Silver Screen:सांप्रदायिक सद्भाव वाली फ़िल्में बनना बंद क्यों हो गई!

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Silver Screen:सांप्रदायिक सद्भाव वाली फ़िल्में बनना बंद क्यों हो गई!

हमारे देश में समय के बदलाव को फिल्मों के कथानक के जरिए व्यक्त करने की परंपरा बहुत पुरानी है। जब जैसा माहौल रहता है, तब वैसी फ़िल्में बनती हैं। युद्धकाल में हमारे फिल्मकारों ने जंग पर आधारित फ़िल्में बनाई, युवाओं का आक्रोश उभरा तो ऐसे विषय को चुना गया, कई फिल्मों में तो प्राकृतिक आपदा को भी फिल्म का विषय बनाया गया। यहां तक कि अंतरिक्ष में देश को सफलता मिली तो उसे भी विषय बनाया गया। लेकिन, अब हिंदू-मुस्लिम एकता वाले कथानकों पर फ़िल्में बनना बंद हो गई! जबकि, ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से कुछ साल पहले तक अलग-अलग कथानकों के जरिए सामाजिक सद्भाव बढ़ाने की कोशिश की गई थी। अब शायद इसलिए ऐसी फ़िल्में नहीं बनती कि वे माहौल में मेल नहीं खाती। फिल्मकार भी इसलिए कोशिश नहीं करते कि उसकी रचनात्मकता पर आंच न आए और न वो किसी आक्रोश का निशाना बने। आज यदि विवेक अग्निहोत्री की ‘द कश्मीर फाइल्स’ को धुंआधार सफलता मिलती, तो उसी तरह की फिल्मों की बाढ़ आ जाती। फिर ‘द केरल स्टोरी’ बनाई जाती है और उसके रियल स्टोरी होने के तर्क दिए जाते हैं। आशय है कि समाज के एक वर्ग को नायक और दूसरे को खलनायक की तरह पेश किया जाने लगा।
जबकि, हिंदी फिल्म का इतिहास सद्भाव वाली फिल्मों से भरा पड़ा है। 1941 में वी शांताराम ने ‘पड़ोसी’ नाम से दो दोस्तों की कहानी पर फिल्म बनाई थी। फिल्म की खासियत यह थी, कि इसमें पंडित का किरदार मजहर खान ने और मुस्लिम का गजानन जागीरदार ने निभाया था। फिल्म के अंत में एक ही मकसद के लिए दोनों साथ में जान दे देते हैं। इसके कुछ साल बाद पीएल संतोषी ने ‘हम एक है’ (1946) बनाई, जिसमें सामाजिक सौहार्द्र दिखाया गया था। उस समय समाज में सांप्रदायिक वैमनस्य जैसा कोई भाव नहीं था, तो ऐसी फिल्मों को मनोरंजन की ही तरह देखा जाता था। तब इन फिल्मों के डायलॉग भी ‘क्रांतिवीर’ की तरह जोशीले नहीं थे कि रोंगटे खड़े कर दें! यही वजह थी कि इस विषय के प्रचार की जरुरत नहीं पड़ी। यश चोपड़ा की फिल्म ‘धूल का फूल’ (1959) भी ऐसी ही फिल्म थी। एक मुस्लिम एक हिंदू बच्चे को जंगल में लावारिस देखता है, उसे पालता है। इस फिल्म का गीत ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा’ काफी चर्चित रहा। मनमोहन देसाई की ‘कुली’ (1983) में भी सद्भाव का संदेश था। आज के दौर में सांप्रदायिक सौहार्द्र और मानवता से जुड़ी फिल्मों में ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘मुल्क’ ही बनी।

