Justice and Law : जल्द न्याय के लिए संरचना ही नहीं इच्छा शक्ति भी जरूरी

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Justice and Law : जल्द न्याय के लिए संरचना ही नहीं इच्छा शक्ति भी जरूरी

Justice and Law : जल्द न्याय के लिए संरचना ही नहीं इच्छा शक्ति भी जरूरी

दालतों में लटके प्रकरणों के निराकरण की जवाबदारी केवल न्यायालयों की नहीं है। एक प्रजातांत्रिक सरकार की भी उतनी ही है, बल्कि सबसे ज्यादा जवाबदारी है। पिछले कुछ सालों में सरकार इस दिशा में तेजी से बढ़ी है। लगभग 14 हजार न्यायालयों में वाय-फाय एवं 14 हजार से अधिक लैपटॉप न्यायाधीशों के लिए उपलब्ध कराए गए हैं।
इनमें उच्च न्यायालयों से लेकर अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीश सम्मिलित है। सरकार इस संबंध में दो चरण पूर्ण कर चुकी है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय परिसर में मुख्य न्यायाधिपति एवं सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की उपस्थिति में लाॅ-दिवस समारोह में प्रधानमंत्री ने इसका उल्लेख भी किया था। विडियो कांफ्रेंसिंग की सुविधा 3 हजार से अधिक न्यायालयों और लगभग 13 हजार जेलों में दी जा रही है।

कोविड-19 के कारण गत दो वर्षों की लाॅकडाउन अवधि न्यायपालिका के लिए भी एक बड़ी समस्या बनी है। प्रकरणों की सुनवाई न होने से विचाराधीन प्रकरणों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। अनुमान है कि न्यायपालिका इन दो वर्षों में विचाराधीन प्रकरणों की सुनवाई के मामले में दस वर्ष पीछे चली गई।

