जनसंख्यकीय असंतुलन और भारतीयता का भविष्य!
स्वतंत्रता प्राप्ति के पाँच वर्ष पश्चात ही एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता और अन्त्योदयी विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने चेताया था कि निकट भविष्य में भारत में रहने वाले मुसलमान खुलकर पाकिस्तान के प्रति अपने भाव व्यक्त करने लगेंगे ऐसी स्थिति किसी भी सरकार के लिए असहज होगी। अभी भी चाहे क्रिकेट का मैच हो या इजरायल-हमास का युद्ध, चौराहों या शैक्षणिक संस्थानों के हास्टलों में दबे या खुले स्वर उभरकर सामने आ ही जाते हैं।
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की चिंता में जनसंख्या के बढता असंतुलन स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही प्रमुख रहा है। इन सबके बावजूद देश के एक वर्ग की स्थिति रेगिस्तान के शुतुरमुर्ग की भाँति है जो आँधी के समय रेत में सिर छुपाकर स्वयं को सुरक्षित मान लेता है।
जिस बात का खतरा है..
1952 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अखंड भारत क्यो..? के शीर्षक से लिखे लंबे लेख में कहा था- “कल तक जो काम मुस्लिम लीग एक संस्था के रूप में करती थी आज वही कार्य पाकिस्तान एक स्टेट के रूप में कर रहा है। निश्चित ही समस्या का परिवर्तित स्वरूप अधिक खतरनाक है। पाकिस्तान के निर्माण में सहायक भारतवासी मुसलमानों की साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को भी पाकिस्तान से बराबर बल मिलता रहता है तथा भारत के राष्ट्रीय क्षेत्र में साढ़े तीन करोड़(आज की स्थिति में साढ़े 17 करोड़) मुसलमानों की गतिविधि किसी भी सरकार के लिए शंका का कारण बनी रहेगी।”
पं. उपाध्याय ने भारत से काटकर पाकिस्तान के निर्माण के बाद भविष्य की आसन्न चुनौतियों का गहन शोधात्मक आँकलन किया था..जो “अखंड भारत क्यों.?” नाम की पुस्तिका के रूप में छपा था। 68 साल पहले कही गईं बातों का असली रूप अब ऐसे मौकों पर प्रायः उभरकर दिखने लगता है, खासतौर पर जब पाकिस्तान और इस्लामिक चरमपंथ की बात होती है। इसके अलावा भी चाहे बात कश्मीर के आतंकवादियों की हो, फलस्तीन के हमास, अफगानिस्तान के तालेबान या अलकायदा की या फिरएल क्रिकेट ही क्यों न, इनके चेहरों से पलस्तर उधडकर नग्न रूप सामने आ जाता है।
यह तीन वर्ष पूर्व 24 अक्टूबर 2021की घटना है जब दुबई में खेले गए टी-20 क्रिकेट मैच में भारत पर पाकिस्तान की विजय के बाद देशभर में जहां-तहाँ मुस्लिम युवाओं ने पटाखे फोड़कर खुशियां व्यक्त कीं। कश्मीर के एक महाविद्यालय के छात्रों ने खुलकर जश्न मनाया, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए।
हो सकता है कि देश में रह रहे सत्रह करोड़ मुसलमानों में से यह संख्या अल्प हो। लेकिन इस संख्या के साथ मूक सहमति का आँकलन करना लगभग वैसे ही है जैसे भूगर्भ में सक्रिय ज्वालामुखी का स्पष्ट अंदेशा लगाना। ये छात्र और युवा उसी घर-समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनसे देश ऐसे मौकों पर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की अपेक्षा करता है।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने पाकिस्तान जाने का विकल्प न चुनने वाले मुसलमानों को लेकर जो आशंका व्यक्त की थी पाकिस्तान के एक मंत्री शेख रसीद(तत्कालीन)ने उसकी सत्यता पर यह कहते हुए अपनी मुहर लगा दी कि- “हिन्दुस्तान के मुसलमानों के जज्बात पाकिस्तान के साथ हैं। इस्लाम को फतह मुबारक हो। पाकिस्तान जिन्दाबाद।
