महाराष्ट्र की राजनीति :अजित पवार के परिवारवाद पर भाजपा की चुप्पी से उठे सवाल! – नवीन कुमार

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महाराष्ट्र की राजनीति :अजित पवार के परिवारवाद पर भाजपा की चुप्पी से उठे सवाल! – नवीन कुमार

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भारतीय चुनावी राजनीति से परिवारवाद को खत्म करना मुश्किल है। यह ऐसा वाद है जिससे कोई भी राजनीतिक दल बच नहीं सकता है। इसका सीधा-सादा जवाब है कि हर राजनीतिक दल को सत्ता पर काबिज होने के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना जरूरी है। इसके लिए परिवारवाद के नाम पर दूसरे राजनीतिक दल को कटघरे में खड़ा करने की परंपरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस को इसी वाद में डुबोने का काम कर रहे हैं। जबकि उनकी पार्टी भाजपा भी इस वाद से वंचित नहीं है। 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की जारी पहली सूची में भी यह वाद साफ-साफ दिखता है। इस सूची में अभी महाराष्ट्र के उम्मीदवारों के नाम नहीं हैं। जब महाराष्ट्र की सूची जारी होगी तब आइने में साफ-साफ वाद झलक जाएगा।

इसी महाराष्ट्र में भाजपा एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी के साथ मिलकर सत्ता पर काबिज है। यह सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा ने मूल शिवसेना और मूल एनसीपी में तोड़फोड़ करा दिया। जाहिर है इससे मूल शिवसेना और मूल एनसीपी की ताकत कम हो गई है। बावजूद इसके चुनावी महाभारत में मूल शिवसेना के उद्धव ठाकरे और मूल एनसीपी के शरद पवार खुद को पांडव सेना के रूप में उतरने के लिए तैयार हैं। उद्धव और शरद के पास पुराने कार्यकर्ता, समर्थक और उनकी सहानुभूति है। इसे भले ही उद्धव और शरद के विरोधी फिलहाल हल्के में ले रहे होंगे। लेकिन यह तो तय है कि उद्धव और शरद के खेमे से जो भय पैदा हो रहे हैं वो प्रतिद्वंद्वियों के लिए खतरनाक जरूर हैं। इसलिए प्रतिद्वंद्वी भी सुरक्षा कवच तैयार करने में जुटे है।

अभी महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति में जिस परिवार की राजनीतिक लड़ाई खुलकर सामने आई है वो परिवार पवार का है। शरद और उनके भतीजे अजित के बीच जिस तरह की लड़ाई चल रही है, ऐसी राज्य की राजनीति में पहले कभी देखने को नहीं मिली है। बाल ठाकरे के जीवित रहते हुए उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन किया था और पहली बार चुनाव लड़कर अपने विधायक भी बना लिए थे। लेकिन उन्होंने अजित की तरह अपने चाचा के खिलाफ राजनीति नहीं की थी। राज के अलग होने से ठाकरे परिवार टूटा जरूर था। लेकिन राज ने कभी बाल ठाकरे को रिटायर होने के लिए नहीं कहा था। राज चुनावी राजनीति में परिवारवाद से बचते रहे हैं और उन्होंने अपने बेटे अमित ठाकरे को चुनाव लड़ने के लिए मैदान में भी नहीं उतारा। पार्टी के संगठन में अमित की भागीदारी जरूर है।

अजित जब चाचा शरद से बगावत करके अलग हो रहे थे तब राज ने अजित को सलाह दी थी कि चाचा का ख्याल रखें। इस पर अजित ने तंज कसते हुए राज से कहा था कि मुझे मालूम है कि आपने अपने चाचा के साथ क्या किया था। अपने चाचा का ख्याल रखना मुझे आता है। और अजित ने जिस तरह से अपने चाचा शरद के साथ राजनीति की उससे सब वाकिफ है। अजित की महत्वाकांक्षा अलग है। वह जब शरद के नेतृत्व वाली एनसीपी में बड़े ओहदे पर थे तब उन्होंने अपने बेटे पार्थ पवार को मावल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ाया था। शरद ने पार्थ को चुनाव लड़ाने से मना किया था। अजित ने चाचा शरद की बात नहीं मानी और पार्थ चुनाव जीत नहीं पाए। इससे अजित की राजनीतिक ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि, अजित ने बेटे पार्थ को जिताने के लिए पूरी रणनीति पर काम किया था। शरद तो पुराने और पारखी नेता हैं। शायद उन्हें मावल की हवा का अंदाजा था तभी उन्होंने पार्थ को चुनाव नहीं लड़ाने की सलाह अजित को दी थी। लेकिन अजित के मन में यह दुर्भावना थी कि शरद पार्थ को राजनीति में आने से रोकना चाहते हैं। अगर अजित ने शरद की बात मान ली होती तो संभव है कि पार्थ का राजनीतिक जीवन कुछ और ही होता।

