त्वरित टिप्पणी: जिस पर भी शिवराज का ठप्पा, वो हटाया जा रहा, प्रशासनिक बदलाव के बाद अब 46 निगम-मंडलों की सफाई! 

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त्वरित टिप्पणी: जिस पर भी शिवराज का ठप्पा, वो हटाया जा रहा, प्रशासनिक बदलाव के बाद अब 46 निगम-मंडलों की सफाई! 

 

– हेमंत पाल

 

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने दो महीने पहले जब विधानसभा चुनाव के बाद पांसा पलटते हुए शिवराज सिंह चौहान की जगह डॉ मोहन यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी थी, तब लोगों को पार्टी के चयन पर आश्चर्य जरूर हुआ था। क्योंकि, ये बिल्कुल अप्रत्याशित नाम था। लेकिन, लोगों को उनसे बहुत बड़े बदलाव की उम्मीद बिलकुल नहीं थी। इसलिए कि पार्टी वही, नीति वही और जो नेता पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के मंत्रिमंडल में सहयोगी रहा हो, उससे ऐसी कोई आशा भी नहीं की जा सकती कि वे कोई बड़ा फैसला कर सकेंगे! लेकिन, वास्तव में यह भ्रम ही था, जिसे दूर होने में ज्यादा समय भी नहीं लगा। पहले उन्होंने मनमर्जी की प्रशासनिक नियुक्तियां की और अब प्रदेश के 46 निगमों, मंडलों, बोर्डों और विकास प्राधिकरणों में बैठे नेताओं को एक झटके में हटा दिया। इसलिए कि इन सभी पर ‘शिवराज के आदमी’ होने का ठप्पा लगा था।

डॉ मोहन यादव ने आते ही अपने तेवर दिखाए। सबसे पहले तो पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चहेते अफसरों को हाशिये पर डाला। इसके बाद अब राजनीतिक नियुक्तियों पर तलवार चलाने का उनका सिलसिला शुरू किया। उन्होंने शिवराज सिंह के कार्यकाल में बनाए गए निगम, मंडल, बोर्ड और प्राधिकरणों के सभी 46 अध्यक्षों और उपाध्यक्षों को एक साथ हटा दिया। जबकि, राजनीति में सामान्यतः ऐसे फैसले थोकबंद नहीं किए जाते, पर मोहन यादव की सरकार ने इसकी भी मिसाल खड़ी कर दी। पहले प्रशासनिक साफ़-सफाई की गई, अब इन राजनीतिक गुमटियों में सजी प्रतिमाओं को ठिकाने लगा दिया।

सवाल उठता है कि आखिर डॉ मोहन यादव की ऐसी क्या राजनीतिक मज़बूरी थी, कि उन्होंने पार्टी के ही नेताओं को कुर्सी से उतार दिया! इसका एक ही जवाब है कि डॉ मोहन यादव की अपनी पहचान तभी बनेगी, जब वे पुरानी पहचान को ख़त्म करेंगे और वे यही कर भी रहे हैं। 18 साल से ज्यादा समय से प्रदेश की राजनीति में जो स्थिरता आ गई थी, उसमें हलचल और बदलाव लाना भी जरूरी था, वही किया जा रहा। जिन 46 अध्यक्षों, उपाध्यक्षों को हटाया गया, उनमें से कुछ को तो विधानसभा चुनाव से पहले ही बनाया था। कुछ कि नियुक्ति सिर्फ इसलिए की गई थी, कि वे किसी खास पद या चुनाव का उम्मीदवार बनने की चाह रखते थे, तो उन्हें लॉलीपॉप देकर समझाया गया। इनमें एक निशांत खरे थे, जो सालभर पहले इंदौर के मेयर का चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्हें किनारे करने के लिए युवा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया, अब वे यहां से भी हटा दिए गए।

विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव के मौसम में शिवराज सिंह ने आनन-फानन में परशुराम कल्याण बोर्ड बनाया था। इस बोर्ड का एक अध्यक्ष और चार सदस्य बनाए गए। विष्णु राजोरिया भोपाल को अध्यक्ष बनाया गया, जबकि अमर सिंह दंडोतिया (मुरैना), पंडित सोमेश परसाई (नर्मदापुरम), पंडित राजेंद्र परसाई (खरगोन) और पंडित सुधाकर चतुर्वेदी इसके सदस्य बनाए गए थे। जबकि, वास्तव में इस बोर्ड का औपचारिक रूप से गठन तक नहीं हुआ था। 46 निगम, मंडल, बोर्ड और प्राधिकरणों के अध्यक्ष और उपाध्यक्षों को हटाया गया उनमें इस बोर्ड का नाम भी नहीं है। यानी ये माना जाए कि यह सिर्फ चुनावी चटखारा था।

