आजादी के 77 वर्ष बाद, कितने विकसित,कितने खुशहाल हुए हम

आजादी के 77 वर्ष बाद, कितने विकसित,कितने खुशहाल हुए हम

*प्रसंग वश में वरिष्ठ लेखक, पत्रकार चंद्रकांत अग्रवाल का कालम*

कुछ सालों से भारतीय लोकतंत्र का यह सबसे बड़ा पर्व भी हाईटेक होकर वर्चुअल रूप में काफी हद तक इंटरनेट की बेड़ियों में जकड़ता जा रहा था शायद तभी केंद्र और राज्य सरकारों को,प्रधानमंत्री मोदी को घर घर तिरंगा जैसा आह्वान करना पड़ा और प्रशासन से इसे मोटिवेट करवाना पड़ा। हालांकि सरकारी कार्यक्रम भी अब रस्म अदायगी जैसे बनते जा रहे हैं। अब यह तो हम सब जानते हैं कि विगत कुछ दशकों से लगातार सरकारें लाखों करोड़ रुपयों की कई बड़ी बड़ी जनहितैषी योजनाओं को देश व प्रदेशों में लागू करती रहीं हैं पर उनका कितना लाभ कितने लोगों को अब तक मिला यह भी हम सब जानते ही हैं। लोकतंत्र के नाम पर देश भर में राजनैतिक व प्रशासनिक भृष्टाचार, राष्ट्रीय चरित्र में आई भारी गिरावट व राजनीति को एक लाभप्रद व्यापार बना देने का शर्मनाक तमाशा सब देख रहे हैं। यह परिदृश्य एक लोकतांत्रिक देश की दृष्टि से उत्तरोत्तर अधिकाधिक भयावह व शर्मनाक होता जा रहा है। ऐसे हालात में हमारे भारतीय लोकतंत्र की आजादी की परिभाषा आज के दिन कोई कैसे करे? अलबता इस कैसे करे के सवाल पर 15 अगस्त 2020 को आत्मचिंतन जरूर कर सकता है हर सच्चा भारतीय। कर सकता है नहीं, उसे करना ही चाहिए। इसी बिन्दु से आज इस कॉलम की शुरूआत करना चाहता हूँ। आजादी के बीते 77 वर्ष बाद भी आज आजादी ने देश में हर वर्ग को खुशहाली नहीं दी, यह तो एक सर्वमान्य तथ्य ही हैं। पर जिस वर्ग को आजादी ने समृद्ध बनाया, उनके पास आज इस तरह की बातों के लिए समय नहीं है और उत्सव की उनकी परिभाषा ही बदल गई है। हालांकि इसके कई अपवाद भी हैं। दूसरे एक अन्य बड़े वर्ग के मन में स्वतंत्रता समारोह मनाने की गहरी इच्छा है, परंतु साधन नहीं हैं।

