राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार…

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राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार…

तुलसीकृत रामचरितमानस के पहले अध्याय बालकांड में राम के जन्म का वर्णन करने से पहले महाकवि तुलसीदास ने यह बता दिया है कि राम से बड़ा राम का नाम है। ब्रह्मा का बनाया यह जगत उनका प्रपंच है और इससे पार पाना है तो राम का नाम लेकर ही भवसागर पार संभव है और दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कलियुग में बिना राम नाम जप के सब कुछ असंभव है।‌ बालकांड का दोहा है कि “राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर।” यानि तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख। यही दोहा पूरी तस्वीर साफ कर देता है। और कलियुग में सनातनधर्मियों को यह साफ शब्दों में समझ लेना चाहिए कि अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका जैसे पवित्र ईश्वरीय नगर हों या चारों धाम, बारहों ज्योतिर्लिंग, शक्ति पीठ‌ और कोई भी धार्मिक स्थान हो…यहां पहुंचकर और भगवान की मूर्ति के समक्ष दंडवत प्रणाम कर मन को सुकून और आनंद तो प्राप्त हो सकता है, पर मुक्ति नहीं मिल सकती। अगर मोक्ष‌ को वरण करना है तो राम नाम जप की शरण में ही जाना पड़ेगा।‌
तुलसीदास जी राम नाम की महिमा का सप्रमाण ब्यौरा सामने रखते हैं। वह कहते हैं कि “मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है। यह वह महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं। और सीधा सा प्रमाण है कि जो आदिकवि बाल्मीकि ने रामायण लिखकर पुरी दुनिया को कृतार्थ करते हैं, उनका बेड़ा पार भी राम नाम से हुआ है। श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं। नाम के प्रभाव को श्री शिवजी भलीभाँति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया।
तुलसीदास जी बताते हैं कि ब्रह्मा के बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान्‌ मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्व ज्ञान रूपी दिन में) जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं। जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को (यथार्थ महिमा को) जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। (लौकिक सिद्धियों के चाहने वाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं। संकट से घबड़ाए हुए आर्त भक्त नाम जप करते हैं, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत में चार प्रकार के अर्थार्थी-धनादि की चाह से भजने वाले, आर्त संकट की निवृत्ति के लिए भजने वाले, जिज्ञासु-भगवान को जानने की इच्छा से भजने वाले और ज्ञानी-भगवान को तत्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजने वाले रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं। चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो नाम को छोड़कर दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।
जो सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी) कामनाओं से रहित और श्री रामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी नाम के सुंदर प्रेम रूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है अर्थात्‌ वे नाम रूपी सुधा का निरंतर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते। तो निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है। प्रभु श्री रामजी ने भयानक दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है।
अंत में यही कि ” ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि। रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि।” यानि कि इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस ‘राम’ नाम को साररूप से चुनकर ग्रहण किया है। और केवल कलियुग की ही बात नहीं है, चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद, पुराण और संतों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल श्री रामजी में या राम नाम में प्रेम होना है। पहले सत्य युग में ध्यान से, दूसरे त्रेता युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान प्रसन्न होते हैं, परन्तु कलियुग केवल पाप की जड़ और मलिन है, इसमें मनुष्यों का मन पाप रूपी समुद्र में मछली बना हुआ है अर्थात पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता, इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते। ऐसे कराल कलियुग के काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब जंजालों को नाश कर देने वाला है। कलियुग में यह राम नाम मनोवांछित फल देने वाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक का माता-पिता है अर्थात परलोक में भगवान का परमधाम देता है और इस लोक में माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है।कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के मारने के लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं। राम नाम श्री नृसिंह भगवान है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करने वाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु कलियुग रूपी दैत्य को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा।
तुलसीदास जी कहते हैं कि “भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।” यानि अच्छे भाव यानि प्रेम से, बुरे भाव यानि बैर से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। तो मतलब यही है कि धार्मिक स्थानों पर पहुंचकर ईश्वर की चाह में शीश झुकाना अच्छा है, लेकिन अगर आत्म कल्याण करना है तो राम का नाम जपकर ही यह संभव है। इसके अलावा इस माया और प्रपंच से भरी दुनिया से पार पाने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। भीतर और बाहर उजाला करना है तो राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार…।