कानून और न्याय:वैवाहिक मामलों में समझौते के बाद मुकरना संभव नहीं!
पारिवारिक मामलों में अक्सर देखा जाता है कि कई बार दोनों पक्ष के बीच में समझौता होने के बाद भी कई बार एक पक्ष मुकर जाता है। ऐसा ही कुछ मामला न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर के समक्ष आया। यहां पर पति-पत्नी के बीच में हुए समझौते एवं न्यायालय द्वारा पारित तलाक की डिक्री को न मानते हुए पत्नी ने विभिन्न दायर केसों को वापस लेने से इनकार किया। महिला द्वारा दहेज उत्पीड़न, हमला और सहमति के बिना गर्भपात के सर्वव्यापी आरोप लगाए गए थे। उच्च न्यायालय ने कहा कि वह आपसी सहमति से समझौता और तलाक की डिक्री के बाद पत्नी मामले को वापस लेने के लिए बाध्य थी। लेकिन, उसने जानबूझकर, गलत उद्देश्यों के साथ अपने द्वारा दायर केसों को भी वापस लेने से इंकार कर दिया।
न्यायमूर्ति अभ्यंकर ने कहा कि इस प्रकार समझौता करने और उसके बदले में पचास लाख रुपये लेने के बावजूद, अपने पति और उसके परिवार के खिलाफ आपराधिक मामला जारी रखने में महिला का आचरण स्पष्ट रूप से अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। पीठ ने कहा कि एक लाख रुपये की कास्ट केवल बेईमान पक्षकार को आगाह करने के लिए लगाई गई है कि वे अदालतों में इन आधारों पर नहीं जा सकते हैं, जो गंभीर मुकदमेबाजी के लिए हैं। न्यायमूर्ति ने कहा कि ऐसे पक्षकारों को किसी भी तरह से अदालतों का मूल्यवान समय बर्बाद करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। अदालत ने महिला की सहमति के बिना दहेज उत्पीड़न, हमला करने और गर्भपात के आरोपों से संबंधित मामले को रद्द कर दिया और पत्नी को चार सप्ताह में अपने पूर्व पति को एक लाख रूपये देने का आदेश दिया।
यह पहला मामला नहीं है जब किसी न्यायालय ने समझौते से पीछे हटने पर कड़ा रूख लिया है। इससे पहले बाॅम्बे हाईकोर्ट भी एक मामले में ऐसा ही रूख ले चुका है। बाॅम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि सहमति की शर्तें शामिल पक्षों पर आपसी दायित्व पैदा करती हैं। न्यायालय ने यह माना कि तलाक की कार्यवाही में एक पत्नी के लिए इसके लाभ स्वीकार करने के बाद सहमति की शर्तों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी। पति द्वारा पिछले साल दायर एक याचिका का निपटारा करते हुए न्यायमूर्ति अमित बोरकर की एकल पीठ ने पत्नी को निर्देश दिया था कि, वह दो महीने के भीतर तलाक के लिए सहमति की शर्तों के प्रावधानों के तहत प्रकरणों को समाप्त करे और इससे पीछे न हटे। उच्च न्यायालय के समक्ष पति की याचिका में कहा गया था कि पत्नी सहमति की शर्तों के अपने हिस्से का पालन करने से इंकार कर रही थी। पति अधीनस्थ न्यायालय द्वारा पारित आदेश को चुनौती देने के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष आया था, जिसने समझौते का सम्मान करने के लिए अपनी अलग हो चुकी पत्नी को निर्देश देने की उसकी याचिका को खारिज कर दिया था।
उच्च न्यायालय ने पति के वकील के तर्क सुनने के बाद कहा कि पति ने पत्नी के रखरखाव के लिए एकमुश्त निपटान के रूप में निर्धारित राशि का भुगतान करके और उसे एक आवासीय फ्लैट में स्थानांतरित करके सहमति की शर्तों का पालन किया था। न्यायालय ने कहा कि यदि वह दो महीने में घरेलू हिंसा और क्रूरता के मामलों को वापस लेने और बच्चे को प्रवेश देने के लिए सहमति की शर्तों के अपने हिस्से का पालन करने में विफल रहती है, तो फ्लैट तथा पूरी राशि उन्हें वापस करना होगी। उनका एक नाबालिग बच्चा भी था। पति ने उसके द्वारा क्रूरता का आरोप लगाते हुए पुणे की एक अदालत में तलाक की अर्जी दायर की। तलाक की कार्यवाही को एक मध्यस्थ के पास भेजा गया था। मुकदमे के दौरान दंपति मामले को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए सहमत हुए थे।
तलाक एक ऐसी प्रक्रिया है जो कानूनी रूप से विवाह समाप्त करती है। यह कई प्रकार से संभव है। आपसी-सहमति से तलाक विवाह को समाप्त करने का सबसे आसान तरीका है। आपसी सहमति से तलाक तब होता है, जब दोनों पति-पत्नी एकमत हो शादी को समाप्त करने के सहमत होते हैं। इस तरह के तलाक में, दोनों पक्ष चाइल्ड कस्टडी, संयुक्त-संपत्ति का विभाजन, रखरखाव आदि प्रमुख मुद्दों पर सहमत होते हैं। तलाक के लिए पक्षकारों को उस शहर के परिवार न्यायालय में तलाक आवेदन करने की आवश्यकता होती है जहां दोनों पक्ष एक साथ रहे अथवा जहां पर विवाह हुआ हो या जहां वैवाहिक प्रक्रिया उत्पन्न हुई हो अथवा वह स्थान जहां पर पत्नी वर्तमान में रह रही हो।
