कहानी
पेड़
हंसा दीप
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टन टन टन टन।
घनघनाता कानफोड़ू इमरजेंसी अलर्ट।
सभी के फोन बज उठे। एक विशेष आपातकालीन संदेश फोन की स्क्रीन पर चमक रहा था- “तेज बारिश और हवाओं का मिला-जुला तूफान रास्ते में है और आपकी ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा है।”
यह संदेश इस बात का संकेत था कि आप जहाँ कहीं हों, तत्काल घर पहुँच जाएँ। गाड़ियों के काफिले और हड़बड़ाते लोगों के हुजूम अपने-अपने घरों की तरफ दौड़ने लगे।
देखते ही देखते दिन के बारह बजे का उजला, धूप से जगमगाता आकाश, काले बादलों की ओट में चला गया। ऐसा लगा मानो दिन दहाड़े सूरज का सीना फाड़कर रात ने दस्तक दे दी हो। कुछ ही क्षणों में तेज़ हवा और उतनी ही तेज़ बारिश का अंधड़ अपने पूरे वेग से दनदनाता आया। कुछ देर तक खतरनाक उपस्थिति दर्ज करवाने के बाद अपने रास्ते लौट गया। दिन के उजाले ने अपना पूरा जोर लगाकर अँधेरे को पछाड़ दिया और फिर से अपनी रोजमर्रा की ड्यूटी पर हाजिर हो गया।
उस तूफान ने हलचल मचा दी थी। बिजली गुल हो चुकी थी। लोग अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर एक दूसरे की सलामती की प्रार्थना कर रहे थे। आशंकाओं की सिहरन थमी तो थी परंतु पूरी तरह से नहीं।
अंधड़ की तीव्रता से इस बात का अनुमान था कि कहीं न कहीं कुछ बड़ा नुकसान हुआ होगा। लोग अपने-अपने घरों के आगे-पीछे घूमकर तहकीकात कर रहे थे कि तूफान ने उनकी संपत्ति को कोई नुकसान तो नहीं पहुँचाया!
मैं भी अपनी नज़रें चारों ओर दौड़ाता, इत्मीनान की साँस लेने ही वाला था कि पीछे की ओर देखते हुए मुँह खुला का खुला रह गया। मेरे घर के नजदीक के दो घरों और पीछे के दो घरों के पिछवाड़े फैला वह विराट वृक्ष अपनी जड़ से उखड़कर अब जमीन पर गिरा हुआ था। इन चारों घरों में उस पेड़ के हिस्से समान रूप से फैले थे। ये चारों घर उस पेड़ की छाया का लाभ उठाते थे। गर्मियों में इसके कारण हरी-भरी घास धूप से बच जाती। सर्दियों में बर्फ के प्रकोप से एक हद तक बचना हो जाता।
गिरे हुए पेड़ का तना इतना मोटा और विराट था कि उसे देखकर ऐसा लगता मानो यह अकेला नहीं बल्कि कई पेड़ों ने एक साथ मिलकर एकता की मिसाल प्रस्तुत की हो और बरसों बरस मनुष्यों को छाया देने के बाद निर्वाण को प्राप्त हुए हों।
तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे थे। सवाल भी उठ रहे थे- “ऐसे कैसे गिर सकता है यह सघन पेड़!”