शेख रसीद के इस वक्तव्य पर भारत के किसी बौद्धिक मुसलमान का कोई प्रतिवाद नहीं आया। जबकि यही लोग कश्मीर के हर आतंकवादी को निर्दोष और मासूम बता देने में एक मिनट का भी वक्त जाया नहीं करते। और उन कथित मानववादी विचारकों के बारे में क्या कहना जो संसद हमले, मुंबई विध्वंस के गुनहगारों अफजल गुरु और मोहम्मद कसाब की सजामुक्ति को लेकर हस्ताक्षर अभियान चलाते हैं। बहरहाल क्रिकेट प्रकरण को वैसी ही एक बानगी समझिए जैसी कि जेएनयू जैसे शैक्षणिक संस्थानों में भारत तेरे टुकड़े होंगे..इंशाअल्लाह.. इंशाअल्लाह।
इससे ज्यादा गंभीर खतरा उस रणनीति का है जो जनसंख्यकीय बल के आधार पर निकट भविष्य में देश पर प्रभुत्व जमाने का मंसूबा पाले हुए है। जनसंख्यकीय असंतुलन के इस बड़े खतरे का रेखांकन सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी ने अपने विजयदशमी उद्बोधन समेत कई बौद्धिकों में किया है।
जनसंख्यकीय असंतुलन का यथार्थ
पहले समझ लेते हैं जनसांख्यकीय असंतुलन की चिंता। संघ प्रमुख ने समय-समय पर तथ्यों और आँकड़ों के साथ जनसंख्या में असंतुलन और उससे जुड़े खतरे को लेकर नीति नियंताओं को सचेत किया और समय रहते सर्वव्यापी, सर्वसमावेशी नीति तैयार कर सभी नागरिकों पर समभाव से लागू करने की बात की। श्री भागवत कहते हैं-
“देश में जनसंख्या नियंत्रण हेतु किये विविध उपायों से पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि दर में पर्याप्त कमी आयी है,लेकिन 2011 की जनगणना के पांथिक आधार (Religious ground) पर किये गये विश्लेषण से विविध संप्रदायों की जनसंख्या के अनुपात में जो परिवर्तन सामने आया है, उसे देखते हुए जनसंख्या नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता प्रतीत होती है। विविध सम्प्रदायों की जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर, अनवरत विदेशी घुसपैठ व मतांतरण के कारण देश की समग्र जनसंख्या विशेषकर सीमावर्ती क्षेत्रों की जनसंख्या के अनुपात में बढ़ रहा असंतुलन देश की एकता, अखंडता व सांस्कृतिक पहचान के लिए गंभीर संकट का कारण बन सकता है।
विश्व में भारत उन अग्रणी देशों में से था जिसने 1952 में हीं जनसंख्या नियंत्रण के उपायों की घोषणा की थी, परन्तु सन 2000 में जाकर ही वह एक समग्र जनसंख्या नीति का निर्माण और जनसंख्या आयोग का गठन कर सका । इस नीति का उद्देश्य 2.1 की ‘सकल प्रजनन-दर’ की आदर्श स्थिति को 2045 तक प्राप्त कर स्थिर व स्वस्थ जनसंख्या के लक्ष्य को प्राप्त करना था । ऐसी अपेक्षा थी कि अपने राष्ट्रीय संसाधनों और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रजनन-दर का यह लक्ष्य समाज के सभी वर्गों पर समान रुप से लागू होगा । परन्तु 2005-06 का राष्ट्रीय प्रजनन एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण और सन 2011 की जनगणना के 0-6 आयु वर्ग के पांथिक आधार पर प्राप्त आँकड़ों से ‘असमान’ सकल प्रजनन दर एवं बाल जनसंख्या अनुपात का संकेत मिलता है । यह इस तथ्य में से भी प्रकट होता है कि वर्ष 1951 से 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर के कारण देश की जनसंख्या में जहाँ भारत में उत्पन्न मतपंथों के अनुयायिओं का अनुपात 88 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया है वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 प्रतिशत से बढ़ कर 14.23 प्रतिशत हो गया है।
