24 मई जयंती पर विशेष: भगत सिंह के प्रेरणा स्रोत थे 19 साल की आयु में शहीद हुए करतार सिंह सराभा!
सुदेश गौड़ की विशेष रिपोर्ट
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेज हूकूमत से जमकर मुकाबला किया और अपने देश के लिए प्राण तक न्योछावर कर दिए। 23 वर्ष की आयु में आखिर भगत सिंह को देश के लिए अपने प्राण न्योछावर करने की प्रेरणा कहां से मिली थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह करतार सिंह सराभा को अपना गुरु व आदर्श मानते थे। सराभा एक ऐसे क्रान्तिकारी थे, जिन्होंने मात्र 19 साल की उम्र में फांसी के फंदे को चूम लिया था।
अप्रैल 1919 में जनरल डायर के आदेश पर जलियांवाला बाग भारतीयों के खून से लाल हो चुका था। भगत सिंह तब 12 साल के भी नहीं हुए थे। एक दिन जलियांवाला बाग गए और नुकीले पत्थर से खोदकर खून से सनी मिट्टी उठाई और उसे एक बोतल में भर कर घर ले आए थे। अमृतसर में भगत सिंह की बहन का घर था।बहन को खूनी मिट्टी से भरा गिलास दिखाया और भावुक होते हुए जलियांवाला बाग का पूरा किस्सा बता डाला। वे कुछ फूल भी लेकर आए और गिलास के चारों ओर सजा दिए थे। इस घटना के ठीक 10 साल बाद अप्रैल 1929 में दिल्ली असेंबली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह को गिरफ्तार किया जाता है। तब भगत सिंह की जेब से जो चीजें बरामद होती हैं, उसमें एक तस्वीर भी थी… यह तस्वीर करतार सिंह सराभा की थी। भगतसिंह अपनी मां को सराभा की फोटो दिखाकर कहते थे कि यह मेरे गुरू हैं।
आज से 128 वर्ष पूर्व 24 मई, 1896 को जन्मे करतार सिंह सराभा उन हजारों अनाम क्रांतिकारियों में से एक हैं जो भारत के आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए थे।इनकी माता साहिब कौर तथा पिता मंगल सिंह था। पिता का बचपन में निधन होने के कारण करतार सिंह और इनकी छोटी बहन धन्न कौर का पालन-पोषण दादा बदन सिंह ने किया। इतिहास के पन्नों में गुम करतार सिंह सराभा केवल 19 वर्ष के थे जब उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों ने फाँसी दे दी थी । उनकी बहादुरी, सक्रियता और भारत की स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता वीरतापूर्ण थी। वह अपने बाद में आए स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा और साहस का स्रोत बन गए, भगत सिंह भी उनमें से एक थे।
*अमरीका जाकर मिला सोच और जीने का मकसद*
करतार सिंह स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए थे। वहां पहुंचकर अमेरिकियों के हाथों मिली जलालत और कोमागाता मारु जहाज से आए भारतीयों के साथ कनाडा के व्यवहार से आहत होने पर उन्हें अहसास हुआ कि एक पराधीन देश का नागरिक होना क्या होता है और इस अनुभव ने करतार सिंह की सोच और जीने का मकसद पूरी तरह से बदल दिया। अमेरिका में लाल हरदयाल और सोहन सिंह भाखना ने गदर पार्टी की स्थापना की थी। वहीं करतार सिंह इनसे मिले और गदर पार्टी से जुड़ गए। इस समय उनकी उम्र मात्र 17 वर्ष थी। गदर पार्टी की आंतरिक पत्रिका ‘गदर’ अलग-अलग कई भाषाओं में प्रकाशित होती थी। इसके पंजाबी भाषा के संस्करण का संपादन करतार सिंह करने लगे। इस पत्रिका के जरिये वे नौजवानों में क्रांति की चेतना जगाने लगे।
*कम उम्र में ही पंजाब की कमान*
गदर पार्टी से जुड़ने के बाद नवंबर, 1914 वे कलकत्ता आए, जहां उनकी मुलाकात रास बिहारी बोस से हुई। रास बिहारी ने उन्हें पंजाब जा कर क्रांतिकारियों का संगठन तैयार करने को कहा। पंजाब पहुंच कर करतार सिंह क्रांति की अलख जगाने में जुट गए। जनवरी 1915 में रास बिहारी बोस अमृतसर आए। करतार सिंह और अन्य क्रांतिकारियों के बीच अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति के लिए सहमति बनी। इसके लिए 21 फरवरी, 1915 का दिन पूरे भारत मे एक साथ क्रांति के लिए तय हुआ। करतार सिंह ने लाहौर छावनी के शस्त्र भंडार पर कब्जा करने का जिम्मा लिया था। सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। लेकिन अपने ही एक साथी की गद्दारी के कारण पुलिस तक सारी योजना लीक हो गई। गदर पार्टी के जितने भी नेता जहां मिले, सभी को गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजों ने इसे प्रकरण लाहौर षड्यंत्र का नाम दिया था।
*अकेले ही मोर्चा संभाल लिया*
आंदोलन की असफलता के बावजूद करतार सिंह ने 2 मार्च, 1915 को लायलपुर पहुंच कर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसके बाद करतार सिंह को उनके साथियों समेत गिरफ्तार कर लिया गया। 13 सितंबर, 1915 को करतार सिंह को साथियों समेत लाहौर सेंट्रल जेल भेज दिया गया। वहां उन पर मुकदमा चला और कोर्ट ने 24 लोगों को फांसी की सजा सुनाई। करतार सिंह को सबसे खतरनाक मास्टरमाइंड ठहराया गया। फांसी की सजा सुनाए जाने पर उन्होंने जज से कहा था- मातृभूमि की रक्षा के लिए दिया गया कोई भी बलिदान बड़ा नहीं है।16 नवंबर, 1915 को मात्र 19 वर्ष की आयु में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। अपनी भारत मां को स्वाधीन देखने का सपना लिए ये रण बांकुरा शहीद हो गया। इतनी कम आयु में देश के लिए शहीद होने के सराभा के जज्बे से भगत सिंह बहुत प्रभावित थे और उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए उन्होंने भी देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।