Story of Yudhishthira’s ascension: “युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण का रहस्य”

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Story of Yudhishthira’s ascension:”युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण का रहस्य”

यह सभी जानते हैं कि युधिष्ठिर ही स्वर्ग सशरीर गए थे और जो श्वान उनके साथ था वह साक्षात् धर्मराज थे जो युधिष्ठिर की परीक्षा लेने आए थे। यहां पर प्रश्न उठता है कि चारों भाई और द्रौपदी उनका साथ क्यों नहीं दे पाए ? उत्तर यही है कि संपूर्ण कोई नहीं था और द्रौपदी अग्नि का अंश , भीम व अर्जुन वायुदेव व इन्द्र के अंश कुंती के द्वारा तथा माद्री द्वारा नकुल ,सहदेव अश्विनी कुमारों के अंश थे। केवल युधिष्ठिर ही धर्म के आव्हान से कुंती द्वारा आए।
प्रसंग है कि महर्षि वेदव्यास की आज्ञानुसार पांचो पांडवों ने पश्चिम दिशा से उत्तर दिशा में आकर ह हिमालय का दर्शन किया और उसे लांघ कर आगे बढ़े तो उन्हें बालू का समुद्र दिखाई पड़ा जिसके बाद अलौकिक सुमेरू पर्वत का दर्शन किया। यह सब मानव शरीर से ही सबंधित है । साधना के मार्ग में बालू का समुद्र ,यानि कठिनाइयां और विघ्न -बाधाएं आती हैं ,जिन्हें पार करना पड़ता है तब जाकर सुमेरू पर्वत का दर्शन होता है। जब जीव आत्मज्ञान में आकर सब प्रकार के शरीर त्याग देता है तो ये साकार ,निराकार ,ब्रह्म ,माया व तीन गुण समाप्त हो जाते हैं और जीव आत्मा का भेद जानता है तो परमात्मा से मिल जाता है ।प्राण आत्मा से उत्पन्न होते हैं जो वायु का रूप हैं और जब वह आकाश में चलती है तो वायु कहलाती है तथा शरीर के दस भागों में कार्य करती है तो प्राण कहलाती है । प्राण को रूद्र व ब्रह्म भी कहते हैं। जब जीवात्मा शरीर में प्रवेश करता है तो प्राण भी उसके साथ प्रवेश कर जाते हैं ,जिन्हें पंच प्राण उनकी गतिविधियों के अनुसार कहा जाता है ।आत्मा में भी प्राण व्याप्त हैं ।
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अब सुमेरू पर्वत का अर्थ भी समझें ,क्योंकि सात चक्र रीढ़ की हड्डी के सीध में होते हैं रीढ की हड्डी सुमेरू पर्वत है जिसमें से ऊर्जा साधना से ऊपर की ओर बढ़ती है। सात चक्रों को लांघ कर ऊपर ब्रह्म रंध्र की ओर तब बढ़ती है जब व्यक्ति पूर्णरूपेण मोह -माया से दूर होकर निर्लिप्त हो जाता है व कोई कामना शेष नहीं रहती और यह गति सन्यांसियों को मिलती है । यहां से प्राण निकलने के बाद व्यक्ति हर कामना पूरी कर सकता है जैसे युधिष्ठिर ने सशरीर स्वर्ग जाने की कामना करी और पूरी हुई । युधिष्ठिर धर्म का अवतार थे और उन्हें जो चाहिए वह प्राप्त हो सकता था। उनको पुन:धरती पर आकर कुछ विशेष कार्य करने थे इसलिए मोक्ष की कामना नहीं की। धर्म की रक्षा
के लिए बारंबार आना आवश्यक है।
रीढ़ की हड्डी यानि मेरूदंड तंत्रिका तंत्र का का प्रमुख हिस्सा है और इसी में प्रमुख नाड़ियां होती हैं व दक्षिण भाग में मूलाधार तथा उत्तर भाग में अन्य चक्र व सहस्त्रार इसी में होते हैं। पांडवों ने उत्तर दिशा में आकर हिमालय का दर्शन किया यानि मुक्ति के आधार को पाया ।
युधिष्ठिर ही क्यों लक्ष्य तक पहुंचे यह उन्होंने स्वयं भीमसेन को बताया जब एक -एक कर के पांडव गिरते गए ।द्रौपदी के मन में अर्जुन के प्रति विशेष लगाव या आसक्ति होने के कारण यानि मोह मे पड़ने के कारण सबसे पहले गिरीं। कुछ समय बाद सहदेव गिरे तो युधिष्ठिर ने बताया कि वह अपने जैसा विद्वान किसी को नहीं समझता था इसलिए इसे गिरना पड़ा है। नकुल को अपने रूप का अभिमान था इसलिए गिरा ।
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अर्जुन को अपनी वीरता का अभिमान था और धनुर्धरों का अपमान किया था इसलिए गिरा। अंत में भीमसेम भी गिरे क्योंकि वे भोजन बहुत करते थे और अपने बल व शक्ति की डींगे मारते रहते थे। यहां तात्पर्य यह कि जरा सा भी काम ,क्रोध ,मद ,लोभ मोह रूपी विकार मन में हों तो मानव का पतन होता है और ऊर्जा या प्राण सहस्त्रार तक नहीं पहुंच पाते और मुक्ति या मोक्ष नहीं मिल सकता। चार पांडवों ने अपने कर्मानुसार पहले थोड़ा सा नर्क भोगा फिर स्वर्ग में आकर पुण्यों का फल भोगा। मुक्ति नहीं मिल पाई।
यही सार है कि सब मानव सब कुछ त्याग कर साधना व तप करे तो ही मोक्ष का अधिकारी होता है ,वर्ना कर्मानुसार विभिन्न योनियों में भटकना पड़ता है ।
नीति अग्निहोत्री
इंदौर (म.प्र.)