इसके अतिरिक्त, देश के सीमावर्ती प्रदेशों तथा असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में तो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, जो स्पष्ट रूप से बंगलादेश से अनवरत घुसपैठ का संकेत देता है । माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त उपमन्यु हाजरिका आयोग के प्रतिवेदन एवं समय-समय पर आये न्यायिक निर्णयों में भी इन तथ्यों की पुष्टि की गयी है । यह भी एक सत्य है कि अवैध घुसपैठियें राज्य के नागरिकों के अधिकार हड़प रहे है तथा इन राज्यों के सीमित संसाधनों पर भारी बोझ बन सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा आर्थिक तनावों का कारण बन रहे हैं।
पूर्वोत्तर के राज्यों में पांथिक आधार पर हो रहा जनसांख्यिकीय असंतुलन और भी गंभीर रूप ले चुका है । अरुणाचल प्रदेश में भारत में उत्पन्न मत-पंथों को मानने वाले जहाँ 1951 में 99.21 प्रतिशत थे वे 2001 में 81.3 प्रतिशत व 2011 में 67 प्रतिशत ही रह गये हैं । केवल एक दशक में ही अरूणाचल प्रदेश में ईसाई जनसंख्या में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है । इसी प्रकार मणिपुर की जनसंख्या में इनका अनुपात 1951 में जहाँ 80 प्रतिशत से अधिक था वह 2011 की जनगणना में 50 प्रतिशत ही रह गया है । उपरोक्त उदाहरण तथा देश के अनेक जिलों में ईसाईयों की अस्वाभाविक वृद्धि दर कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा एक संगठित एवं लक्षित मतांतरण की गतिविधि का ही संकेत देती है।
श्री भागवत ने 2015 में राँची में सम्पन्न हुई अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की प्रतिबद्धता का स्मरण कराते हुए कहा कि कार्यकारी मंडल इनसभी जनसांख्यिकीय असंतुलनों पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार से आग्रह करता है कि :
1. देश में उपलब्ध संसाधनों, भविष्य की आवश्यकताओं एवं जनसांख्यिकीय असंतुलन की समस्या को ध्यान में रखते हुए देश की जनसंख्या नीति का पुनर्निर्धारण कर उसे सब पर समान रूप से लागू किया जाए।
2. सीमा पार से हो रही अवैध घुसपैठ पर पूर्ण रूप से अंकुश लगाया जाए । राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (National Register of Citizens) का निर्माण कर इन घुसपैठियों को नागरिकता के अधिकारों से तथा भूमि खरीद के अधिकार से वंचित किया जाए ।
श्री भागवत का कहना था कि इन विषयों के प्रति जो भी नीति बनती हो, उसके सार्वत्रिक संपूर्ण तथा परिणामकारक क्रियान्वयन के लिये अमलीकरण के पूर्व व्यापक लोकप्रबोधन तथा निष्पक्ष कार्यवाई आवश्यक रहेगी । सद्यस्थिति में असंतुलित जनसंख्या वृद्धि के कारण देश में स्थानीय हिन्दू समाज पर पलायन का दबाव बनने की, अपराध बढने की घटनाएँ सामने आयी हैं ।
पश्चिम बंगाल में हाल ही के चुनाव के बाद हुई हिंसा में हिन्दू समाज की जो दुरवस्था हुई उसका, शासन प्रशासन द्वारा हिंसक तत्वों के अनुनय के साथ वहां का जनसंख्या असंतुलन यह भी एक कारण था । इसलिए यह आवश्यक है कि सबपर समान रूपसे लागू हो सकने वाली नीति बने । अपने छोटे समूहों के संकुचित स्वार्थों के मोहजाल से बाहर आकर सम्पूर्ण देश के हित को सर्वोपरि मानकर चलने की आदत हम सभी को करनी ही पड़ेगी।”
आज कश्मीर तो कल दूसरे प्रांत भी..