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हिंदी सिनेमा में धर्म कभी विवाद का मसला नहीं रहा। इस विषय को कभी हवा भी नहीं दी गई, क्योंकि फिल्मों को मनोरंजन के नजरिए से देखा जाता रहा। लेकिन, अब फिल्मों में धर्म को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी जाने लगी। दर्शक भी तरह की विचारधारा में बंट गया। इसे पब्लिसिटी स्टंट भी बनाया जाने लगा, ताकि फिल्म को आसानी से एक वर्ग के पाले में डालकर उसे हिट करवाया जा सके। इसलिए कि फिल्मों का मूल स्वर भी अब सद्भाव से हटने लगा। फिर भी दर्शकों को सिनेमाघर तक लाने के लिए शाहरुख खान आज भी परदे पर राज और आर्यन ही हैं। आमिर खान को भी भुवन, रवि और लाल सिंह चड्ढा की तरह पसंद किया जाता है। सलमान खान को भी सबसे ज्यादा चुलबुल पांडे के किरदार में पसंद किया गया। अमिताभ बच्चन तो विजय के साथ इकबाल भी है और एंथोनी भी। इसी से समझा जा सकता है कि फिल्मों में हर रूप में सद्भाव जिंदा रहा, पर अब उसका लोप होता जा रहा है।

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देश की आजादी के बाद सभी का पहला मकसद बिखरे समाज से नए देश का निर्माण था। लोगों के पास सामाजिक और आर्थिक बराबरी, समृद्धि और खुशहाली के सपने थे। इसलिए साम्यवादी सपनों वाली फिल्में ज्यादा बनी। मदर इंडिया, दो बीघा जमीन और ‘नया दौर’ जैसी फिल्में सफल हुई और आज भी ये मील का पत्थर हैं। देश के विभाजन के बाद उस त्रासद सच्चाई को कभी फिल्म का विषय नहीं बनाया गया। ऐसी फ़िल्में बनी भी तो बरसों बाद। कोशिश यही थी कि विभाजन के दर्द को भूलकर सांप्रदायिक एकता को बढ़ाया जाए। कुंभ के मेले या ट्रेन में बिछुड़े दो भाईयों की कहानी जैसे कथानक रचे गए। ये दोनों भाई बिछड़कर अलग-अलग धर्मों वाले दो परिवारों में पलते हैं। दोनों अपने-अपने धर्मों का पालन करते हैं और जब मिलते हैं, तो भी खुद को सहारा देने वाले को नहीं भूलते। इसी दौर में गांधी विचारधारा को भी बढ़ाकर छुआछूत और जातिवाद को ख़त्म करने की पहल की गई। कई फिल्मों में गांव की जमींदारी प्रथा और साहूकारी का विरोध किया गया। नए रूप में आज भी ये सारी बुराइयां समाज में हैं, पर इन्हें फिल्म का विषय बनाने से बचा जाता है।

