MP Assembly Election 2023 : ….याने राजनीति समाज सेवा नहीं है
वरिष्ठ पत्रकार रमण रावल का चुनावी विश्लेषण
यूं तो यह राजनीति का राष्ट्रव्यापी चरित्र बन चुका है,फिर भी अभी केवल मध्यप्रदेश की बात करते हैं। विधानसभा चुनाव में प्रदेश के दोनों प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच जिस तरह से बगावत मची और नाम वापसी के बाद भी प्रत्याशी हिलने को तैयार नहीं हुए,उसने भविष्य की राजनीति की तस्वीर एकदम साफ कर दी है। दोनों ही दलों में जो बरसोबरस से अलग-अलग पद पाते रहे। दादा-पिता के समय से अभी तक विधायकी,सासंदी बनाये रहे, वे इस बार अन्यान्य कारणों से टिकट न मिलने भर से तीर-तमंचे लेकर ऐसे मैदान में आ डटे ,जैसे उस दल के साथ चंबल स्टाइल में पुश्तैनी दुश्मनी रही हो। क्या इस तरह की राजनीति को समाज सेवा का नाम दिया जा सकता है?
यूं भी जनता जर्नादन इतना तो जान चुकी है कि किसी भी राजनीतिक दल का प्रत्याशी उनका सगा नहीं है। उसकी रिश्तेदारी तो सत्ता से है। सत्ता केवल सरकार का हिस्सा बनना नहीं है, बल्कि विपक्ष का विधायक बनना भी सत्ता सुख समान ही है। इसके लिये दिये गये लालच-प्रलोभनों को भी मतदाता समझता है। असल में तो मतदाता भी सौदे-सुल्फ में पारंगत हो चुका है। भाव-तौल करने के बाद ही वह भी मतदान करता है। इसकी आदत उसे राजनीतिक दलों ने ही लगाई है। यह ऐसा धीमा नशा था, जो मतदाता के मानस में ऐसे घुल-मिल गया, जैसे नशे का जहर खून में मिलकर व्यक्ति को उसका आदी बना देता है।
मप्र में भाजपा-कांग्रेस को जितनी मशक्कत टिकट देने में करना पड़ी,उससे कहीं ज्यादा बागियों को थामने में भी करना पड़ी। पूरी तरह से कामयाबी फिर भी नहीं मिली। भाजपा में बड़ी बगावत पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष तथा मप्र में जनसंघ व भाजपा के प्रमुख स्तंभ रहे कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी की कही जा सकती है। वे भाजपा से 2003,2008 और 2013 में बागली और हाट पिपल्या से विधायक रहे और कैबिनेट मंत्री भी। 2018 में हार गये और 2023 में टिकट न मिलने का सुनिश्चित होने पर वे कांग्रेस में चले गये। ऐसे ही बदनावर से भाजपा विधायक रहे भंवरसिंह शेखावत ने कांग्रेस का दामन थाम लिया।वे अपेक्स बैंक के चेयरमैन भी रहे। पूर्व आईपीएस व कैबिनेट मंत्री रहे रूस्तम सिंह के बेटे ने भी बसपा से चुनाव मैदान संभाला तो रूस्तम सिंह भी भाजपा छोड़ हाथी पर सवार हो गये।पूर्व भाजपा प्रदेश अध्यक्ष व सांसद नंदकुमार सिंह चौहान के बेटे हर्षवर्धन भी बुरहानपुर से बतौर बागी मैदान में उतरा। कांग्रेस के प्रमुख बागियों में भोपाल में आमिर अकील,सिवनी मालवा से ओमप्रकाश रघुवंशी,महू से अंतरसिंह दरबार मैदान में रहे। ऐसे और भी उदाहरण हैं।
ऐसा नहीं है कि अपने परंपरागत दल से टिकट कटने पर दूसरे दल से या निर्दलीय तौर पर पहली बार कोई बतौर बागी चुनाव मैदान में आया है। यह तो होता रहा है, लेकिन पहले आम तौर पर बागी निर्दलीय लड़ता था और हार-जीत के बाद दल में वापसी हो जाया करती थी। इस बार तो आर-पार की लड़ाई है। भाजपा-कांग्रेस के बागियों में से ज्यादातर ने दूसरे दल में प्रवेश लेकर कमोबेश उसी सीट से टिकट भी ले लिया है, जहां से वे अपने मूल दल से मांग रहे थे। अनेक ने समर्थकों के जरिये अपने इलाके से लेकर तो भोपाल तक जोरदार विरोध प्रदर्शन,मुर्दाबाद,पुतला दहन तक किया। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ को तो ऐसे ही एक मामले में प्रदर्शनकारियों को यहां तक कहना पड़ा कि जिन दिग्विजय सिंह-जयवर्धन सिंह ने उनके टिकट कटवाये,उनके कपड़े फाड़ें।
इससे यह अनुमान सहजता से लगता है कि अब किसी भी दल का टिकट पारिवारिक विरासत की तरह हो गया है। एक बार जिस परिवार को वह मिला,उसी का होकर रह गया। प्रदेश में ऐसी अनेक सीटें हैं, जहां 4-6 चुनावों से एक ही परिवार को टिकट मिल रहा है। दिलचस्प और चिंतनीय तो यह है कि ऐसे परिवार के लोग भी बागी हो उठे हैं। निजी झगड़ों में बागी होकर बीहड़ में बंदूक लेकर कूद पड़ने वालों की परंपरा अब राजनीति के अनिवार्य परिणाम की तरह हो चली है। अफसोस कि ये तमाम लोग समाज सेवा का डिंडोरा तो इतनी जोर से पीटते हैं कि कान बहरे हो जायें, लेकिन इनकी नजर फायदे के चोखे धंधे राजनीति पर गिद्ध की तरह गड़ी रहती है। वे यह बरदाश्त ही नहीं कर पाते कि उनके इलाके में किसी और का शो रूम खुले। लोकतंत्र के चेहरे पर आडंबर का मुखौटा इस तरह चिपकता जा रहा है कि असल सूरत तो भूल ही गये। रही-सही कसर मुफ्तखोरी की घोषणाओं ने कर दी, जहां मतदाताओं का ईमान कुछ नकद रूपयों,लेपटॉप,स्कूटी में सरेआम खरीदा जा रहा है। बेइमान तो मतदाता भी उतना ही हुआ है, जो खुद को बाजार में खुदरा वस्तु की तरह सजाकर बैठा है। दोष दें भी तो किसें ?