IMG 20240815 WA0007

आज के दिन वह अपने अभावों और अवसरों की कमी पर रोएगा नहीं, शायद इसी तरह उत्सव मनाने के लिए वह बाध्य है आज। इसके अतिरिक्त एक मध्यम वर्ग भी है, जिसके पास अगर उत्सव मनाने की वजह नहीं है तो गमजदा होने का भी कारण नहीं है। इस मध्यम वर्ग की चिंताएं अलग किस्म की हैं। वह अब तक अंग्रेजों के जमाने की विक्टोरियन छद्म नैतिकता से मुक्त नहीं है। वह दो-ढाई सौ वर्ष बाद भी आध्यात्मिकता को अफीम की तरह चाटता है। कुंठाओं को पाल-पोसकर विकराल बनाने में उसे महारत हासिल है। इस वर्ग की बनावट रशियन गुडिय़ा की तरह है- गुडिय़ा भीतर गुडिय़ा है। इसका एक हिस्सा भ्रष्टाचार और उसके विरोध में आयोजित किसी आंदोलन से कोई परहेज नहीं करता। वहीं पाखंड उसका मुखौटा नहीं, उसकी आत्मा है, उसका केंचुल नहीं, उसका जहर है। पूरे देश की आबादी का अच्छा-खासा प्रतिशत जनजातियों का है, जिससे अब तक भी मीडिया तक भी काफी अपरिचित है। वहां आज भी खतरों की सूचना नगाड़े पीटकर दी जाती है। विकास के नाम पर अनियोजित कार्य किए जाते हैं और हम जंगल खा रहे हैं, हम नदियों की रेत भी खा रहें हैं,अत: इस वर्ग का जीवन आधार सिकुड़ता जा रहा है। इस वर्ग को मालूम भी नहीं होगा कि स्वतंत्रता दिवस आकर चला गया। सूखी टहनियां सर्वत्र फहरा रही हैं- यही उनके लिए झंडा फहराना है। कभी-कभी कोई भूला -भटका मंत्री यहां आता है। धूमिल कहते हैं-कुछ पौधे लगाए गए और कहा हो गया वन महोत्सव? हमारे सारे कार्यक्रम प्रायः राजनीतिक व प्रशासनिक इच्छाशक्ति व जनचेतना के अभाव में व हमारी सुविधाभोगिता के चलते इसी तरह रस्म अदायगी बनकर रह जाते हैं। आज चीन में भी विरोध की लहर हैं, परंतु वह दबाई जा रही है। वहां स्वतंत्र मीडिया नहीं है, पंरतु दमन-चक्र जारी है। जनता का ध्यान बंटाने वह भारत की सीमाओं पर अपनी नापाक दृष्टि ही नहीं डाल रहा वरन विस्तारवादी हरकतें कर रहा है । हमारे पारम्परिक दुश्मन पड़ोस पाकिस्तान और अब बांग्लादेश में भी विघटन की प्रक्रिया जारी है। उन्होंने विभाजन को विजय की तरह माना था, जबकि हिंदुस्तान में उसे एक दुर्घटना माना गया और गांधीजी ने तो उसे आध्यात्मिक त्रासदी कहा था। पाकिस्तान के स्कूलों में औरंगजेब को नायक की तरह पढ़ाया जाता है व हमारे स्कूलों में चंद्रगुप्त नायक है। वहां अदब की कक्षा इकबाल से शुरू होती है और शिक्षक गालिब को पढ़ाने में डरता है। दोनों ही देशों में पूर्वाग्रह, अहंकार और तर्कहीनता से रचा सच्चा- झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है। पाकिस्तान धर्म निरपेक्षता के अभाव में खंड- खंड बिखर रहा है और हमारे यहां भी विगत एक दशक से ऐसे राजनीतिक प्रयास हो रहे हैं कि धर्म निरपेक्षता को चोट पहुंचाई जा सके। पाक में मजहब का काढ़ा पिलाया गया, यहां भी राजनीतिक रूप से उसी काढ़े को कई अन्य रूपों में बांटा जा रहा है। हमने गणतंत्र व्यवस्था को,लोकतंत्र को जो एक समूचे वाक्य की तरह थी, अब तोड़कर शब्दों में बांट दिया है और संदर्भहीन शब्द प्राणहीन होते हैं। वर्तमान समय रायपुर के लेखक संजीव बख्शी के उपन्यास भूलन कांदा की याद दिलाता है। छत्तीसगढ़ में एक किंवंदती है कि मनुष्य का पैर भूलन कांदा पर पड़ता है तो वह स्मृति खोकर निश्चेष्ट खड़ा रह जाता है और उसे चहुं ओर घना मार्ग विहीन जंगल दिखाई देता है। ठीक इसी तरह की कथा स्कॉटलैंड में भी है। कहते हैं कि ऐसी दशा में किसी अन्य व्यक्ति के स्पर्श से भूलन कांदा के प्रभाव से व्यक्ति मुक्त होता है। इस समय भारत की राजनीति भी भूलन कांदा के प्रभाव में लगती है। अपनी सांस्कृतिक विरासत भूल चुका है जो अब कठोर यथार्थ के स्पर्श से ही मुक्त हो सकती है। स्वामी विवेकानंद की ही तरह, बांग्ला के महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की चेतना भी विकसित थी और वह लोगों की मानसिक गुलामी से मुक्ति की महान आकांक्षा रखते थे। स्वतंत्रता की कामना में वह समाज का जो खाका खींचते हैं, वह दुनिया भर के महानतम चिंतकों के लिए कमोबेश एक-सा ही रहा है। गीतांजलि में बहुत खरे-खरे शब्दों में उन्होंने कहा है:

चित्त जहां भयशून्य हो, ऊंचा रहे भाल

हो जहां ज्ञान स्वतंत्र

और दुनिया बंटी न हो छोटी-छोटी दीवारों में

जहां हर शब्द सच की गहराइयों से जन्मे

उत्साह हो सटीक सही सब-कुछ करने का हममें

जहां न हो रूढिय़ों की सुनसान मरूभूमि

सूखे न कभी जिसमें स्पष्ट विचार की धारा

मस्तिष्क के आयाम खुलते हैं जहां विचारों और कर्मों से

और ऐसे ही स्वर्ग में जागे अपना देश।

IMG 20240815 WA0001

इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता के बाद देश की आत्मा हमारे गांवों के समग्र विकास में पूरी राजनीतिक ताकत लगा देने व आत्मनिर्भरता को महत्वपूर्ण माना और चारित्रिक दुर्बलताओं को खत्म करने के लिए सत्य और अहिंसा को सामाजिक उत्थान के औजार के रूप में विकसित किया। सच भी है-जो आत्मनिर्भर और सद्चरित्र होगा, वही अपनी स्वतंत्रता की रक्षा भी कर सकेगा। जरूरतों के वक्त दूसरों पर आश्रित व्यक्ति कभी भी आजाद नहीं कहला सकता। गांधी के विचार उनके क्रियाकलापों में भी दिखते थे। चरखा कातने का सांकेतिक मतलब आत्मनिर्भर बनना ही था। कुल मिलाकर इस देश में ऐसी आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी पीढ़ी का जन्म हुआ, जिसने देश को सन 47 में विदेशी ताकतों के नियंत्रण से मुक्त कराया। आज प्रधानमंत्री ने उसी आह्वान को अपनी इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति के साथ पुनः दोहराया है लाल किले की प्राचीर से।आजादी के बाद, देश के नवनिर्माण का दौर चला, पर राह में फिर कहीं ज्ञान-परंपरा का सोता सूखने लगा। समाज सामंती बंदिशों से निकल नहीं पाया और धीरे-धीरे उपभोक्ता संस्कृति के लपेटे में आ गया। यही कारण है कि राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने के बावजूद हम वह भारत नहीं बना सके, जिसका हमने स्वप्न देखा था। चारों तरफ भ्रष्टाचार का नंगा नाच है और नैतिकताएं किस्से- कहानियों की बातें हो गई हैं। असहमतियों के स्वर दबाए जा रहे हैं। अगर हम फिर नए सपनों का भारत बनाना चाहते हैं तो आज फिर से हमें ज्ञान की ऐसी परंपरा का विकास करना होगा, जिसकी जड़ें अपनी धरती में हों, जो हमारे विचार, व्यवहार और समस्त जीवन में लोकतांत्रिक चेतना को विकसित करे और ऐसा माहौल बनाए हर तरफ, जिससे सच्ची मानवीय स्वतंत्रता की आकांक्षाएं फिर से पनप सकें। हम भारत वासी मिलकर पूरी दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र बनाते हैं, फिर भी कितनी अजीब बात है कि भारत का आम वोटर देश की राजनीति से विमुख रहता है।

