नारद का अभिमान चूर कर श्रापवश मानव जन्म लिए भगवान…

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नारद का अभिमान चूर कर श्रापवश मानव जन्म लिए भगवान…

त्रेतायुग में दशरथ के पुत्र के रूप में जन्म लेने के पीछे भगवान राम से जुड़ी कई कथाएं हैं। इनमें से एक कथा नारद जी से जुड़ी है। दरअसल नारद को कामदेव पर विजय प्राप्त कर एक बार अभिमान हो गया। उन्होंने अपने इस अहंकार का वर्णन शिव के सामने किया। शिव समझ गए कि ऋषि श्रेष्ठ को अहंकार हो गया है। तब उन्होंने नारद जी को सलाह दी कि वे इस वृतांत को विष्णु को सुनाने की भूल न करें। पर नारद जी को शिव की बात उल्टी लगी और वह बिना समय गंवाए सीधे क्षीरसागर पहुंच गए। विष्णु ने भी मुनिवर की खूब सेवा सुश्रुषा की। इससे नारद जी का अभिमान चरम पर पहुंच गया और कामदेव पर विजय पर जब विष्णु ने उनकी तारीफ की, तब तो नारद के मन में गर्व के अंकुर ही फूट पड़े। तब विष्णु ने माया रची और नारद ने काम के वश में आकर विवाह रचाने का फैसला कर लिया। विष्णु ने वानर का रूप देकर नारद का विवाह का सपना चकनाचूर कर दिया। और खुद माया कर उस राजकुमारी को ब्याह लाए। शिव के दो गणों ने स्वयंवर की उस सभा में नारद के वानर रूप की खिल्ली उड़ाई तो नारद ने उन्हें राक्षस बनने का श्राप दिया। और उसके बाद क्रोध से तमतमाते विष्णु की खैर खबर लेने निकल पड़े।

विष्णु भी ठहरे मायावी और लक्ष्मी व राजकुमारी संग नारद के सामने ही आ गए। फिर क्या था नारद ने विष्णु को खूब खरी खोटी सुनाई और यहीं नहीं रुके बल्कि उन्हें श्राप भी दे दिया। पहला मानव जन्म लेने का, दूसरा वानरों की मदद लेने पर मजबूर होने का और तीसरा पत्नी वियोग में दर-दर भटकने का। जब नारद ने श्राप दे दिया तब विष्णु ने माया खत्म की और लक्ष्मी जी व राजकुमारी गायब हो गई। यह देख नारद की खुमारी दूर हो गई और वह अपने इस अक्षम्य कृत्य के लिए विष्णु के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगे। तब विष्णु ने उन्हें समझाया कि यह सब उनकी ही इच्छा से हुआ है। बिना उनकी इच्छा के कुछ भी संभव नहीं है। पर नारद जी बेचैन हो गए, तब विष्णु ने नारद को शिव का सुमिरन करने का सुझाव देते हुए बताया कि वह शिव से प्रेम करते हैं और शिव की आराधना कर ही भक्त उन्हें खुश कर सकते हैं। तो यह तो हुई नारद को अहंकार होने पर उसे चकनाचूर कर खुद श्रापग्रस्त हो राम के रूप में मानव जन्म लेने की लंबी कथा। पर इससे सीख यही मिलती है कि यदि कभी भी अहंकार हुआ तो उसे चूर किए बिना भगवान भी नहीं मानते। भले ही भगवान को खुद भी कष्ट क्यों न उठाना पड़े। पर वह हर इंसान का मोहभंग करके ही रहते हैं। पर यह बात और है कि कलियुग के दुष्प्रभाव में इंसान की आंखों पर अज्ञानता का ऐसा आवरण घिरा है कि वे कष्ट सहकर भी यह समझने को कतई राजी नहीं हैं। अहंकार के आगोश में हमेशा ही उनकी मति भ्रमित बनी रहती है।

जब नारद को अहंकार हुआ, तब शिव ने उन्हें समझाइश दी कि “राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥ यानि श्री रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। पर “संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥” यानि श्री शिवजी के वचन नारदजी के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँ से ब्रह्मलोक को चल दिए॥ और नारद ने क्षीरसागर पहुंच कर नारायण को अपनी उपलब्धियां गिना दीं। “काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥ अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥” यानि यद्यपि श्री शिवजी ने उन्हें पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारदजी ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान को कह सुनाया। श्री रघुनाथजी की माया बड़ी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा है, जिसे वे मोहित न कर दें। दूसरी तरफ “मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥” यानि मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को खुद से विमुख देख) बहुत ही विकल हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो। और उसी समय नारद को शिव के गणों ने आइना दिखा दिया कि “तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥” यानि तब शिवजी के गणों ने मुसकराकर कहा- जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए!॥

जब माया हटी और नारद के मन में नारायण को श्राप देने व्याकुलता बढ़ी तब भी समाधान नारायण ने दिया। “जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥ कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥” यानि भगवान ने कहा कि जाकर शंकरजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना॥ और “जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥ अस उर धरि महि बिचरहु जाई।अब न तुम्हहि माया निअराई॥” यानि हे मुनि ! पुरारि (शिवजी) जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर विचरो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी।

और जब नारद माया से मुक्त हुए तो श्रापग्रस्त शिव के गणों ने भी श्रापमुक्त होने की याचना की। तब नारद ने उन्हें इस तरह सांत्वना दी। “निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥ भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ॥” यानि तुम दोनों जाकर राक्षस होओ, तुम्हें महान ऐश्वर्य, तेज और बल की प्राप्ति हो। तुम अपनी भुजाओं के बल से जब सारे विश्व को जीत लोगे, तब भगवान विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करेंगे। “समर मरन हरि हाथ तुम्हारा।होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥ चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥” यानि युद्ध में श्री हरि के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी, जिससे तुम मुक्त हो जाओगे और फिर संसार में जन्म नहीं लोगे। वे दोनों मुनि के चरणों में सिर नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुए।

और यही है विष्णु के राम अवतार की एक कथा कि “एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुमि भार॥” यानि देवताओं को प्रसन्न करने वाले, सज्जनों को सुख देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने एक कल्प में इसी कारण मनुष्य का अवतार लिया था। तो भगवान असुरों और अहंकार का नाश करने में देरी नहीं करते हैं। वहीं इतने परम दयालु हैं कि कल्याण करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ते। भले ही खुद को कितने भी कष्ट सहने पड़ें और मानव जन्म ही क्यों न लेना पड़े…।