रीझत राम सनेह निसोतें…

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रीझत राम सनेह निसोतें…

भगवान राम की पहचान महाकवि तुलसीदास जी से बेहतर कोई नहीं बता सकता। अयोध्या में 22 जनवरी 2024 को राम की प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होने की धुन में हजारों श्रद्धालुओं का अयोध्यागमन जारी है। और हजारों की संख्या में तो वीआईपी अयोध्या पहुंचकर एक-दूसरे से टकराते नजर आने वाले हैं। भले ही कैमरों की नजर सब पर हो, पर यह बात भी सही है कि कैमरों की नजर से ही अयोध्या में और पूरी दुनिया में राम की प्राण प्रतिष्ठा सबको नजर आने वाली है। अपनी आंखों से सीधे राम की मूर्ति के दर्शन का सौभाग्य तो गिनी-चुनी आंखों को ही मिल सकेगा। इसीलिए सभी श्रद्धालुओं से बार-बार यह अपील की जा रही है कि 22 जनवरी को जो जहां है, वहीं से राम नाम ‌सुमिरन करते हुए राम प्राण प्रतिष्ठा का साक्षी बनें। ताकि अयोध्या में आस्था‌ पर असुविधा और भीड़ भारी पड़कर किसी भी श्रद्धालु के हिस्से में कष्ट न आने दे पाए। और भगवान राम तो प्रेम के भूखे हैं। रामचरित मानस के बालकांड में तुलसीदास जी ने इसीलिए लिखा है कि ‘रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें।’ यानि श्री रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, पर तुलसीदास जी कहते हैं कि जगत में उनसे बढ़कर मूर्ख और मलिन बुद्धि और कौन होगा? जो यह बात नहीं समझ पाया। और यहां तुलसीदास के अनुभव से हर आस्थावान और रामभक्त सनातनी को यह जरूर सीखना चाहिए कि राम तो बस प्रेम के ही भूखे हैं। उस प्रेम का अहसास कराने के लिए स्थान, तारीख और समय की बाध्यता कदापि नहीं है। प्रेम के वशीभूत राम तो जूठे बेर खाने खुद वन में मां शबरी की कुटिया में पहुंच जाते हैं।
और भगवान राम का रीझना भी कैसा है। ऐसा है कि “सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही।कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की। यानि तुलसीदास कहते हैं कि मेरे प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्त रूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की (उलटे) सराहना की है। क्योंकि कहने में चाहे बिगड़ जाए, परन्तु हृदय में अच्छापन होना चाहिए।हृदय में तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, यह उनका यानि तुलसीदास जी का अच्छापन है। और श्री रामचन्द्रजी भी दास के हृदय की अच्छाई जानकर रीझ जाते हैं। इतना ही नहीं बल्कि प्रभु राम के चित्त में अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती, वे उसे भूल जाते हैं और उनके हृदय की अच्छाई-नेकी को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण उन्होंने बालि को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली। वही करनी विभीषण की थी, परन्तु श्री रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया। उलटे भरतजी से मिलने के समय श्री रघुनाथजी ने उनका सम्मान किया और राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया। ऐसे रघुनाथजी यानि राम का निर्मल यश वर्णन सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं।
और भगवान राम ने प्रेम के वशीभूत होकर ही जन्म लेने का वरदान मनु को दिया था। स्वायम्भुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा ने राजपाठ त्यागकर हरि को पाने के लिए हजारों साल तपस्या की।‌तब प्रेम के वश में नारायण उनके सामने प्रकट हुए और वर मांगने का अनुरोध किया। राजा-रानी के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। और तब भक्तवत्सल, कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक), सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गए। शोभा के समुद्र श्री हरि के रूप को देखकर मनु-शतरूपा नेत्रों के पट (पलकें) रोके हुए एकटक (स्तब्ध) रह गए। उस अनुपम रूप को वे आदर सहित देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही न थे। आनंद के अधिक वश में हो जाने के कारण उन्हें अपने देह की सुधि भूल गई। वे हाथों से भगवान के चरण पकड़कर दण्ड की तरह सीधे भूमि पर गिर पड़े। कृपा की राशि प्रभु ने अपने करकमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श किया और उन्हें तुरंत ही उठा लिया। फिर कृपानिधान भगवान बोले- मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मन को भाए वही वर माँग लो। राजा ने कहा हे दानियों के शिरोमणि। हे कृपानिधान। हे नाथ। मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से भला क्या छिपाना। “देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले। आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई।” यानि राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले ऐसा ही हो। हे राजन्‌, मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ। अतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा। शतरूपाजी को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा- हे देवी। तुम्हारी जो इच्छा हो, सो वर माँग लो। शतरूपा ने कहा- हे नाथ। चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु। वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा।
और फिर वही बात कि प्रेम के वशीभूत हरि ने राम के स्वरूप में मनु और शतरूपा को वरदान देकर त्रेतायुग में दशरथ और कौशल्या के घर जन्म लेना स्वीकार किया। और बस राम के प्रति प्रेम ही है,‌‌ जिससे उन्हें हर तरह से वश में किया जा सकता है।‌ मतलब साफ है कि ह्रदय‌ में राम के प्रति प्रेम है, तो राम भी वही हैं जहां उनके भक्त हैं। अयोध्या में तो उन्होंने जन्म लिया ही है, पर वह सब जगह हैं। वह अयोध्या जाकर ही मिलेंगे, ऐसे भ्रम और संदेह से परे होकर भक्तों को राम के प्रति ह्रदय में प्रेम का सरोवर भरना चाहिए। तब निश्चित तौर पर राम वहीं आएंगे, जहां उनके प्रति प्रेम से भरा उनका प्रिय भक्त‌ होगा। रीझत राम सनेह निसोतें…।