IMG 20240815 WA0009

राजनीति उसे गलीज शब्द लगता है और इसलिए वह देश की राजनीति से विमुख रहता है। वह शुतुरमुर्ग बन नेताओं को गाली देता है, मगर वोट देते समय विवेक की जगह पार्टी, जाति, वर्ग और स्वार्थ से प्रभावित हो जाता है। चरित्रवान व सेवाभावी लोग राजनीति को बहुत गंदा बताकर अपने कर्तव्य को पूर्ण कर लेते हैं। एक अच्छे उम्मीदवार ,एक अच्छे पार्टी कार्यकर्ता,या एक जागरूक वोटर के रूप में उनको देश प्रेम व देशभक्ति के लिए अपनी कोई भूमिका दिखाई ही नहीं देती। शिक्षित युवाओं की बात करूं तो कितने हैं, जो वोट देना अपना नैतिक कर्त्तव्य समझते हैं। विगत 77 सालों मेें व आज भी ऐसी कौन सी पार्टी हेै देश में जो सिर्फ चरित्रवान व कर्मयोगी उम्मीदवार देने का ही दावा कर सके,भले ही वह जीते या न जीते। वहीं एक प्रजातंत्र तब सफल माना जाएगा जब हर नागरिक अपने विवेक से वोट दे। लोगों के पास सुदृढ़ विचारधारा हो, विवेक हो तभी तो वह सत्ता को, देश को बेहतर बनाने के लिए चुनौती दे सकते हैं। साफ महसूस कर सकता हूं कि हमारी राजनीति अब नैतिकता और समाजोन्मुख नहीं रह गई है। यह वोट-बैंक और जाति-वर्ग के बल पर चलती है। विचारधाराएं समाप्त हो चुकी हैं। हमारे कई राजनेता परहित नहीं, स्वहित हेतु राजनीति में आते हैं। युवाओं की दखलंदाजी राजनीति में बस उतनी ही है, जितनी हो सकती थी, यानी कुछ युवा नेताओं को यह सौभाग्य मिलता है, जिनके माता-पिता राजनीति में हों। देश को लेकर मुझे प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस की उक्ति याद आती है-एक सुचारू रूप से शासित देश में गरीबी पर हमें शर्म करनी चाहिए और विषम रूप से शासित देश में अमीर होने पर शर्म करनी चाहिए। यूरोप के अधिकांश देशों ने ग्लोबल होने के साथ-साथ संस्कृति और प्रकृति दोनों को सहेजा है। हालांकि इस संक्रमण काल में भी देश भर में हर जगह ऐसे कई नए देश प्रेमी व कर्मयोगी नायक सामने आए हैं जिन्होंने भारतीय अस्मिता को गौरवान्वित किया वहीं कई नए खलनायक भी बेनकाब हुए हैं। मैं ऐसे ही भारत का सपना देखता हूं जो संस्कृति-आधुनिकता का संगम हो। ताकि भारत वो भारत बन जाए, जहां कोई रात को भूखा न सोए व इटारसी जैसे देश के तीसरे सबसे बड़े जंक्शन पर किसी रोटी बैंक को खोलने की जरूरत न पड़े, जहां गरीबों के नाम पर बनाया गया वातानुकूलित सर्वसुविधा युक्त रैनबसेरा बेघर व बेसहारा लोगों को आश्रय देने में नाकारा साबित न हो, जहां जननायकों व सरकारों के होते हुए भी किसी सोनू सूद को अपनी दम पर हजारों मज़दूरों को उनके घर भेजने के लिए आगे न आना पड़े, जहां पर हर बच्चा काम करने की बजाय पढ़ सके, जहां पर हर इंसान सुरक्षित महसूस कर सके। सपनों के भारत का बखान कर लेने से तो ऐसा देश नहीं बनेगा, हमें अपने हाथों से इसे वह रूप देना है। अब समय है कि हम अपने अधिकारों की मांग की जगह, एक सच्चे नागरिक के कर्तव्य भी निभाएं। भारत को जागरूक नागरिकों की एक ऐसी बड़ी संख्या में जरूरत है जो अपने कर्तव्यों को समझते हों तथा दूसरों को उनके नागरिक कर्तव्य, समझाने का बीड़ा उठाने की भौतिक सोच रखते हों। हमें बहुत गहरी संस्कृति और मानवता की जड़ें मिली हैं, इन्हें हम सींचेंगे तो विकास के साथ खुशहाली की भी नई शाखाएं निकलेंगी। भारत का आदर्श और स्वप्रिल स्वरूप हमें ही सृजित करना है। ऐसे में अल्बर्ट आइंस्टाइन की ये पंक्तियां मुझे हमेशा आदर्श को परिभाषित करने की प्रेरणा देती हैं- आदर्श सपना होता है, इसे सत्य में बदलने के लिए कर्तव्य व कर्म जरूरी है। जो आदर्श हमेशा मेरे सामने रहे हैं और जिन्होंने मुझे जीवन के आनंद से लबरेज किया हैं, वे हैं-अच्छाई- खुशहाली,सुंदरता और सत्य। आजाद होने और आदर्शवादी खुशहाल होने का फर्क हम अच्छी तरह समझ चुके हैं।

IMG 20240815 WA0008

इसलिए आजादी का जश्र मनाते हुए हमें यह सच सदैव याद रखना चाहिए कि हमें आजाद हुए भले हीं 77 साल हों गयें हों पर देश प्रेम, देश भक्ति , भारतीय संस्कृति व उसके संस्कारों, ज्ञान, चरित्र, नैतिकता, मानवता, पारदर्शिता, संवेदनशीलता, आदि के रंगों से बनी आदर्शवादी सार्थक खुशहाली अब तक नहीं मिल पाई हैं। आजादी प्राप्त करने के 77 वर्ष बाद भी यह हमारे लिए उतना ही शर्मनाक हैं,जितना गर्व हम अपनी 77 साल पुरानी आजादी का करते हैं। अत: हमें अब तो देश हित में,आम जनता के हित में,पूरी ईमानदारी से,अपनी पूरी ताकत से मुखर होना ही पड़ेगा,कर्मपथ पर गतिमान भी होना ही पड़ेगा, कुछ इस तरह,जिस तरह कि, कहीं किसी कविता से प्रेरणा लेकर रची गई मेरी इस कविता की इन पंक्तियों में रेखांकित किया गया हैं-