“जरूर इस पर बिजली गिरी होगी, वरना इतना मजबूत पेड़ इस तरह कभी न गिरता।”
बाहर खड़े लोग उन चारों घरों की तरफ़ देखते हुए उनके मालिकों की बातें सुनने के साथ-साथ गिरे हुए पेड़ पर अफसोस भी जता रहे थे। मैं भी पूरी सतर्कता से उनकी बातचीत सुनने की कोशिश करने लगा। उन घरों के मालिकों के साथ उनके परिवार वाले भी उनके इर्द-गिर्द खड़े होकर अपने-अपने तर्क दे रहे थे।
अब बड़ा मसला यह था कि इसे हटवाने की जिम्मेदारी किसकी है! चारों मकान मालिक उसे नकार रहे थे। जाहिर है कि कोई भी अपने खर्च से इसे उठवाना नहीं चाहता था क्योंकि पेड़ की सघनता, विराटता, दीर्घजीविता और हजारों शाखाओं की मजबूती को देखते हुए, यहाँ से उठवाने के लिए यह हजारों डॉलर का खर्च था।
आसपास के लोग इसे देखने के लिए एकत्र हो गए थे। चारों मकानों के मालिक एक दूसरे से बातें करते हुए अपने पक्ष को स्पष्ट कर रहे थे कि यह पेड़ यहाँ से उठवाना उनकी जिम्मेदारी कतई नहीं है। हर एक अपना पल्ला झाड़ने की भरपूर कोशिश करते हुए तार्किक वजह गिना रहा था।
पेड़ का विस्तार कुछ ऐसी स्थिति में था कि एक घर के पिछवाड़े कोने पर विशालकाय वृक्ष की जड़ें थीं व उसके पड़ोसी की ओर फैलाव था। सामने के दो घरों के पिछवाड़े भी उसकी छाया का पूरा आनंद लेते थे। इस तरह कुल चार घरों तक इस वृक्ष का विराट शरीर अपनी पूरी शक्ति के साथ फैला हुआ था।
सर्दियों में इसकी बर्फ से लदी शाखाएँ हिमकणों से बने हजारों आईसीकल्स लिए आकर्षण का मुख्य केंद्र होती थीं। गर्मियों में हरीतिमा अपने पूरे यौवन में दिखाई देती, वहीं पतझड़ के करीब आने से पहले इसकी हर पत्ती का रंग इतने अलग-अलग रंगों में बँट जाता कि कई लोग फोटो लेने के लिए इसके आसपास मंडराते।
मैंने स्वयं भी कई बार अपनी खिड़की से इसकी तस्वीरें ली हैं। आज के तूफान में यह गिरा भी तो चारों पिछवाड़ों की फेंस को धराशायी कर हर ओर गिरा था। कोई भेदभाव नहीं।
बिजली भी कैसी गिरी! हर हिस्से में इस तरह उसका गिरना, ठीक वैसा, जैसा उस पेड़ का चारों तरफ फैला हुआ अस्तित्व था।
एक घर के मालिक ने कहा- “मेरे हिस्से में सिर्फ तना था, ज्यादा फायदा तुम तीनों ने लिया।”
दूसरे ने कहा- “हमारे यहाँ तो सिर्फ डालियाँ थीं।”
तीसरे ने कहा- “यह सही है कि सबसे ज्यादा हिस्सा मेरी ओर था, लेकिन सफाई भी तो मुझे ही ज्यादा करनी पड़ती थी।”
चौथे ने कहा- “देखो, मुझे इसमें मत घसीटो क्योंकि मुझे इससे न ज्यादा छाया मिली, न ही कभी फल मिले।”
फलदार था ही नहीं यह पेड़, फल कैसे देता!
ताज्जुब इस बात का था कि अपने मकान की तारीफों के पुल बाँधने में इस पेड़ की गिनती भी हुआ करती थी। पतझड़ में इसकी खूबसूरती देखते बनती थी। अलग-अलग रंगों की मेपल लीफ, कैनेडा का राष्ट्रीय चिन्ह! घर से दिखाई देता सुंदरतम दृश्य। टोरंटो के हाउसिंग मार्केट को ऊँचाइयाँ देने के लिए “बेस्ट व्यू” बहुत मायने रखता था।
इस समय ये सारी बातें भुलायी जा चुकी थीं। चारों पड़ोसी जिनके बैकयार्ड में वह पेड़ अपनी समग्र अस्मिता के साथ खड़ा था, वाद-विवाद में उलझे थे। आखिरकार यह तय हुआ कि चारों लोग सिटी प्रशासन को फोन करके इसे उठवाने की तुरंत व्यवस्था का आग्रह करें।
आसपास के पड़ोसियों की कतार में मैं भी था। उनके इस वाद-विवाद और तर्कों के उलझाव में फँसा मैं लगातार उस पेड़ को ताक रहा था। एकाएक मुझे वह पेड़, पेड़ की शक्ल में पापा के शरीर में बदलता दिखा, जिसके लिए हम चारों भाई भी उसी तरह जिरह करते थे। उम्र के शिखर पर चढ़ते हुए जब पापा की जिम्मेदारियाँ पूरी हुईं, उसी समय से हमारी शुरू हुई थीं। हममें से कोई भी पापा को हमेशा के लिए रखने को तैयार नहीं था। हम चारों ने मिलकर एक योजना बनाई जिसमें तय किया गया कि पापा हम सबके घरों में एक-एक महीना रहें। हर महीने अपना घर बदलते रहें।
कहने को तो हम सब यही कहते थे- “सबको आपके साथ रहने का मौका बराबरी से मिलना चाहिए।” लेकिन सीधी बात यह थी कि एक महीने रखने के बाद शेष तीन महीनों की चिंता-फिकर कम से कम तीन भाइयों के परिवार को नहीं करनी पड़ेगी।
हमारी हर जरूरत को हमारे कहने से पहले ही समझ लेने वाले पापा से क्या यह अंदरूनी बात छिपी होगी! सब कुछ जानकर भी उन्होंने कभी अपनी खुद की इच्छा जाहिर नहीं की कि वे खुद कहाँ रहना चाहते हैं!