जनसंख्यकीय आँकड़ों को यथार्थ के धरातल पर रखकर विश्लेषण करें तो सीमावर्ती प्रांतों की चिंतनीय स्थिति समझ में आती है। जम्मू-कश्मीर इन स्थितियों का सबसे भयावह माडल है। दसकों, सदियों से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक जिस वृस्तित भूभाग का राजा हिन्दू रहा हो वहाँ आज वहाँ का हिन्दू सबसे दीनहीन और अल्पसंख्यक है। स्वतंत्रता के बाद जो अपेक्षाएं, आकांक्षाएं थीं उसपर तुषारापात हुआ।
पाकपरस्त इस्लामिक आतंकवाद ने लंबे समय से ही यहाँ के हिन्दुओं के वंशनाश का अभियान चलाया। जो रह गए वे मारे गए, जो पुरखों की विरासत का मोह छोड़कर वहां से निकले वे आज अपने ही देश में शरणार्थी हैं। 2011 के आँकडों के अनुसार जम्मू-कश्मीर की कुल जनसंख्या में 68 प्रतिशत मुसलमान हैं। यदि जम्मू से अलग सिर्फ कश्मीर घाटी की बात करें तो यहाँ यह आँकड़ा 95 प्रतिशत है। क्या आपको यह नहीं लगता कि यही आँकड़ा वहाँ भारत के विरोध का मूल कारण बना हुआ है। यहीं से देशभर के मुसलमानों तक राष्ट्र के विरोध और भारत तेरे टुकड़े होंगे का संदेश प्रेषित होता है।
धारा 370 के हटाए जाने के बाद भी आतंकवाद की घटनाएं थमी नहीं हैं। यहां जब तक जनसंख्यकीय संतुलन नहीं बनेगा, तब तक समस्या का हल निकलने वाला नहीं। कश्मीर में वहां के मूलनिवासी पंडितों के पुनर्वास के साथ ऐसे यत्न करने होंगे कि हिन्दू-मुस्लिम के बीच कम से कम 50-50 प्रतिशत की बसाहट रहे। यहाँ के संसाधनों पर अन्य राज्यों की भाँति देश के प्रत्येक नागरिक का अधिकार होना चाहिए। केरल का नागरिक वहां बस सके और कश्मीर का रहवासी भी अपनी अभिलाषा के अनुरूप देश का कोई भू-भाग अपने गुजरबसर के लिए चुन सके।
असम में मुसलमानों की आबादी कुल की 35 प्रतिशत से ज्यादा है। माँ कामाक्षी की पुण्यभूमि पर झोपड़पट्टीनुमा घरों के ऊपर लहराते चाँद सितारों वाले हरे झंडे अपनी अलग कहानी कहते हैं। भारत के चुनावी लोकतंत्र में 35 प्रतिशत के वोट का आँकड़ा केन्द्र व राज्यों में सरकार बनाने के लिए पर्याप्त है। असम बांग्लादेशी घुसपैठियों से आबाद है। नेताओं की स्वार्थी राजनीति ने इन्हें अपना वोट बनाने के लिए मातृभूमि का सौदा कर लिया। कश्मीर के बाद दूसरा सबसे बड़ा सिरदर्द असम है। जो कश्मीरी कर रहे हैं वो कल असम के यही लोग करेंगे। वे पाकपरस्त हैं, तो ये बांग्लादेश परस्त बन जाएंगे। क्योंकि इनकी पंथीय एकता यही कहती है। इनके लिए विश्व का हर गैर मुसलमान आज भी काफिर है, कल भी रहेगा।
