फ़िल्म समीक्षा: चंदू चैंपियन देखनीय है चंदू का चैंपियन बनना
सिनेमाघर में पहले दिन पहला शो का खाली खाली हॉल देखकर लगा कि कहीं बेचारे चंदू की हालत लाल सिंह चड्ढा जैसी न हो जाए। तब कहा गया था खोदा पहाड़ निकला चड्ढा! अब कहीं ये चंदू अक्षय कुमार के सिगरेट विरोधी विज्ञापन के नंदू जैसा न रह जाए। कहीं दर्शक इसे ईद के पहले ही बकरा न बना दे!
लाल सिंह चड्ढा की कहानी काल्पनिक थी, चंदू की कहानी मुरलीकांत पेटकर के जीवन पर है। प्रेरक कहानी। मुरली जी हॉकी खेलना चाहते थे, कुश्ती लड़ते थे, हालात ने फौज में भेज दिया। युद्ध में 9 गोलियां लगीं। एक अभी भी उनके बदन में धंसी है। लंबे वक्त तक कोमा में रहे। फिर तैराकी करने लगे। पैरालिम्पिक में गए, गोल्ड जीता। पद्मश्री पाया। मोटिवेशनल स्पीकर्स को दुनिया सुनती है। कबीर खान इस किंवदंती की गाथा से प्रेरित हुए और उन्होंने बिना भूल भुलैया किये कार्तिक को चैलेंज दे दिया।
कार्तिक ने मुरली बनने के लिए अपना काया कल्प किया। वे ग्वालियर के हैं लेकिन उन्होंने मराठी चरित्र के एक्सेंट को खूब कॉपी किया। मुश्किल ये है कि वे कोई गंभीर बात कहते हैं और लगता है कि मज़ाक चल रहा है। उनका मजाक गंभीर बन जाता है। जब कार्तिक बनियान चड्डी पहनकर फर्राटा दौड़ते दिखाए जाते हैं तब लगता है कि कहीं ये गंजी का एड तो नहीं चल रहा!फिर भी यह कार्तिक आर्यन की यह बेस्ट फ़िल्म है। उन्होंने फ्रेम दर फ्रेम मुरलीकांत को पर्दे पर उतार दिया है। खासकर जवानी के दिनों को।
कबीर खान ने इसे लिखा है, प्रोड्यूस किया है और डायरेक्ट किया है। विजय राज, सोनाली कुलकर्णी, राजपाल यादव, श्रेयस तलपड़े, सयाजी शिंदे ने अच्छा अभिनय किया है।
यह देखनीय फ़िल्म है।