Food Science5: लीजिये अब बंदर की रोटी खाइये,यह अव्वल दर्जे का माउथ फ्रेशनर तो है ही बेहतरीन औषधीय गुणों का स्वामी भी है
भोजन के बाद विशेष सामग्री जो पाचन को आसान बनाकर मुँह में ताजगी ले आये उन्हें माउथ फ्रेशनर या मुखवास कहा जाता है। सामान्यतः मुखवास के रूप में सौंफ, अजवाईन, लौंग, इलायची, मीठी सौंफ, गुलाब कतरी आदि का चलन है, लेकिन कभी कभार तिल, अलसी, जगनी, मगच आदि के दुर्लभ दर्शन भी ट्रे (पानदान) में हो जाते होंगे। कुछेक दुर्लभ टाइप के प्रकृति प्रेमी और आयुर्वेद के जानकारों के घर आपको जाना पड़ जाये तो फिर चिलबिल या बंदर की रोटी भी देखने को मिल सकते है। आखिर क्या है यह चिलबिल? आखिर क्यों इसे सभी मुख़वासों का शहंशाह कहा जाता है? कैसे यह भोजन का पाचन करने के साथ साथ ब्लड प्रेशर भी नियंत्रित करता है? आइये जानते हैं….
चिलबिल नाम ही कुछ खास होने का एहसास कराता है। इसे चिलबिल, बंदर की रोटी, पापड़ी, चिरोल jungle cork tree आदि कई नामों से जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम Holoptelea integrifolia है जो Elmaceae परिवार का सदस्य है। थोड़ा बहुत चिरौंजी की तरह स्वाद वाला यह ड्राई फ्रूट अच्छा खासा माउथ फ्रेशनर भी है, जिसे आप सौंफ के साथ आसानी से इस ट्रे में देख सकते हैं। भोजन के बाद इसे सही तरह से पचाने के लिये और रक्त चाप को नियंत्रित करने के लिये यह दादी माँ के पिटारे वाली औषधियों में से एक है। अंग्रेजी में इसेJungle cork tree, South Indian elm tree, Monkey biscuit tree or Kanju कहते हैं… हिंदी में इस पेड़ को चिरमिल, बंदर की रोटी, बनचिल्ला, चिरबिल्ब, बंदर बाटी, चिरोल, चिलबिल, करंजी, पापरी और बेगाना कहते हैं, जबकि बंगाली में इस वृक्ष को कलमी और नाटा करंज के नाम से बुलाते है।
चिलबिल का वैज्ञानिक नाम Holoptelea integrifolia है। मध्य प्रदेश के छिंदवाडा जिले में चिलबिल के कई पेड़ देखने को मिल जाते हैं, किन्तु नई पीढ़ी इसके नाम और उपयोग दोनो से अनभिज्ञ है। चिरोल/ चिलबिल एक औषधीय वृक्ष है। इस वृक्ष के फल भी पत्तियों के समान पंख धारण किये दिखाई पड़ते हैं, जो बंदरो को काफी प्रिय है। संभवतः बंदर की रोटी नाम पड़ने का यही कारण हो। चिरबिल्व को मध्यप्रदेश में इसे चरेल या चिरोल के नाम से जाना जाता है।
यह बहुत से औषधीय गुणों से संपन्न वृक्ष है और संपूर्ण भारत में पाया जाता है। इनमें औषधीय गुणों वाले महत्वपूर्ण रसायन पाये गये हैं जैसे एल्कलॉइड, फिनोल्स, फ्लेवेनॉइड, ग्लाइकोसाइड और क्विनिन्स आदि। इस पेड़ की छाल का उपयोग गठिया की चिकित्सा के लिए प्रभावी स्थान पर लेप कर के किया जाता है, जिससे सूजन उत्तर जाती है। इस की छाल का अन्दरूनी उपयोग आंतों के छालों की चिकित्सा के लिए किया जाता है।
जानकारों के अनुसार सूखी छाल का प्रयोग गर्भवती महिलाओं के लिए गर्भाशय के संकुचन को प्रारम्भ करने के लिए किया जाता है जिस से प्रसव आसानी से हो सके। पत्तियों को लहसुन के साथ पीस कर दाद, एक्जीमा आदि त्वचा रोगों में रोग स्थल पर लेप के लिए प्रयोग किया जाता है। पत्तियों को लहसुन और काली मिर्च के पीस कर गोलियाँ बनाई जाती हैं और एक गोली प्रतिदिन पीलिया के रोगी को चिकित्सा के लिए दी जाती है। लसिका ग्रन्थियों की सूजन में इस की छाल का लेप प्रयोग में लिया जाता है। छाल के लेप का उपयोग सामान्य बुखार में रोगी के माथे पर किया जाता है। इसमें पाये जाने वाले महत्वपूर्ण रसायन होलोप्टेलीन ए और बी भयंकर रोगों जैसे लेप्रोसी, रिकेट्स, ल्युकोडर्मा, वात रोग, दाद- खाज-खुजली, मलेरिया बुखार, घाव भरने और यहाँ तक कि कैंसर प्रतिरोधी दवा के तौर पर प्रयोग किये जाते हैं।
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ये तो हुई औषधीय गुणों की चर्चा, लेकिन इसके बीज जो कि बेहतरीन जंगली ड्रायफ्रूट और मुखवास हैं, इनमें भी कमाल की न्यूट्रिशनल वैल्यू पाई जाती है। बीजों का तेल कार्बोहायड्रेट, संतृप्त तथा असंतृप्त बसीय अम्ल, प्रोटीन, फाइबर, सूक्ष्म तथा वृहद पोषक तत्व से भरपूर होता है। आयुर्वेद में इसे खून साफ करने वाली यानि रक्त के घटकों को बैलेंस करने वाली औषधियों में गिना जाता है। इसके गुणों को समझना है तो गूगल करें, वहाँ हजारों रिसर्च पेपर इसके गुणों की जानकारी से पटे पड़े हैं। किसे शामिल करूँ और किसे छोडूं समझ नही आता। और न ही ये समझ आता कि इतने काम की औषधियों को फिर भला हम कैसे भुला देते हैं और रिटायर कर इन्हें किचन, घर और जीवनशैली से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। आपको समझ आये तो मुझे भी बताना।
डॉ विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई
जिला- छिंदवाड़ा (म.प्र.)
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