27 प्रतिशत की मुस्लिम आबादी वाले पश्चिम बंगाल ने इस विधानसभा चुनाव में अपना रंग दिखा दिया। चुनाव पूर्व और चुनाव बाद जिस तरह खून-खराबा, लूटपाट हुई वह दुर्दांत सुहरावर्दी के दौर की याद दिलाता है। यहां की राजनीति में मुसलमानों की जड़ें गहरी हैं। इन्हें पहले कांग्रेस ने पाल-पोषकर अपना वोट बैंक बनाया फिर वामपंथी राजनीतिक दलों इन्हें अपना राजनीतिक हथियार बनाया और आज ये त्रृणमूल कांग्रेस की आत्मा ही बन बैठे हैं। जिस तरह पाकिस्तानी आतंकवादियों की शरणस्थली कश्मीर है ठीक वैसे ही बाग्लादेशी चरमपंथियों के लिए बांग्लादेश।
इस देश में आईएसआईएस के कनेक्शन का सबसे पहले यदि कहीं पता चला तो वह केरल है। यहां मुसलमानों की आबादी 27.7 प्रतिशत है। 16 से ज्यादा ऐसे जिले हैं जहाँ यह आँकड़ा 50 से ऊपर बैठता है। संभवतः इसीलिए राहुल गाँधी वायनाड से चुनाव लड़ने पहुँचे और जीते भी। केरल में मिशनरीज और खाड़ी देशों का पेट्रो डालर अभी भी अपना रसूख दिखा रहा है। शंकराचार्य की यह पुण्यभूमि में कब उनके अनुयाई अल्पसंख्यक बनकर रह जाएं कह नहीं सकते। मिशनरीज और मदरसों के लक्ष्य में वही क्षेत्र पहले रहता है जो कभी अपनी सनातनी संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है। 1983 में केरल के ही एक शोधार्थी केसी जाचरिया के एक अध्ययन के अनुसार यहाँ एक मुस्लिम महिला का प्रजनन औसत 4.1 है जबकि हिन्दू महिला का 2.9। यानी कि यहाँ प्रजनन दर में लगभग दूने का अंतर है। यह दूना आँकड़ा चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ते हुए कब मूलधन से ऊपर आ जाए कोई समाजशास्त्री ही इसका आँकलन कर सकता है।
देश की हिन्दी पट्टी बिहार और उत्तरप्रदेश को बाहुबलियों और सरकार के समानांतर माफियाराज चलाने वाले गिरोहों के बारे में जाना जाता है। यदि खोजें तो पाएंगे की शीर्ष 10 में कौन लोग विराजमान है..इसलिए ज्यादा बताने की जरूरत नहीं। विधानसभाओं और संसद में अपराधियों के प्रवेश का रास्ता इन्हीं दो राज्यों से होकर गुजरता है। यही माफिया बाहुबली हैं और यही नेता। 2014 के बाद इनपर नकेलें कसी गईं तो इनमें से कई सांसद विधायक होते हुए भी जेल में हैं और उनका आपराधिक साम्राज्य ध्वस्त किया गया। उत्तरप्रदेश की कुल जनसंख्या में मुस्लिम मताबलंबियों का प्रतिशत भले ही 19.3 का हो लेकिन संख्या की दृष्टि से साढ़े चार करोड़ से ज्यादा ही हैं। मुगल आक्रांताओं ने सबसे ज्यादा यहीं विध्वंस किया। मंदिरों को तोड़कर उसपर मस्जिदें बनाईं और शहरों के नाम बदलकर वहां इस्लाम की पट्टेदारी लिख दी। दुर्भाग्य देखिए जिस लुटेरे बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया उसी के नाम से बिहार में आज भी बख्तियारपुर है।
बिहार में मुस्लिमों की जनसंख्या 16 प्रतिशत है पर पश्चिम बंगाल के रास्ते यहां आनेवाले बांग्लादेशी घुसपैठियों और रोहंगिया मुसलमानों की गणना अभी दर्ज होना बाकी है। यहां वास्तविक जनसंख्या 20प्रतिशत से ज्यादा बैठती है। उत्तरप्रदेश और बिहार के कई कस्बों से निकली ये कहानियां सुर्खियों में रहीं कि यहां से डर के मारे हिन्दू समुदाय को औने-पौने सब बेंच भाँजकर पलायन करना पड़ा। कई गाँवों व कस्बों की वास्तविकता वहीं दबकर रह जाती है।
