नानक-फुले की सोच अनुकरणीय है…

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नानक-फुले की सोच अनुकरणीय है…

संत महात्मा जातिवाद का विरोध करते-करते इस दुनिया को अलविदा कह गए। पर वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह से जातियों के इर्द-गिर्द सिमट गई है। आज यानि 28 नवंबर की तारीख एक ऐसे ही संत के इस फानी दुनिया से अलविदा कहने की गवाह है। वह संत थे महात्मा जोतिराव गोविंदराव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवम्बर 1890)। फुले एक भारतीय समाजसुधारक, समाज प्रबोधक, विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। इन्हें महात्मा फुले एवं ”जोतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है। सितम्बर 1873 में इन्होंने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया। महिलाओं व पिछड़े और अछूतों के उत्थान के लिय इन्होंने अनेक कार्य किए। समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे। वे भारतीय समाज में प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन और भेदभाव के विरुद्ध थे। यानि फुले यदि आज होते तो जरूर कहते कि 21वीं सदी में जातिगत भेदभाव भारत को शर्मसार करने वाला है। वह अपनी इस पीड़ा से भी रूबरू कराते कि संत महात्मा सदियों से जातिगत भेदभाव के उन्मूलन के उपदेश देते रहे। अब 21वीं सदी में वोट के लिए जातिगत व्यवस्था को उर्वर करना कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

फुले का मूल उद्देश्य स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार प्रदान करना, बाल विवाह का विरोध, विधवा विवाह का समर्थन करना रहा है। फुले समाज की कुप्रथा, अंधश्रद्धा के जाल से समाज को मुक्त करना चाहते थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन स्त्रियों को शिक्षा प्रदान कराने में, स्त्रियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने में व्यतीत किया। 19 वीं सदी में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। फुले महिलाओं को स्त्री-पुरुष भेदभाव से बचाना चाहते थे। उन्होंने कन्याओं के लिए भारत देश की पहली पाठशाला पुणे में बनाई थीं। स्त्रियों की तत्कालीन दयनीय स्थिति से फुले बहुत व्याकुल और दुखी होते थे इसीलिए उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि वे समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाकर ही रहेंगे। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले को स्वयं शिक्षा प्रदान की। सावित्री बाई फुले भारत की प्रथम महिला अध्यापिका थीं।

महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 1827 ई. में पुणे में हुआ था। एक वर्ष की अवस्था में ही इनकी माता का निधन हो गया। इनका लालन-पालन एक बाई ने किया। उनका परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से पुणे आकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने लगा था। इसलिए माली के काम में लगे ये लोग ‘फुले’ के नाम से जाने जाते थे। ज्योतिबा ने कुछ समय पहले तक मराठी में अध्ययन किया, बीच में पढाई छूट गई और बाद में 21 वर्ष की उम्र में अंग्रेजी की सातवीं कक्षा की पढाई पूरी की। इनका विवाह 1840 में सावित्री बाई से हुआ, जो बाद में स्‍वयं एक प्रसिद्ध समाजसेवी बनीं। दलित व स्‍त्रीशिक्षा के क्षेत्र में दोनों पति-पत्‍नी ने मिलकर काम किया वह एक कर्मठ और समाजसेवी की भावना रखने वाले व्यक्ति थे।

कार्तिक पूर्णिमा को जन्मे गुरुनानक का भाव भी जातिगत भेदभाव के खिलाफ था। सिख धर्म के संस्थापक और पहले गुरू नानक ने जातिगत भेदभाव पर प्रहार किया। वहीं सामाजिक सद्भाव और प्रेम का संदेश दिया था। नानक का यह दोहा उनके इन्हीं भावों का प्रतिबिंब है।

करमी आवै कपड़ा, नदरी मोखु दुआरू, नानक एवै जाणीऐ, सभु आपे सचिआरू, दाति करे दातारू यानि अच्छे बुरे कर्मों से यह शरीर बदल जाता है, हमें मोक्ष नही मिलता है‌। मुक्ति तो केवल ईश्वर की कृपा से ही संभव है। हमें अपने समस्त भ्रमों का नाश करके ईश्वर तत्व के ज्ञान को प्राप्त करना चाहिये।

और
एक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ। निरबैर, अकाल मूरत, अजुनी, सैभं गुर प्रसादि। यानि प्रभु एक है और वह हर जगह, हर एक कोने में व्याप्त है। वही परमपिता है। इसलिए सबके साथ प्यार से मिल-जुलकर रहना चाहिए।
जब गुरु नानक देव जी ने इस धरती पर जन्म लिया तो दुनिया में पाखंड, अंधविश्वास और कट्टरता का बोलबाला था। जाति प्रथा, वर्ण व्यवस्था व छुआछूत चरम पर था। शासक दमनकारी और अन्यायी थे। आम जनता उस समय पीड़ित थी, चारों तरफ अंधेरा व्याप्त था। उनके भाव थे।

“सो क्यो मंदा आखिए? जितुः जंमहि राजान।।
जिस जातपात से आज भी हमारा समाज जूझ रहा है उसी जातपात व ऊंच-नीच के बंधनों को तोड़ने के लिए गुरु नानक देव जी ने उस समय नीच जाति कही जानी वाली मरासी जाति से संबंधित भाई मरदाने को अपना साथी व भाई माना। गुरु ग्रंथ साहिब में भी समानता की इस वाणी का जिक्र मिलता है। नानक जी ने कहा कि
“अविल अल्लाह नूर उपाए, कुदरत दे सब बंदे।।
एक नूर ते सब जग ऊपजया कौन भले कौन मंदे”।।
वे जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने के समर्थक थे। उन्होंने कहा कि जन्म से किसी की जाति ऊंंची या नीची नहीं होती। ऊंच-नीच तो अच्छे और बुरे कर्म के माध्यम से तय होती है। मानव के रूप में सामाजिक समरसता के सबसे बड़े गुरु थे नानक जी।
तो नानक, फुले और सभी संतों ने जातिगत भेदभाव का विरोध किया था। 21 वीं सदी में हम सभी को संतों के इस भाव पर चिंतन मनन जरूर करना चाहिए। और नानक-फुले की सोच का अनुसरण करना चाहिए…।