भारत में आपसी सहमति से तलाक हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 द्वारा शासित होता है। आपसी सहमति से तलाक के लिए हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 बी और विशेष विवाह अधिनियम की धारा 28 के तहत विवाह के एक साल बाद ही आपसी सहमति से तलाक की मांग की जा सकती है। दोनों पक्षों को तलाक के लिए पारस्परिक रूप से सहमत होना होगा और यह स्थापित करना होगा कि याचिका दायर करने से पहले वे कम से कम एक वर्ष से अलग रह रहे हैं। यदि न्यायालय आश्वस्त हो कि दोनों पक्षों के बीच सुलह की कोई संभावना नहीं है तो छह महीने की पुनर्विचार अवधि की छूट दे सकता है। न्यायालय गुजारा भत्ता, बच्चे की कस्टडी और संपत्ति के बंटवारे जैसे मुद्दों के संबंध में पक्षों द्वारा किए गए समझौते की शर्तों पर भी विचार करेगी। यदि पक्ष किसी समझौते पर पहुंचने में असमर्थ हैं, तो न्यायालय आपसी सहमति से समाधान की सुविधा के लिए मध्यस्थता का आदेश दे सकती है। आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया आमतौर पर विवादास्पद तलाक की तुलना में तेज और कम विरोधात्मक होती है और इसे कुछ महीनों में पूरा किया जा सकता है।
भारत में आपसी-सहमति से तलाक की प्रक्रिया आमतौर पर याचिका दायर करने से शुरू होती है। इसमें पहला चरण संबंधित परिवार न्यायालय में एक संयुक्त याचिका दायर करना है। इस संयुक्त याचिका पर दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षर किए जाते हैं। तलाक की याचिका में दोनों पक्षकारों का एक संयुक्त बयान होता है कि उनके असंगत मतभेदों के कारण वे अब एक साथ नहीं रह सकते हैं और उन्हें तलाक दिया जाना चाहिए। इस कथन में संपत्ति के बंटवारे, बच्चों की कस्टडी आदि का समझौता भी है। याचिका दायर करने के लिए दोनों पक्षों की अपने वकील के साथ परिवार न्यायालय में उपस्थिति अनिवार्य होती है। न्यायालय पक्षकारों द्वारा दायर याचिका की जांच करने के बाद दोनों पक्षों के बयान दर्ज करने का आदेष देता है। कुछ मामलों में, न्यायालय मध्यस्थता कराने का प्रयास करता है, जब दोनों पक्षों के बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं होती, तो तलाक प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाता है।
पक्षकारों के बयान दर्ज किए जाने के बाद, न्यायालय द्वारा पहले प्रस्ताव पर एक आदेश पारित किया जाता है। इसके बाद न्यायालय द्वारा पक्षकारों को तलाक पर पुनर्विचार के लिए 6 महीने का समय दिया जाता है, जिसके बाद दूसरा प्रस्ताव दाखिल करना होता है। पहले प्रस्ताव के 6 महीने के बाद या सुलह अवधि के अंत तक, यदि दोनों पक्ष साथ रहने के लिए सहमत नहीं होते हैं, तो वह दूसरे प्रस्ताव के लिए न्यायालय के समक्ष उपस्थित हो सकते हैं। यदि 18 महीने की अवधि के भीतर दूसरा प्रस्ताव दाखिल नहीं किया जाता, तो न्यायालय तलाक की डिक्री पारित नहीं करता है। तलाक की डिक्री मामले के तथ्य, परिस्थितियों और दोनों पक्ष के बयानों के आधार पर, न्यायालय तलाक की डिक्री पारित कर देती है।
आपसी सहमति से तलाक में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 ख (2) के अनुसार, आपसी सहमति से तलाक के मामलों में, न्यायालय ने विवाह बचाने के उद्देश्य से तलाक पर पुनर्विचार करने के लिए छह महीने की समय अवधि अनिवार्य कर दी थी। इसे सुलह अवधि या पुनर्विचार अवधि भी कहा जाता है। इस अवधि के समाप्त होने पर, कोई भी पक्ष आपसी तलाक के लिए अपनी सहमति वापस लेने का निर्णय ले सकता है। 2024 के नए तलाक नियमों के अनुसार, आपसी सहमति से तलाक के लिए यह सुलह-अवधि या पुनर्विचार अवधि अब अनिवार्य नहीं है। यदि पति-पत्नी सहमत हों तो न्यायालय अपने विवेक अनुसार इसके बिना ही तलाक दे सकता है, इससे आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया में तेजी आएगी।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में माना है कि इस अवधि को 4 विशिष्ट शर्तों के तहत यदि तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर न्यायालय यदि उचित समझता है, तब छूट दी जा सकती है। इसके लिए धारा 13ख (2) के तहत दूसरी प्रस्ताव के लिए याचिका के साथ एक अतिरिक्त आवेदन दाखिल करना होगा जो सूचीबद्ध करेगा कि आपके मामले में कूलिंग अवधि क्यों लागू नहीं है। आपसी सहमति से तलाक लेना आवश्यक झगड़े एवं काफी समय परेशानियां और पैसा बचाता है। अतः पारस्परिक सहमति, तलाक का सबसे अच्छा विकल्प है।