देश के पैमाने पर देखें तो मुसलमानों की आबादी जहाँ 24.6 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही है वहीं इसके मुकाबले हिन्दू जनसंख्या की वृद्धिदर 16.76 प्रतिशत है यानी कि 8 प्रतिशत अधिक। मुस्लिम जनसंख्या में ऐसी वृद्धि एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है और इसे सरिया और मजहब के साथ जोड़ दिया गया है। इतिहास की ओर पलटकर देखें तो यह पंक्ति कितनी भयावहता के साथ सत्य का पर्दाफाश करती है कि- जहाँ हिन्दू घटा वहां देश बँटा..।
पड़ोसी देशों में हिन्दुओं की स्थिति
भारत से काटकर पाकिस्तान बनाए जाने के पीछे जनसंख्या बल ही था। अँग्रेजों ने जाति और पंथ के आधार पर जनगणना जारी कर फूट डालों और बाँटो की नीति पर अमल किया। पाकिस्तान की माँग का आधार ही मुस्लिम आबादी रही है। जब पंथ के आधार पर देश बाँटा गया तो कायदे से दोनों ओर की हिन्दू मुस्लिम आबादी का शत-प्रतिशत स्थानांतरण होना चाहिए। लेकिन यहाँ भी एक दूरगामी रणनीति रची गई जिसे तत्कालीन कांग्रेस की सरकार और उसके नेताओं ने सहारा दिया। बहरहाल अगस्त 1947 में बँटवारे के समय साढ़े चार करोड़ मुस्लिम पाकिस्तान गए वहाँ से महज 55 लाख हिन्दू व सिख भारत आए। जबकि साढ़े तीन करोड़ मुस्लिमों की आबादी भारत में ही रह गई। यह उस समय की कुल आबादी लगभग 37 करोड़ के मान से साढे़ आठ से नौ प्रतिशत की थी जबकि 2011 की जनगणना के हिसाब से भारत में मुसलमानों की आबादी 14.2 प्रतिशत यानी कि 17 करोड़ 20 लाख के आसपास है। सन् 1947 से अबतक मुस्लिम जनसंख्या लगभग 6 प्रतिशत बढ़ गई।
अब पाकिस्तान में हिन्दुओं की स्थिति देखते हैं। बँटवारे के बाद 1951 की जनगणना में पश्चिमी पाकिस्तान(आज का पाकिस्तान) में 1.6 प्रतिशत हिन्दू बचे थे जबकि पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हिन्दुओं की आबादी 22.02 प्रतिशत थी। पाकिस्तान में आज की स्थिति में वहाँ हिन्दुओं की जनसंख्या अब 1 प्रतिशत भी नहीं बची। जबकि बांग्लादेश में 2011 की जनगणना के हिसाब से महज 10.2 प्रतिशत हिन्दू ही बचे थे। यानी कि बांग्लादेश में हिन्दू जनसंख्या में 12 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। अब बामियान बुद्ध के देश अफगानिस्तान को लें, रिपोर्ट्स बताती हैं 70 के दशक में यहां हिन्दू-सिखों की आबादी 7 लाख के करीब थी। 2016 के आँकड़ों के अनुसार 1350 हिन्दू बचे थे। नेट पर उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार 2020 में वहां सिर्फ 50 हिन्दू नागरिक बचे। अमेरिकी थिंकटैंक प्यू रिसर्च की एक रिपोर्ट बताती है कि अब वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब विश्वभर की कुल मुस्लिम आबादी की सबसे ज्यादा संख्या भारत में होगी। यानी कि सबसे ज्यादा मुसलमान हिन्दुस्थान में पाए जाएंगे। और मुस्लिम देशों से शनैः शनैः हिन्दुओं का नामोनिशान मिट जाएगा।