माँ के गुजर जाने के बाद बरसों तक पापा ने माँ-पापा दोनों की जिम्मेदारी निभायी थी। मैं सबसे छोटा था, लेकिन अपने भाइयों के रौब तले पला-बढ़ा था। अपने हक की लड़ाई के लिए मैंने सबसे ज्यादा संघर्ष किया था। यह बात अलग है कि छोटा होने से मुझे पापा का अतिरिक्त लाड़-प्यार मिला लेकिन इसके विपरीत माँ के न रहने पर अगर सबसे ज्यादा किसी ने नुकसान उठाया तो वह मैं ही था।
मैंने देखा था, पापा बगैर थके हम सबकी हर पसंद-नापसंद का खयाल रखते थे। एक-एक करके सारे भाइयों की नौकरियाँ लगीं, उनके विवाह हुए और धीरे-धीरे चूल्हे बँटते चले गए।
पापा, न उड़ते समय को रोक पाए, न छोड़कर जाते हुए बच्चों को, और न ही अपनी ढलती उम्र को। आखिर में मैं और पापा अपने उस घर में अकेले रह गए। मेरी नौकरी लगी, शादी हुई। भाइयों का अनुकरण करने का मेरे पास वाजिब कारण था जिसके चलते वह घर सिर्फ ‘मेरा घर’ हो गया और पापा अपने ही घर में पराए हो गए।
मैं भी क्या करता! एकाउंटिंग का छात्र था। हर धूप-छाँव का हिसाब-किताब हो, गर्मी-ठंड-बारिश से बचाया, उसका भी बराबर हिसाब हो। माँ के बगैर मेरी परवरिश में जो कमियाँ रहीं, उन सबका लेखा-जोखा था मेरे पास। मेरी उस क्षतिपूर्ति के लिए अब अपने उसी घर में पापा चार महीनों में सिर्फ़ एक महीना ही रह सकते थे।
ये सब बातें पापा को निश्चित ही कचोटती रही होंगी लेकिन उन्होंने कभी कोई प्रतिवाद नहीं किया। चुपचाप हमारा कहा मान लेते और हर महीने की पहली तारीख को उनका घर बदल जाता।
उस इंसान का घर जिसने हम चारों को अपने घरों में रहने लायक बनाया था। जिस घर में जाते, अपनी निढाल देह को पलंग पर डाल देते। उम्र के उस मोड़ पर आँसू नहीं बहते, केवल इंसान की विवशता बहती है। बगैर पानी के बेबसी का समंदर जैसे पहाड़ से उतरे पानी की तरह गहराइयों में तबदील हो जाता।
आज, बरसों बाद मुझे लगा कि पापा की हालत इस जमींदोज हुए पेड़ की ही तरह थी जो अपनी शाखाओं से क्या शिकायत करता कि तुम्हें मैंने ही सींचा है। आज तुम आकाश की ऊँचाइयों को छूने को बेताब हो मेरी वजह से। वह पेड़ पापा की ही तरह मौन था। हर महीने की आखिरी तारीख नजदीक आने तक पापा अपना सामान सँभालने लगते। अगले घर में अपना मुकाम बनाने के लिए तैयार। घरवाले अगली एक तारीख का इंतजार करते कि कब इस बोझ से मुक्ति मिले।
क्या फर्क था उस लंबे-तगड़े-ऊँचे पेड़ में और पापा में। दोनों की स्थिति एक जैसी थी। दोनों जीवन भर छाया देते रहे। हर एक शाख को बराबरी का दर्जा दिया।
वह दिन जब पापा को दाँतों की सर्जरी करवानी थी, सरकारी कवरेज नहीं था। हम सबने अपना हिस्सा दिया था। सर्जरी के बाद रिकवरी के लिए आना-जाना, इंफेक्शन हो जाना, अतिरिक्त सर्जरी करके ठीक करना, इन तमाम चक्करों में लगातार पैसा लगता रहा। हर बिल के चार टुकड़े किए जाते। पापा के मजबूत कंधों पर हम चारों थे। हम सब, बराबरी का वही कर्ज लौटा रहे थे। लेकिन हम चारों के कंधे अकेले पापा के लिए कमजोर पड़ जाते थे, इसीलिए सारा खर्च हम शेयर करते थे।
“इनका चश्मा बनवाया।“
