कविता –
गिद्ध के साथ एक उड़ान
मोहन सगोरिया
वह मेरे समानांतर उड़ रहा था
उसके डैनों में गजब की एकरसता थी
साधना-सी एकाग्रता, एकरूपता
मैंने कई मर्तबा पंख फड़फड़ाए थे
हवा में संतुलन बनाए रखने के लिए
जिस तरह धरातल से
सुंदर लगता था वह
एक विशेष शैली में
धरती भी।
सुंदर!
इस ऊंचाई से
उसके साथ ही
इतने ऊंचे आकर
जाना था मैंने पहली मर्तबा
पृथ्वी को
संदेह होता था
सुंदरता पर
मैंने उसके वास्तविक स्वरूप को
उघाड़-उघाड़ कर
देखा था जो
नहीं देखना चाहिए था
इस उड़ान से पूर्व
इस सुंदरता के बीच
एक कोना असुंदर था
जो कि मेरी दुनिया
और उसकी भी पूषा
जिससे एक ऊंचाई तक
आ गए थे हम
उड़ते-उड़ते।
मैंने नजर उठा कर देखा
चारों ओर नीला आसमान फैला था
उसके ऊपर साधनारत डैनों की तरह
धरती पर झुका; नीला वह
“यही अनंतता मेरी चुनौती है
दुनिया चुनौती बन जाए
और क्या बेहतरी होगी
दुनियादारों के लिए।”
– उसने फिर कहा।
मैंने अपनी धरा की ओर देखा
वह दोनों हाथ ऊपर उठाए
जैसे आसमान को गोद में
भर लेना चाहती थी
वह शांति चाहती थी कि उसमें
क्रंदन था
कोलाहल था
भूख थी
बीमारियां थी
दुर्घटनाएं थी
लूटपाट-मारकाट, दंगे थे
हिसाब लगा रहे थे
लाशों का लोग
जो संभावित थी
गिन रहे थे उसे
खून से निंचोई कमीज़ फचीटते हुए
कुछ देख रहे थे
गिद्धों का लाशों पर झपटना
और कुछ उन्हें भी देखते हुए
“देखा-देखा,
कितना अमानवीय है
तुम्हारी दुनिया में
– उसने फिर कहा
“हां, बहुत अमानवी है दुनिया में
पर भाई, दुनिया में है
दुनिया से नहीं।”
मैं उदास हो गया
कि बहुत जरूरी होता है
लंबी उड़ान से पहले और बाद में
ठहरना-रुकना-थमना
जी भर सांस लेना
इसी दुनिया में।
उसने अपने डैनों को फड़फड़ाया
और तेजी से ऊपर उड़ा
जैसे लाशों की नोंच-खरोंच
चीरफाड़ और मांस भक्षण का
उसका सघन सच
सच नहीं था; सच की तरह
अब वह मेरे समानांतर नहीं था
पर अब भी थी
उसके डैनों में साधना-सी
एकाग्रता
एकरसता
एकरूपता!
वह काफी तेज़ी से उड़ा ऊंचाई पर
और देर तक उड़ता रहा था
फिर एक बड़ा-सा चक्कर लगाकर
धीरे-धीरे नीचे उतर आया
अब मैं भी अपनी दुनिया में
इत्मीनान से लौट सकता था।
रजा पुरस्कार से सम्मानित,विज्ञान कवितायें लिखने के लिए विशेष रूप से जाने जाते है .
‘इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए’ -के सहसंपादक हैं.भोपाल में रहते हैं.