होइहि सोइ जो राम रचि राखा…
बालकांड में प्रभु राम की महिमा का बखान तुलसीदास ने इस तरह किया है कि फिर राम को लेकर कोई संदेह करने की कतई गुंजाइश नहीं बचती। और जब भी किसी ने राम की महिमा पर संदेह किया तो फिर उसे बिधाता भी नहीं बचा पाया। शिव जी के समझाने के बाद भी जब सती ने राम पर संदेह कर उनकी परीक्षा लेने का दुस्साहस कर लिया तो फिर सती सती न रह पाई और शिव के कोपभाजन बन उन्हें शरीर त्यागने को मजबूर होना पड़ा। और मति भी तभी मारी जाती है, जब राम बिमुख हो जाते हैं। बिना राम की इच्छा के पत्ता भी नहीं हिलता। जब राम बिमुख हों तो भगवान शिव की बात भी सती को समझ में नहीं आ सकती। इसीलिए शिव भी हर पल राम का सुमिरन करते हैं और इसीलिए काशी की महिमा भी अपार है।याज्ञवल्क्य जी ने भारद्वाज मुनि को राम की महिमा बताते हुए कहा था कि ‘संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी। आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं।’ यानि कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान् शम्भु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं। ‘सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया।’ याज्ञवल्क्य जी कहते हैं कि हे मुनिराज! वह भी राम (नाम) की ही महिमा है, क्योंकि शिवजी महाराज दया करके (काशी में मरने वाले जीव को) राम नाम का ही उपदेश करते हैं (इसी से उनको परम पद मिलता है)।
एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया। मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया।श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले।उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे।शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे।श्री शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में (भेद खुलने का) डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे।
श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं। जब राम सीता के वियोग में वन में विचरण कर रहे थे, तब ही श्री शिवजी ने श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया।जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे।सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन कहने लगीं कि) शंकरजी की सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं।उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती। सती सोचने लगी कि जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? ‘बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी। खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी।’ यानि देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?
फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था। और सती के संदेह के आगे आखिर शिव जी भी हार गए। वह समझ गए कि ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा। अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा।’ यानि जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे।
फिर राम ने सती को अपनी महिमा दिखाई तो सती की आंखें खुली की खुली रह गईं। पर तब फिर सती सती न रह पाईं और शिव के कोप का भाजन हुईं। यानि राम की महिमा को जान न पाने तक भी सब ठीक है। पर राम की महिमा पर संदेह कर मानव क्या देवता भी सब कुछ खो देते हैं। और शिव भी यह मानते हैं कि यह सब भी राम की इच्छा से ही होता है यानि होइहि सोइ जो राम रचि राखा…।