कोरोना काल की चुनौती
जब ऑक्सीजन बनी चुनौती और सिलेंडर इकट्ठा करने का दौर चला!
– डॉ अभय बेडेकर
देश में कोरोना की पहली लहर मार्च 2020 में शुरू हुई और नवंबर 2020 तक चली। जबकि, दूसरी लहर मार्च 2021 में शुरू हुई जो मई 2021 के अंत तक चली। दो दौर की कोरोना महामारी ने प्रशासन को कई मुसीबतों से जूझना सिखा दिया है। कई तरह की नई-नई चुनौतियां और उन्हें हल करने के उपाय भी खोजे गए। क्योंकि, न तो ऐसी मुसीबतें पहले कभी झेली थी और न उन्हें हल करने के उपाय ही पता थे। ऐसे में अपने अनुभव, समझ या किसी के सुझाव से समस्याओं को हल किया जाता रहा। ये मुसीबतें न तो किसी प्रोटोकॉल बुक का हिस्सा थी और न कभी इनके बारे में कभी सुना गया था। किसी बात या काम की कोई एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) भी नहीं थी। किसी भी मुसीबत के सामने आते ही जिसे जैसा समझ आता, वो वैसा काम शुरू कर देता था। यदि सब ठीक रहा और उपाय काम कर गया तो उसे ही उस काम का एसओपी मान लिया जाता।
कोरोना की पहली लहर में प्रभावित होने वाले मरीजों को गले में खराश, जुकाम और सांस लेने में तकलीफ़ जैसे सिम्टम्स दिखाई देते थे। ऐसे में क्या दवा कारगर होगी, ये किसी डॉक्टर को भी समझ नहीं आ रहा था। इसलिए कि चिकित्सा विज्ञान ने भी कभी ऐसा संकट इतने बड़े स्तर पर नहीं झेला था। कभी डॉक्टर किसी मरीज को बुखार की गोली के साथ खांसी की दवा देते, तो कभी कफ सीरप पीने को कहते थे। कुछ समय बाद धीरे-धीरे समझ आया कि कोरोना का वायरस मरीज के फेफड़ों में चिपककर उन्हें सिकोड़ देता है। इस कारण मरीज को सांस लेने में तकलीफ होने लगती है। समय के साथ-साथ ये संकट बढ़ता जाता है और मरीज के शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। फिर धीरे-धीरे मरीज के फेफड़े काम करना बंद कर देते हैं और वो चिरनिद्रा में चला जाता है। दरअसल, ऑक्सीजन की ज़्यादा ज़रूरत दूसरी लहर में पड़ी, फर्स्ट वेव तो मैनेज हो गई।
ये सारा संकट ऑक्सीजन से जुड़ा था। जब मरीज खुद सांस लेकर ऑक्सीजन नहीं ले पाते, तो उन्हें बाहर से ऑक्सीजन दी जाने लगी। कोरोना काल में कई नई मशीनें, नई शब्दावली और नए शब्दों से भी सामना हुआ। सामान्य व्यक्ति के लिए ‘ऑक्सीमीटर’ जैसा शब्द अनजाना था, पर कोरोना ने इसे आम आदमी की बोलचाल की भाषा में शामिल कर दिया। लोग जानने लगे कि ऑक्सीमीटर एक छोटी सी मशीन होती है, जिसे उंगली पर लगाकर शरीर का ऑक्सीजन लेवल जांचा जा सकता है। ये लेवल 95-96 से कम हो, तो डॉक्टर उसे कोरोना प्रभावित मानते और इलाज शुरू कर देते। लेकिन, यदि लेवल 90 से नीचे जाए तो उसे तत्काल अस्पताल में भर्ती करने की सलाह दी जाती। क्योंकि, ऑक्सीजन की कमी से शरीर पर होने वाले प्रभाव (शरीर नीला पड़ना) दिखाई देने लगते थे। इसका आशय था कि अस्पताल में लगातार बढ़ते मरीज और ऑक्सीजन की बढ़ती डिमांड।