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देवानंद की फिल्म ‘हम दोनों’ (1961) में सद्भाव की अजब मिसाल पेश की गई थी। इसका एक गीत अल्लाह तेरो नाम-ईश्वर तेरो नाम आज भी सुनाई देता है। ‘शोले’ (1975) में छोटे से रोल में इमाम साहब सभी की तुलना में अधिक साहसी और प्रेरक व्यक्ति के रूप में दिखाए गए। गांव वाले जिस गब्बर सिंह के खिलाफ लड़ने में डरते हैं, वहीं इमाम साहब अपने बेटे को खोने के बाद भी दूसरों को ऐसे बलिदान के लिए तैयार करने का संदेश देते हैं। कच्चे धागे (1999) में हिंदू और मुस्लिम सौतेले भाई अपनी मां मरियम को बचाने के लिए एकजुट होते हैं। सिर्फ यही नहीं, सात हिंदुस्तानी (1969), क्रांति (1981), देश प्रेमी (1982), कर्मा (1986), चाइना गेट (1998), लगान (2001), ईमान धरम (1977) और इंसानियत (1994) जैसी फिल्मों का जिक्र किया जा सकता है। ऐसी कुछ फिल्मों के शीर्षक भी अलग संदेश देते थे। जैसे शंकर हुसैन (1977), पंडित और पठान (1977) और राम-रहीम (1930) इसके अलावा ‘आप के दीवाने’ (1980) और ‘पापी देवता’ (1995) दोनों राम और रहीम नाम के दो लोगों की दोस्ती पर केंद्रित रहे।
ऐसी भी फिल्में आई जिनमें मुस्लिम को हिंदू किरदार के हित में भले आदमी की भूमिका में दिखाया गया। अमिताभ की फिल्म ‘जंजीर’ (1973) में गुंडा शेरखान (प्राण) हिंदू पुलिस अधिकारी की मदद करता है। इकबाल (2005) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें मूक-बधिर नायक इकबाल क्रिकेट में कामयाब होना चाहता है, जिसका कोच हिंदू होता है। 2006 में आई फिल्म ‘डोर’ में हिंदू और मुस्लिम दो महिलाओं बीच संवेदनशील रिश्ता दिखाया गया। यह उन दुर्लभ फिल्मों में एक है, जिसमें केंद्रीय चरित्र कोई मर्द नहीं है। मुस्लिम महिला ही अपनी हिंदू सहेली की मदद करती है। यादों की बारात (1973) में शंकर का सबसे अच्छा दोस्त उस्मान है। ‘जुनून’ (1978) में मुस्लिम नायक ने 1857 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सेवा में अपने प्रेम के हित का त्याग किया था। ‘मुकद्दर का सिकंदर’ (1978) में अमिताभ को एक मुस्लिम महिला गोद लेती है।

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‘खुद्दार’ (1982) में एक मुसलमान दो भाईयों को आश्रय देता है। ‘विधाता’ (1982) में हिंदू नायक अपने मुस्लिम केयर टेकर की हत्या का बदला लेता है। विजेता (1982) में चार दोस्त वायु सेना अकादमी में सभी पायलट विभिन्न धर्मों से हैं। ‘प्यार की जीत’ (1987) में अन्य भ्रष्ट हिंदू डॉक्टरों के विपरीत, एक मुस्लिम डॉ रहमान को एक ईमानदार और दयालु व्यक्ति के रूप में दिखाया गया। ‘खुदा गवाह’ (1992) में अमिताभ बच्चन काबुल के एक पठान की भूमिका निभाते हुए एक हिंदू पुलिस अधिकारी से मदद लेते हैं। गुलाम-ए-मुस्तफा (1997) में एक हिंदू महिला और एक मुस्लिम पुरुष के बीच शुरुआती नफरत और कड़वाहट अंततः उनके आपसी विश्वास से दूर हो जाती है।

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ऐसी फिल्मों का जिक्र बहुत लंबा है। ‘हे राम’ (2000) में अमजद खान नाम का किरदार अंततः हिंदू नायक को गांधी की हत्या करने से रोकता है। ‘राख’ (2001) में आमिर खान को एक हिंदू पुलिस अधिकारी की उसकी प्रेमिका के बलात्कार का बदला लेने में मदद करता है। बस इतना सा ख्वाब है (2001) में नावेद अली हिंदू नायक सूरज चंद के जीवन को बदल देते हैं। ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ (2003) में जहीर की मौत कहानी में मोड़ लाती है।

यशराज की फिल्म ‘चक दे इंडिया’ (2007) में मुस्लिम हॉकी कोच महिला हॉकी टीम को जिताता है। ऐसी फिल्मों की संख्या सैकड़ों में हैं जिनमें हिंदू और मुसलमान दोस्त या मददगार के रूप में दिखाई देते हैं। अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘अंधा कानून’ में विजय और खान दोनों ही समाज में अपराधियों से पीड़ित हैं। ‘ए वेडनसडे’ (2008) में कई आतंकवादी मुस्लिम हैं। लेकिन, ईमानदार पुलिस वालों में से एक किरदार भी मुस्लिम है। तात्पर्य यह कि ऐसी फिल्मों को पसंद करने वालों के लिए उस तरह का माहौल भी जरूरी है, जो अभी दिखाई नहीं देता।P

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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