तथ्य बताते हैं कि जिन पड़ोसी मुस्लिम मुल्कों में हिन्दू थे उनकी संख्या लगातार शून्य की ओर बढ़ती जा रही है और इसके उलट भारत में मुस्लिम आबादी की बढोत्तरी दिनदूना रात चौगुना होती जा रही है। यही चिंता का विषय है। पहले से ही आबादी का बोझ झेल रहे देश में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से पीड़ित-दमित हिन्दू तो आए ही.. इन देशों से बड़ी भारी संख्या में अवैध तरीके से मुस्लिम आबादी भी घुस आई। अब जब राष्ट्रीय नागरिक पंजिका की बात होती है या भारत की नागरिकता पाने के नए कानून के अमल की बात उठती है। तो शहर-शहर में शाहीनबाग सजा दिए जाते हैं। जनजीवन खतरे में डाल दिया जाता है। मजहबी वोट की राजनीति करने वाले नामधारी दल ताल ठोकते हुए सड़क पर आ जाते हैं। कथित बुद्धिजीवी भड़काते हैं कि सर्वे के लिए सरकारी लोग आएं तो सही नाम बताने की बजाय रंगा-बिल्ला बताइए।
अखंड भारत की बात..
1876 के पहले यानी कि सन 1857 की क्रांति के समय अफगानिस्तान, भूटान, श्रीलंका और वर्मा(म्यामांर) भारत के हिस्से थे। 1947 में पाकिस्तान के अलग होने के पहले 1937 में वर्मा, 1935 में श्रीलंका, 1906 में भूटान और 1876 में अफगानिस्तान भारत से अलग हुए। जब हम अखंड भारत की बात करते हैं तो भारतमाता की यही तस्वीर सामने आती है। यदि हम वृहत्तर भारत साम्राज्य की बात करें जहाँ सनातन धर्म और हिन्दू संस्कृति का फैलाव था तो उसमें मलेशिया, फिलीपींस, थाईलैण्ड, दक्षिणी वियतनाम, कंबोडिया और इंडोनेशिया भी शामिल थे। अब इनमें से आधे देशों में बौद्ध हैं यद्यपि इनकी पुण्यभू आज भी भारत ही है और आधे में मुसलमान हैं जहाँ कभी हिन्दू संस्कृति का वर्चस्व रहा है और उसके अवशेष आज भी वहां है। क्या यह शर्मनाक विडंबना नहीं है कि विश्व के पाँच सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले देशों में भारत और उसके दोनों हिस्से पाकिस्तान और बांग्लादेश है। और सबसे ज्यादा मुसलमान उस इंडोनेशिया में हैं जहाँ आज भी रामलीला मंचित की जाती है व मुस्लिम महिला-पुरुषों के नाम संस्कृतनिष्ठ हैं।
क्या यह सही और आवश्यक समय नहीं जब हम तपोनिष्ठ पंडित दीनदयाल उपाध्याय की चेतावनी और सरसंघचालक श्री मोहन भागवत की चिंता को विमर्श बनाकर जनजन तक पहुँचाएं और देश के नीति-नियंताओं को इस बात के लिए विवश करें कि समय रहते जनसंख्या असंतुलन ठीक करने के वैधानिक उपाय नहीं किए गए तो भारतीयता का भविष्य अंधकूप में समा जाएगा।