इंदौर में करीब डेढ़ सौ से ज्यादा छोटे-बड़े अस्पताल हैं, जिनमें करीब 10 हजार से ज्यादा बेड (कोरोना काल के समय) थे जहां मरीजों को भर्ती किया जाता रहा। कोरोना काल में यह बेड भी कम पड़ गए। स्थिति यह आ गई थी कि जितने भी मरीज अस्पताल में भर्ती थे करीब उतने ही अस्पताल में भर्ती होने के लिए लाइन लगाए थे। ऐसे में प्रशासन के सामने सबसे बड़ा संकट ऑक्सीजन की आपूर्ति था। क्योंकि, भर्ती होने वाले हर मरीज को ऑक्सीजन की कमी होती और उसकी आपूर्ति इतनी नहीं थी कि हर मरीज को ऑक्सीजन दी जा सके। इंदौर में दो तरह के हॉस्पिटल हैं, छोटे अस्पताल सिलेंडर से मरीज को ऑक्सीजन की आपूर्ति करते हैं और बड़े अस्पतालों में बेड के पास ही ऑक्सीजन सप्लाई की व्यवस्था है। लेकिन, सबसे बड़ी समस्या थी ऑक्सीजन की आपूर्ति की और यही समस्या प्रशासन के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती थी। वास्तव में यह संकट, पहली बार सामने आया संकट, जिसका उपाय भी प्रशासन को अपनी तरह से, अपनी समझ से और अपने तरीके से खोजना पड़ा। क्योंकि, न तो कोई हल बताने वाला था न इसकी व्यवस्था के लिए किसी को कहा जा सकता था। संकट के समय ये जिम्मेदारी जिला प्रशासन की रहती ही है और जिला प्रशासन की तरफ से यह जिम्मेदारी बतौर इंदौर एसडीएम मेरे पास थी।
जानकारी ली गई तो पता चला कि राउरकेला, भिलाई और जामनगर से इंदौर को ऑक्सीजन की आपूर्ति होती है। विचार करके फैसला किया गया और सप्लायर से बात की गई। जामनगर से लगभग 150 मीट्रिक टन लिक्विड ऑक्सीजन क्रायोजेनिक टैंकर के माध्यम से प्रतिदिन लाई जाती थी। इसके लिए सप्लायर नीलेश (इनहर्ट गैसेस) ने लगभग 22 टैंकर को इस काम में लगाया। इसके अलावा कुछ मात्रा में राउरकेला एवं भिलाई स्टील प्लांट से भी लिक्विड ऑक्सीजन लाई गई। इंदौर से खाली टैंकरों को भारतीय वायु सेना के ग्लोबमास्टर जहाज से जामनगर भेजा जाता, जो एक बार में 2 से 4 खाली टैंकर ले जाने में सक्षम था। वहां से टैंकर लोड होने के बाद करीब 27 टन लिक्विड ऑक्सीजन से भरे क्रायोजेनिक टैंकर को सड़क के रास्ते लाया जाता। जामनगर से इंदौर की दूरी 750 किमी है और सामान्य अवस्था में इस टैंकर को इंदौर तक आने में 48 से 72 घंटे लगते थे। पर यह दूरी कोरोना काल में 24 से 30 घंटे में पूरी की जा रही थी। क्योंकि, ये टैंकर सामान्य से ज्यादा लम्बे और भारी होते हैं।