“इनकी दवाइयाँ आयीं।”
“इनके नए कपड़े बनवाए।”
हर महीने इस तरह का हिसाब-किताब हम चारों भाइयों के खर्चों की लिस्ट में रहता था। हमारे पालन-पोषण की जड़ें इस पेड़ के परिवार की तरह गहरी थीं। हम सबने उस छाया का भरपूर आनंद लिया था। लेकिन जब उस छाया को हमारी जरूरत थी, हम बँटी हुई, थोपी हुई, अनुपयोगी विरासत के लिए कन्नी काट रहे थे।
अचानक शोर से मेरी तंद्रा टूटी।
आपात स्थिति के खतरों से निपटने के लिए सरकारी तंत्र की सजगता का परिणाम सामने था। चारों घरों के मालिकों का निवेदन स्वीकार करते हुए इस विशालकाय पेड़ को हटाने की जिम्मेदारी सिटी प्रशासन ने ली थी।
सिटी के चार ट्रक एक-एक करके आ गए थे व गिरे हुए पेड़ के शरीर को उठाने का अपना-अपना एरिया बाँट रहे थे। लकड़ियों को पीस कर चूरा बनाने की मशीनें भी साथ थीं ताकि कम से कम ढोकर ले जाना पड़े। ट्रकों के साथ आए लोग अलग-अलग बँट गए थे और चारों घरों से अनगिनत बिखरी शाखाओं को उठा-उठाकर मशीन में डाल रहे थे। चूरा बनता जा रहा था।
बीच-बीच में वे खा-पी रहे थे, ठहाके लगा रहे थे व सिगरेट के लिए ब्रेक भी ले रहे थे।
दिनभर यही क्रम चलता रहा। शाम तक उन्होंने बड़े-बड़े लक्कड़ों को ट्रक में डालकर शेष का चूरा बना दिया था। ट्रक अपना मिशन पूर्ण करके लौट रहे थे। मैं अपने घर की खिड़की से देख रहा था। हमारी दिनचर्या का हिस्सा, वह पेड़ अंतिम यात्रा के लिए निकल चुका था। हम सबके लिए उस पेड़ की अंत्येष्टि हो चुकी थी।
मुझे लगा, वे चार हिस्से चार ट्रकों में नहीं हम चार भाइयों के चार कंधे थे जो पापा को अकेले नहीं उठा पाए थे। उनका जिंदा शरीर हम चारों ने बराबर-बराबर बाँट लिया था। इस पेड़ के अंतिम संस्कार की तरह उनकी मौत पर हममें से किसी को कुछ नहीं करना पड़ा था।
जब उनकी मौत हुई, कोरोना अपने चरम पर था। पापा अस्पताल में कोविडग्रस्त थे। कोई वहाँ जा नहीं सकता था। उनकी मौत की खबर मिलने पर हम घर में ही बैठे रहे थे। हममें से किसी को उनका दाह संस्कार करने की जहमत नहीं उठानी पड़ी थी। सिटी प्रशासन ने यह जिम्मा ले लिया था क्योंकि किसी रिश्तेदार को वहाँ आने की अनुमति नहीं थी।
मेरे सामने वे तमाम अनदेखे दृश्य बनने लगे थे- कैसे अस्पताल से पापा के शरीर को ले जाते हुए वहाँ के कर्मियों ने उनसे दूरी बनायी होगी। किसी तरह उन्हें प्लास्टिक में लपेट कर लाशों से भरी ट्रक में डाला होगा। सड़क के किनारे गाड़ी को पार्क करके चाय-नाश्ता किया होगा। सिगरेट फूँकी होगी।
और फिर आखिर में जाकर बिजली के शवदाह में फेंक दिया होगा, जहाँ से पेड़ के चूरे की तरह मिट्टी भी निकलकर बाहर न आयी होगी।
टन टन टन टन।
एक और इमरजेंसी अलर्ट आया। तूफान अब तक बहुत दूर जा चुका था।
हंसा दीप
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। चार उपन्यास आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल एवं पंजाबी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।
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