न्यायालय प्रारंभ होने के बाद भी पुराने और प्रकरणों की अंतिम सुनवाई अभी पूर्वानुसार नहीं हो पा रही। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा कि इसके लिए हमें अनेक सकारात्मक कदम उठाने होंगे जिससे न्यायिक व्यवस्था आसानी से उपलब्ध हो सके। सर्वोच्च न्यायालय के उक्त न्यायमूर्ति द्वारा व्यक्त चिंता केवल उनकी चिंता नहीं है। यह चिंता का विषय है कि विचाराधीन प्रकरणों में बड़ी संख्या में प्रकरणों का स्वभाव फौजदारी है जो विचाराधीन बंदियों से संबंधित है।
इनमें ऐसे अभियुक्त भी शामिल हैं, जो अपराध के कारण जेल में है तथा जिनकी जमानत नहीं हुई है। इन विचाराधीन प्रकरणों से संबंधित पक्षकारों को अपने क्रम का इंतजार करना पड़ रहा है। ऐसे भी प्रकरण है जो अनेकों दशकों से अधिक अवधि से अधीनस्थ न्यायालय में विचाराधीन है। इनमें हर माह नए प्रकरण जोड़ना बाकी है।
कई ऐसे प्रकरण है जो पांच दशकों से अभी विचाराधीन है तथा उनका निराकरण दुर्भाग्य से संभव नहीं हो पाया है। दस सालों से पुराने प्रकरणों का निराकरण प्राथमिकता से करना होगा। हाल ही में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालयों को पांच साल से पुराने प्रकरणों को प्राथमिकता से निराकरण के निर्देश जारी किए है। इसका असर भी दिखने लगा है।
कुछ समय पूर्व दिल्ली उच्च न्यायालय की प्रायोगिक परियोजना में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी, जिसमें प्रकरणों को एक वर्ष में निपटाने के लिए वर्तमान न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने पर जोर दिया गया था। रिपोर्ट के अनुसार, न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया में विलंब चिंता का विषय है। एक मुकदमें में कई बार कई बरस लग जाते हैं, जिससे पक्षकारों में न्यायालय के प्रति आस्था में कमी आने लगती है।
प्रतिवर्ष मुकदमों की बढ़ती संख्या के कारण न्यायपालिका पर लंबित मुकदमों का बोझ तेजी से बढ़ रहा है। इसके निराकरण के लिए तेजी से कोई व्यवस्थित नितिगत योजना लागू करना होगी। कुछ बरसों पहले यह अनुमान लगाया गया था, कि भारत में प्रकरणों के निराकरण में न्यायिक देरी और इससे संबंधित व्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग डेढ़ प्रतिशत व्यय होता है। इसीलिए न्यायालयों में पायलट प्रोजेक्ट भी लागू किए गए, जिसका लक्ष्य लंबित मुकदमों को तेजी से निपटाना था।
फौजदारी प्रकरणों में विलंब का एक कारण सबूतों का न होना भी होता है। चूंकि मुकदमें साक्ष्य पर आधारित होते हैं, इसलिए इनको इकट्ठा करने में जितना विलंब होता है, उसका प्रभाव न्यायिक प्रक्रिया पर स्वाभाविक रूप से पड़ता है। इसके अलावा दीवानी प्रकरणों का एक पक्ष हर स्तर पर मुकदमों की कार्यवाहियों में देरी करना चाहता है। क्योंकि, इसमें उनका अपना स्वार्थ होता है।
सबसे बड़ा और मूल कारण हमारे न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी है। लंबित मुकदमों का तेजी से निराकरण करने के लिए न्यायाधीशों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि करना होगी। यह स्थिति अधीनस्थ न्यायालयों से उच्च न्यायालय तक है। सभी न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या में कई गुना वृद्धि की जानी आवश्यक है। इसके लिए सरकार को अविलंब आवश्यक कदम उठाने होंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल ही में देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में एक विस्तृत कार्य योजना बनाने के लिए कहा कि जिसके द्वारा विचाराधीन फौजदारी अपीलों का निराकरण शीघ्र संभव हो सके।
इंडियन लीगल सिस्टम के एक आयोजन में विधि विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा था कि सरकार ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विस को मूर्तरूप देने के लिये तत्पर है। लेकिन, न्यायालय अभी इस पर एकमत नहीं है। चौदहवें लाॅ-कमीशन में सन् 1958 में ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विस की सिफारिश की थी। इसके बाद संविधान के अनुच्छेद 312 में 42वें संशोधन के तहत इसका प्रावधान भी किया गया था।
इसके बाद बनाए गए दो लाॅ-कमीशनों ने भी इसकी सिफारिश की थी। सर्वोच्च न्यायालय भी एक प्रकरण की सुनवाई के दौरान इस संबंध में प्रश्न उठा चुका है। न्यायालयों में ऐसे प्रकरण के उदाहरण विद्यमान है, जिनमें बरसों बरस सुनवाई चली और अभी भी चल रही है। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। इसका स्वाभाविक रूप से वहां सबसे अधिक प्रकरण विचाराधीन है। न्यायालयों में गत कई दशकों से सुधार की मांग की जा रही हैै, लेकिन न्यायालय की स्वतंत्रता को दृष्टिगत रखते हुये व्यवस्था में कई संशोधन संभव नहीं हो सके है।
सर्वोच्च न्यायालय की बात करें तो 1 जुलाई 2020 तक उनके समक्ष विचाराधीन प्रकरण 60,444 हैं। इनमें से 12,100 विचाराधीन, 1,207 अधूरे विविध प्रकरण तथा 83 ऐसे प्रकरण है जो नियमित प्रकरण तो हैं, लेकिन सुनवाई के लिए औपचारिक रूप से तैयार नहीं है। इन प्रकरणों में 40,869 ऐसे विविध प्रकरण है जिन पर प्रारंभिक विचार किया जाना है कि वे सुनवाई के पात्र है या नहीं। नियमित सुनवाई के लिए 19,575 प्रकरण है। इनमें पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ के सुनवाई योग्य मामले 286, सात जजों की खंडपीठ के योग्य 13 मुकदमे, 9 जजों की खंडपीठ के 136 मामले हैं। यह कार्य तेजी से होना जरूरी है।
बरसों तक न्यायालयों में मामलों का लटके रहने की स्थिति न्याय जगत एवं न्याय व्यवस्था के लिए चिंताजनक है। इसे विस्फोटक भी कहा जा सकता है। कोविड-19 ने हमें प्रकरणों के निराकरण के लिए न्यायालयों में नई तकनीक अपनाने की शिक्षा भी दी है। इसके लिए हमें नई वैज्ञानिक प्रक्रिया को भी अपनाना होगा।
‘ऑनलाइन जस्टिस’ के माध्यम से एक न्यायाधीश यह देख सकता है कि दस या पांच साल से अधिक की अवधि के कितने मुकदमे उनके समक्ष विचाराधीन है। इसे दृष्टिगत रखते हुए उन्हें अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी। साथ ही इसके लिए सरकार को अधिक से अधिक न्यायालयों में अंतर्सरचना का विकास करना होगा ताकि न्यायाधीश प्रकरणों के निराकरण में इसकी मदद ले सके।
अभी तक न्याय व्यवस्था और उसकी अंतर संरचना में जो भी सुधार किए गए वे ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। आवश्यकता इस बात की है कि सुधार तेजी से हों, ताकि लोगों की आस्था न्यायपालिका में गहरी हो। इस कार्य में वित्त की कमी नहीं आनी चाहिए। एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और तेजी से कार्य करने वाली न्यायपालिका का किसी भी प्रजातंत्र के लिए वहीं स्थान रखती है, जो मानव शरीर में ‘रीढ़ की हड्डी’ रखती है।
न्यायपालिका एवं कार्यपालिका को तेजी से कार्य करना होगा तथा एक कार्य योजना बनानी होगी ताकि प्रकरणों का निराकरण तेजी से एवं समयबद्ध हो सके तथा लोगों की आस्था न्यायपालिका में पहले से भी अधिक मजबूत हो। प्रकरणों के इस अंबार के निराकरण हेतु यह आवष्यक है कि इस संबंध में तुरन्त कदम उठाए जाए। इसके लिए न्यायाधीशों की संख्या में कई गुना वृद्धि, अधोसंरचना में सुधार एवं प्रक्रियात्मक कानूनों में सुधार एवं हर स्टेज पर सुनवाई के अवसरों पर नियंत्रण ही इसके उपाय हो सकते हैं।