शिवराज सिंह के कार्यकाल में कई ऐसे नेताओं को पदों से नवाजा गया था, जिनके नाम को लेकर राजनीतिक और सामाजिक रूप से कई आपत्तियां सामने आई थी। इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष जयपाल सिंह चावड़ा को नियुक्त किया था, जो इंदौर जिला तो छोड़ संभाग के भी निवासी नहीं थे। वे देवास के मूल निवासी थे। ऐसे किसी बाहरी नेता को इंदौर विकास प्राधिकरण का नेता बनाए जाने को लेकर काफी रोष उपजा था, पर शिवराज सिंह के कारण कोई खुलकर बोल नहीं सका। वे सिर्फ इसलिए इस पद पर बैठा दिए गए थे, कि उन पर तत्कालीन प्रदेश संगठन मंत्री सुहास भगत की विशेष अनुकंपा थी। ऐसे ही एक नेता शैतान सिंह पाल को मध्य प्रदेश इलेक्ट्रॉनिक विकास निगम लिमिटेड का अध्यक्ष बनाया गया था। वे पाल समाज के अध्यक्ष होने का दावा जरूर करते हैं, पर वास्तव में समाज में उनकी कोई पूछ-परख नहीं है और न राजनीतिक रूप से उनका कोई वजूद है। शिवराज सिंह ज्यादातर ऐसे ही लोगों को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बनाया जो न तो पार्टी के लिए काम के थे न समाज के लिए। अब मुख्यमंत्री ने इन सभी नेताओं को आराम दे दिया।

 

*प्रशासनिक बदलाव में भी चहेतों की छंटनी*

मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ मोहन यादव ने सबसे पहले बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठे उन अफसरों पर आंख तरेरी जो शिवराज सिंह की नाक का बाल समझे जाते थे। नए मुख्यमंत्री ने आते ही उनको तितर-बितर किया।सबसे पहले मुख्यमंत्री के सचिव मनीष रस्तोगी को हटाया गया। फिर आया शिवराज सिंह के सबसे नजदीकी अफसर मनीष सिंह और नीरज वशिष्ठ का नंबर। जनसंपर्क आयुक्त के अलावा मेट्रो रेल प्रोजेक्ट जैसे कई बड़ी जिम्मेदारियों से लदे मनीष सिंह को हटाकर मंत्रालय में बैठा दिया। एक और करीबी उप सचिव नीरज वशिष्ठ को भी सीएम सचिवालय से हटाकर मंत्रालय में उप सचिव की हैसियत से आराम दे दिया।

टीएनसीपी डायरेक्टर प्रमुख सचिव, आर्थिक एवं सांख्यिकी विभाग मुकेश गुप्ता को भी बदल दिया। उनकी जगह श्रीकांत बनोठ को टीएनसीपी के डायरेक्टर का प्रभार दिया। आशय यह कि जिस भी अफसर पर शिवराज सिंह की सील लगी थी, उसे एक तरह से लूप लाइन में भेज दिया गया। इसका प्रमाण यह है कि मनीष सिंह, मनीष रस्तोगी और नीरज वशिष्ठ को करीब डेढ़ महीने तक बिना काम के मंत्रालय में बैठाया गया।

भोपाल के अलावा इंदौर, जबलपुर और उज्जैन जैसे बड़े जिलों के कलेक्टरों को हटाकर अपनी पसंद के अधिकारियों को बैठाया गया। इसलिए कि इन जिलों के कलेक्टर शिवराज सिंह और इकबाल सिंह के पसंदीदा अफसर जो थे। कई जिलों के कलेक्टरों को शासन की मंशा के अनुरूप काम नहीं करने के कारण रातों-रात हटा दिया।

अभी भी कहा नहीं जा सकता कि मुख्यमंत्री का बदलाव अभियान पूरा हो गया। आगे क्या होने वाला है यह देखने के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा! कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अपने पहले दो महीने के कार्यकाल में मोहन यादव न सिर्फ प्रशासनिक वरन राजनीतिक पकड़ भी बना ली। यह बात भी गौर करने लायक है कि उन्हें भाजपा हाईकमान का विश्वास भी हासिल है, तभी वे कई दिग्गज नेताओं को दरकिनार करने में कामयाब रहे। यहां तक कि वे उज्जैन के वाल्मीकि धाम के प्रमुख को राज्यसभा में भेजने में भी सफल रहे! डॉ मोहन यादव को अभी लंबी पारी खेलना है। यह देखना दिलचस्प होगा कि वे अपनी इस आगे की पारी में और क्या नए फेरबदल करते है!

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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