इंदौर के अस्पतालों में कोरोना के दौर में जामनगर से लाई गई यही ऑक्सीजन मरीजों की जान बचाने के काम आई। क्योंकि, अस्पताल छोटा हो या बड़ा उसमें ऑक्सीजन की क्षमता सीमित होती है। सामान्य समय में भर्ती होने वाले हर मरीज को ऑक्सीजन की जरुरत नहीं होती। लेकिन, कोरोना काल में स्थिति इसके विपरीत थी, मरीज के भर्ती होने के साथ ही उसे ऑक्सीजन शुरू कर दी जाती। यही कारण था कि ऑक्सीजन की डिमांड लगातार बढ़ रही थी। धीरे-धीरे स्थिति यह आ गई कि अस्पतालों को ऑक्सीजन पहुंचाने के उपाय भी कम पड़ने लगे। जिन छोटे अस्पतालों में सिलेंडर से मरीजों को ऑक्सीजन दी जाती थी, उनके यहां सिलेंडर कम पड़ने लगे। ऐसे में नया उपाय खोजा गया, जो अपने आप में ‘जुगाड़’ ही कहा जाएगा।
बातचीत से पता किया गया कि शहर में ऐसे कौन से कामकाज हैं, जिनमें ऑक्सीजन सिलेंडर का उपयोग होता है। पता चला कि वेल्डिंग, फेब्रिकेशन इंडस्ट्रीज जैसे कुछ काम है जिनमें सिलेंडर लगते हैं। तत्काल पटवारियों को काम सौंपा गया कि शहर के सभी वेल्डिंग करने वालों और फेब्रिकेशन वालों की खोज की जाए और उनके सिलेंडर लिए जाएं। इस तरह प्रशासन ने करीब 2600 सिलेंडर अपने कब्जे में लिए। क्योंकि, भर्ती मरीजों की जान बचाने से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं था। इन सिलेंडरों का बकायदा रिकॉर्ड रखा गया और संकट टलने के बाद उस रिकॉर्ड के अनुसार ये सभी सिलेंडर वापस दिए।
जामनगर से आने वाली लिक्विड ऑक्सीजन को इंदौर के विभिन्न ऑक्सीजन री-फिलिंग प्लांट को भेजकर सिलेंडर की सप्लाई इंदौर के अस्पतालों को की गयी। इलियास भाई के आदर्श ऑक्सीजन से 1100 सिलेंडर, रवि गुप्ता के गुप्ता-ऑक्सीजन से 400 सिलेंडर , शिवम गैस से 400 सिलेंडर, नीलेश जैन के इनहर्ट गैसेस (पीथमपुर) से 900 सिलेंडर, गुप्ता एयर (पीथमपुर) से 400 सिलेंडर, भंवर सिंह के बीआरजे कॉर्पोरेशन से 900 सिलेंडर और पीथमपुर के करण मित्तल के लिक्विड रीफिलिंग प्लांट से 2000 सिलेंडर लेकर रोज अस्पतालों को ऑक्सीजन सप्लाई की जाती रही। बाद प्रशासन ने जिनसे भी सिलेंडर लिए थे, सभी को वापस किए गए।
इतनी पुख्ता व्यवस्था के साथ ही इंदौर नगर निगम के कंट्रोल रूम में ऑक्सीजन से भरे 200 सिलेंडर हमेशा आपात स्थिति के लिए तैयार रखे गए थे। 20-20 सिलेंडर चार ट्रकों में लोड करके हमेशा तैयार रहते। जब भी किसी अस्पताल को इमरजेंसी में ऑक्सीजन जरुरत पड़ती तो तुरंत इन्हें रवाना किया जाता था। कहने का आशय यह कि प्रशासन ने कोरोना काल में लोगों को बचाने में किसी भी तरह की कोई कोताही नहीं बरती। जहां भी प्रशासन की जिम्मेदारी जाता, वहां प्रशासन हमेशा तैयार रहा।
कोई आंकड़ा तो सामने नहीं आया कि हमारी कोशिश कितने कोरोना मरीजों की जान बचाने में सफल रही, पर प्रशासन ने अपनी कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसलिए कि रसायन शास्त्र में ऑक्सीजन की पहचान गैस के रूप में की जाती है, पर जीवन इसी से चलता है और ये सच कोरोना काल में साबित भी हुआ।जब कतरा-कतरा ऑक्सीजन के लिए त्राहि-त्राहि मची थी। अब तो बस ईश्वर से कामना ही की जा सकती है कि वो भयानक दौर कभी न लौटे!