पार्टी को तोड़कर अजित अब जिस मुकाम पर हैं वहां पर उनके लिए अपने चाचा शरद का राजनीतिक जीवन पूरी तरह से खत्म करना ही मुख्य मकसद है। मुख्यमंत्री बनने की लालसा से अजित ने चाचा शरद का साथ छोड़ा और भाजपा का दामन थामा। लेकिन उनकी यह लालसा ज्यों की त्यों ही रहने वाली है। लोकसभा के चुनाव में उन्हें भाजपा की शर्तों को पूरा करना है। इसके बाद उन्हें विधानसभा के चुनाव में भाजपा से ज्यादा सीटें मिलेंगी नहीं। उनके पास अपने विधायकों की फौज भाजपा से कम होगी और तब उन्हें मुंगेरीलाल के हसीन सपने ही देखने पड़ेंगे। इस असलियत से वह वाकिफ होंगे। आखिर वह भी राजनीति के खिलाड़ी हैं। फिलहाल तो वह अपने दाग साफ कराने में लगे हुए हैं। इसी के साथ वह अपने परिवार को भी राजनीति का सफल खिलाड़ी बनाने में जुटे हुए हैं।

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इसके लिए उन्हें अपने ही परिवार से लड़ना होगा। वह बेटे पार्थ को फिर से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं। बेटे के अलावा वह अपनी पत्नी सुनेत्रा पवार को भी सांसद बनाने की राजनीति पर काम कर रहे हैं। सुनेत्रा के लिए बारामती की सीट चुनी गई है और अभी से बारामती में सुनेत्रा के लिए प्रचार किया जा रहा है। जबकि इस लोकसभा क्षेत्र से सुप्रिया सुले सांसद हैं जो शरद की बेटी और अजित की चचेरी बहन हैं। इस सीट पर शरद का दबदबा खत्म करने के लिए भाजपा कई सालों से प्रयास कर रही है। लेकिन उसे इसमें सफलता नहीं मिल रही है। क्योंकि, बारामती में शरद और सुप्रिया ने खूब काम किया है और देश में इस लोकसभा क्षेत्र की अपनी पहचान है।

शरद का इस क्षेत्र से व्यक्तिगत लगाव है और यहां की जनता भी उन्हें प्यार देते हैं। लेकिन भाजपा इस सीट की छीनने के लिए अजित को आगे किया है। अजित को भी पता है कि इस सीट से पवार परिवार का ही कोई सदस्य चुनाव जीत सकता है। इसलिए वह अपनी पत्नी सुनेत्रा पर ही दांव खेलने जा रहे हैं। बारामती से आधिकारिक तौर पर उम्मीदवारों की घोषणा नहीं हुई है। लेकिन मीडिया में सुर्खियां बटोर रही है कि बारामती लोकसभा सीट पर ननद भौजाई के बीच मुकाबला होगा। सुप्रिया ननद हैं तो सुनेत्रा भौजाई हैं।

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बारामती में खुले तौर पर परिवारवाद है। अब चूंकि भाजपा भी शरद से यह सीट छीनना चाहती है और अजित भाजपा गठबंधन में एक घटक दल के रूप में शामिल हैं। इसलिए भाजपा को बारामती में अजित का परिवारवाद नहीं दिख रहा है। वैसे, भाजपा गठबंधन में परिवारवाद का बड़ा स्वरूप भी सामने आएगा जब महाराष्ट्र लोकसभा की सूची जारी होगी। इधर परिवारवाद के आरोप से शरद घबराने वाले नेता नहीं हैं। उनके लिए तो अभी बारामती को बचाना ही बड़ी चुनौती है। बारामती में अजित का दबदबा बढ़ाने के मकसद से ही नमो महारोजगार मेला का आयोजन किया गया। इससे शरद और सुप्रिया को दूर रखने की कोशिश की गई। लेकिन शरद का कद इतना बड़ा है कि प्रशासन उन्हें बुलाने के लिए मजबूर हो गया। यह मेला विद्या प्रतिष्ठान में आयोजित था और इस प्रतिष्ठान के चेयरमैन शरद हैं। शरद और सुप्रिया के मेला में आने से पूरी रणनीति ही बदल गई।

सुनेत्रा को इस मेले के जरिए बारामती की जनता के बीच सुप्रिया के खिलाफ उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया जा सका। जबकि सुनेत्रा इस मेले में उपस्थित थीं। मंच पर सुप्रिया ने अजित से दूरी बनाए रखी और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से नजदीकियां बना ली। शरद ने शिंदे और फडणवीस को अपने घर डिनर पर भी आमंत्रित किया था। लेकिन राजनीतिक कार्यक्रमों के कारण यह संभव नहीं हो पाया। राजनीतिक क्षेत्र के अलावा शरद अपने परिवार में भी अजित को मात देने में लगे हुए हैं। पवार परिवार में भी शरद का पलड़ा भारी है तो अजित कमजोर पड़ रहे हैं। परिवार के लोग अजित के बागी रूप को पसंद नहीं करते हैं। इसलिए आने वाले लोकसभा चुनाव में बूढ़े शरद एक युवा योद्धा के रूप में दिख सकते हैं।