IMG 20240815 WA0009

सुविधाभोगी तटस्थ मौन स्वार्थलोलुप चुप्पी भय या असुरक्षा ग्रस्त खामोशी चुप्पी सबसे बड़ा खतरा है,

हर जिंदा आदमी के लिए, नहीं जानते लोग जीवन मंच के नेपथ्य का यह सत्य।

तुम नहीं जानते कि तुम्हारी यह चुप्पी कब तुम्हारे खिलाफ ही हो जायेगी खड़ी,

और सर्वाधिक सुनाई देगी।

तुम देखते हो कोई गलत बात,

और रहते हो खामोश।

वे भी यही चाहते हैं,

इसलिए तारीफ करते हैं तुम्हारी चुप्पी की,

उसे देते हैं तुम्हारी मर्यादा, शांतिप्रियता,तुम्हारे अनुशासन का नाम। पर यह भी सच है कि वे आवाज से बेतरह डरते हैं।

इसलिए बोलो-अपने

हृदय की, आत्मा की आवाज से,

अपने रक्त में संवाहित ऊर्जा के ओज से, अपने मन मष्तिष्क के शुभ संकल्पों की इच्छाशक्ति से, अपनी आत्मा के आत्म बल से।                    IMG 20240815 WA0003

आकाश की असमर्थ

खामोशी को चीरते हुए,

भले ही कानों पर पहरे हों,

जुबानों पर ताले हों,

बंधी हो चाहे आंखों पर पट्टी भाषाएं बदल दी गयी हों चाहे रातों रात, भाव बदल गए हों बदल गया हो चाहे पूरा परिवेश सत्य,राष्ट्र प्रेम,देश भक्ति सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय को संवाहित करती है गर आवाज तुम्हारी

आवाज है गर सचमुच जिंदा आदमी की

तो वह दब नहीं सकती, वह सतत, शाश्वत, सर्वदा है आजाद।

Author profile
WhatsApp Image 2023 01 04 at 8.25.11 PM
चंद्रकांत अग्रवाल

परिचय- वरिष्ठ कवि लेखक व पत्रकार। विगत 40 सालों से साहित्य व पत्रकारिता हेतु समर्पित लेखन। अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों , व्याख्यान मालाओं,मोटीवेशन लेक्चर्स में देश भर में आमंत्रित व सम्मानित। पद्य व गद्य की हजारों रचनाएं , कई कालम,कई राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं अखबारों में प्रकाशित। कोविड काल में दो साल तक कई प्रमुख राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के फेस बुक साहित्य ग्रुप्स व पेज पर कोरोना से शारीरिक व मानसिक रूप से बचाव हेतु , सोशल डिस्टेंस बढ़ाकर , इमोशनल डिस्टेंस कम करने, कोविड से संक्रमित होने पर अपना आत्म बल बढ़ाये रखने व अकेलेपन का सदुपयोग सत्संग, अध्यात्म संग करके दूर करने, अपने परिवार, समाज, प्रदेश , देश व दुनिया भर के प्रति जहां जिस भूमिका में हैं हर सम्भव योगदान देने आदि के लिए जनजागरण हेतु भारतीय संस्कृति के आराध्यों के जीवन आदर्शों पर , सार्थक मानव जीवन हेतु व देश के उत्सवों के आध्यात्मिक मर्म पर केंद्रित कई सफल काव्य व व्याख्यान लाइव किये, जिनको विश्व भर में लाखों साहित्य प्रेमियों ने सुना व मुक्त कंठ से सराहा। कई प्रेरणाप्रद आलेख भी अपने कई अलग अलग कालम में विभिन्न राष्ट्रीय अखबारों में लिखे , 4 अखबारों का संपादन करते हुए कोरोना के समसामयिक व आध्यात्मिक, वैचारिक विषयों पर भी कई नए कॉलम का लेखन। जो विभिन्न अखबारों व पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए । कई प्रदेश स्तरीय जिला व नगर स्तरीय सामाजिक, साहित्यिक संस्थाओं में प्रमुख पदों पर। प्रोफेशन - स्वयं का शेयर मार्केट ब्रोकिंग टर्मिनल , बिजनेस एसोसिएट अरिहंत केपिटल मार्केट लिमिटेड। सम्प्रति,इटारसी,जिला,नर्मदापुरम, मध्यप्रदेश। संपर्क मो न 9425668826