के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी देखी गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, पिछले साल लगभग 10 मिलियन लोगों की मृत्यु कैंसर के कारण हुई। कैंसर कई तरह के हो सकते हैं। ब्रेस्ट कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर सबसे अधिक फैलने वाले कैंसर में से एक हैं। कैंसर के प्रति लोगों को जागरूक करके समय से इसके रोकथाम व उपचार के जरिए स्वस्थ जीवन पाया जा सकता है।

तो अब बात करते हैं लोकतंत्र और इसमें अहम भागीदार मतदाता की। किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व उस देश की सत्ता में निहित रहता है। चाहे सत्ता व्यवस्था लोकतंत्र हो, राजतंत्र हो, कम्युनिस्ट हो या फिर कबीलाई ही सही। कोई फर्क नहीं पड़ता। यह भी सही है कि इसमें गुणगान सत्ता के शिखर पर बैठे नायक का ही होता है। अपवादस्वरूप लोकतंत्र में एक दिन इस नायक को अपने अस्तित्व के लिए इन्हीं मतदाताओं के सामने गुहार लगानी पड़ती है। लोकतंत्र का वही पर्व इन दिनों मध्यप्रदेश सहित भारत के चार अन्य राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। राजनीति का रंग इतना चटक है कि जब उम्मीदों का दौर होता है, तब कहीं फीकेपन का नामोनिशान नहीं होता है और जब निराशा घर करती है तब उम्मीदें दूर आसमान में भी नजर नहीं आती हैं। और ऐसे में ही चंद्रकांत देवताले की एक कविता पर नजर टिक जाती है। आप भी इसे पढ़ेंगे तो कुछ ऐसे विचार आपके दिमाग में भी कौंध सकते हैं। कविता का शीर्षक है ‘सिंहासन पर बिठाया’। अब सिंहासन तो सत्ता का ही होता है। वैसे सिंहासन पर भगवान भी विराजते हैं। खैर कविता की पंक्तियां मन को मोहने वाली हैं।
”जिसे सड़क से उठा सिंहासन पर बिठाया तुमने
और बदले में जिसने
दुःस्वप्नों के जंगली कुत्तों को छोड़ा तुम्हारी नींद में
वही दयालु प्रभु
आ रहा फाँसीघर का शिलान्यास करने
जय दुन्दुभी बजाने में कोई कसर नहीं रहे
सताये हुए लोगो
तुम्हारी सहिष्णुता सदियों चर्चित रहेगी इतिहास में”
चंद्रकांत देवताले को याद इसलिए किया है, क्योंकि 7 नवंबर को उनका जन्म हुआ था और वह मध्यप्रदेश के थे। समकालीन हिंदी कविता के प्रमुख कवि चंद्रकांत देवताले का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में 7 नवंबर 1936 को जौलखेड़ा, बैतूल, मध्य प्रदेश में हुआ। उच्च शिक्षा इंदौर से हुई तथा पी-एच.डी. सागर विश्वविद्यालय, सागर से। साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर देवताले जी उच्च शिक्षा में अध्यापन कार्य से संबद्ध रहे हैं। । उन्होंने अपना शोध-पत्र मुक्तिबोध पर लिखा था। बीसवीं सदी में छठे-सातवें दशक में उनकी कविताएँ उस दौर की लघु पत्रिकाओं में छपने लगी थीं और उनके नए लहज़े, मद्धम रोष और प्रतिरोध को सुना जाने लगा था। उनका पहला कविता-संग्रह ‘हडि्डयों में छिपा ज्वर’ 1973 में बहुचर्चित ‘पहचान’ सीरीज़ के अंतर्गत प्रकाशित हुआ।  इसके अलावा ‘दीवारों पर ख़ून से’ (1975), ‘लकड़बग्घा हँस रहा है’ (1980), ‘रोशनी के मैदान की तरफ़’ (1982), ‘भूखंड तप रहा है’ (1982), ‘आग हर चीज़ में बताई गई थी’ (1987), ‘बदला बेहद महँगा सौदा’ (1995), ‘पत्थर की बैंच’ (1996), ‘उसके सपने’ (1997), ‘इतनी पत्थर रोशनी’ (2002), ‘उजाड़ में संग्रहालय’ (2003), ‘जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा’ (2008), ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’ (2011) उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। ‘मुक्तिबोध: कविता और जीवन विवेक’ उनकी आलोचना की किताब है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘दूसरे-दूसरे आकाश’ और ‘डबरे पर सूरज का बिंब’ का संपादन किया है। ‘पिसाटी का बुर्ज’ में उन्होंने दिलीप चित्रे की कविताओं का मराठी से हिंदी अनुवाद किया है। चंद्रकांत देवताले का बीमारी के बाद 14 अगस्त 2017 को दिल्ली में निधन हो गया। वे 81 वर्ष के थे। उनके भी दो बेटियां हैं।

तो मैडम क्यूरी से लेकर कवि चंद्रकांत देवताले और लोकतंत्र में मतदाताओं तक सबकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। मध्यप्रदेश में इन दिनों मतदाताओं का सबसे खास पर्व बहुत ही करीब है। आगामी पांच वर्ष के लिए बनने वाली लोकतांत्रिक सरकार ही स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने में अहम किरदार निभाएगी। यह मतदाता बखूबी समझते हैं…।