Silver Screen:ऐसी फ़िल्में जो सबसे अलग रही, पर वैसा कथानक फिर नहीं लिखा गया
हिंदी फिल्मों का इतिहास सौ साल से ज्यादा पुराना है। हर साल सैकड़ों फ़िल्में बनती है। कुछ दर्शकों को पसंद आती है, कुछ नहीं आती। लेकिन, कुछ ऐसी भी फ़िल्में बनती हैं, जो इतिहास बन जाती हैं। क्योंकि, उनके जैसी फ़िल्में फिर कभी नहीं बनती। मील का पत्थर बनी यही फ़िल्में पीढ़ी दर पीढ़ी दर्शकों को याद रहती है। इसलिए कि इन फिल्मों के कथानक, कलाकारों की अदाकारी और इनका गीत-संगीत सबसे अनोखा होता है। मुगले आजम, प्यासा, पाकीजा, अंकुश, वीर-जारा, हाथी मेरे साथी, जय संतोषी मां, एक दूजे के लिए और ‘उत्सव’ जैसी कई फ़िल्में हैं जो अपने समय काल में बेहद पसंद की गई। इन फिल्मों में कुछ ऐसा ख़ास था, जो किसी और फिल्म में दर्शकों को देखने को नहीं मिला। दर्शकों को पसंद आने वाली ऐसी फिल्मों में संख्या सैकड़ों में होंगी। फिर भी फिल्म इतिहास के पन्नों पर कुछ फ़िल्में ही अमिट है।
1957 में गुरुदत्त निर्देशित, निर्मित और अभिनीत ‘प्यासा’ ऐसी ही फिल्म है। यह संघर्षरत कवि विजय की कहानी है, जो स्वतंत्र भारत में अपनी कविताओं को प्रकाशित करना चाहता है। फिल्म का संगीत एसडी बर्मन ने दिया था। ‘प्यासा’ को देश तथा विश्व की सर्वकालिक श्रेष्ठ फिल्मों में गिना जाता है। समाज के छल-कपट से आक्रोशित नायक का मौलिक अस्तित्व को अस्वीकार करने की हताशा को गुरुदत्त ने बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया था। विश्व प्रसिद्ध पत्रिका ‘टाइम’ की वेबसाइट ने 10 सर्वश्रेष्ठ रोमांटिक फिल्मों में ‘प्यासा’ को शीर्ष पांच फिल्मों में स्थान दिया है। इसी तरह विजय आनंद ने 1965 में फिल्म ‘गाइड’ बनाई थी। यह फिल्म देव आनंद और वहीदा रहमान की सर्वश्रेष्ठ परफॉर्मेंस में से एक थी। यह फिल्म लेखक आरके नारायण के अंग्रेजी उपन्यास ‘द गाइड’ का रूपांतरण थी। यह देव आनंद की पहली कलर फिल्म थी और इसे अंग्रेजी में बनाया गया था। जब ये फिल्म बनाई गई, उस दौर में महिलाओं को आजादी नहीं थी। ये भी अपने कथानक के कारण आज भी याद है।
आजादी के बाद किसानों की समस्याओं से जुड़ी कई फिल्में बनीं। लेकिन, 1953 में आई बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ ने देश के संक्रमणकालीन द्वंद्वों को उजागर किया। इस फिल्म ने आजादी के बाद बदलते राजनीतिक-आर्थिक दौर को सामने रखा है और स्पष्ट किया कि भविष्य में औद्योगिकीकरण कृषि भारत से कैसी कीमत वसूलेगा! किसानों का अपनी जमीन से बेदखल होना पड़ेगा, गाँवों खाली हो जाएंगे, भूमिहीन किसानों को विस्थापन की पीड़ा भोगना पड़ेगी और भू-मालिक मजदूर बनने को मजबूर हो जाएगा। यह आज सच भी है। महबूब खान ने ‘औरत’ (1940) और उसके बाद ‘मदर इंडिया’ (1957) बनाकर फिल्मों के जरिए कृषि और समाज की महाजनी अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े अंतर्विरोधों को दर्शकों के सामने रखा। इस सच से भी समाज का सरोकार करवाया कि कृषि समाज में औरत की हैसियत क्या है? महबूब खान ने भारतीय स्त्री के यथार्थ को परदे पर दिखाकर समाज को घुटनों पर झुकने पर मजबूर भी कर दिया था।
समाज के अंतर्विरोधों को ख्वाजा अहमद अब्बास ने भी ‘शहर और सपना’ (1963) में सबके सामने रखा था। शहर की संस्कृति कितनी संवेदनाशून्य होती है और कैसे नारकीय जीवन को जन्म देती है। इस थीम को बाद में शहरीकरण की विद्रूपताओं के साथ श्री 420, बूट पॉलिश, जागते रहो और ‘फिर सुबह होगी’ में भी दिखाया गया। दर्द भरी फिल्मों में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘आनंद’ थी, जिसे रिलीज हुए 50 साल हो गए। लेकिन, आज भी लोगों के दिलो-दिमाग से इस फिल्म का खुमार नहीं उतरा है। ऋषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म को 1971 में रिलीज किया गया था। फिल्म में राजेश खन्ना ने आनंद सहगल का किरदार निभाया, जो कैंसर से पीड़ित एक खुशमिजाज व्यक्ति है। अमिताभ बच्चन ने उनके दोस्त डॉक्टर भास्कर बनर्जी का रोल किया था। इस फिल्म से अमिताभ बच्चन को संजीदा अभिनेता के रूप में पहचान मिलना शुरू हुई।
फिल्मों में प्रेम एक सर्वकालिक विषय रहा है। 1975 में आई प्रेम पटकथा पर बनी फिल्म ‘जूली’ को अपने समयकाल में बहुत ज्यादा पसंद करने के साथ आलोचना भी झेलना पड़ी थी। केएस सेतुमाधवन की निर्देशित और चक्रपाणि द्वारा लिखी कहानी पर बनाई इस फिल्म में लक्ष्मी ने शीर्षक भूमिका निभाई थी। इसमें विक्रम, नादिरा, रीटा भादुड़ी, ओम प्रकाश, उत्पल दत्त और श्रीदेवी (उनकी पहली महत्वपूर्ण हिंदी फिल्म) भी हैं। इसका संगीत भी ब्लॉकबस्टर रहा था। प्रेम कथाओं के इस दौर में 1993 में यश चोपड़ा की फिल्म ‘डर’ आई। यह संभवतः फिल्म इतिहास की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसके दर्शकों ने नायक से ज्यादा खलनायक को पसंद किया। दर्शकों की आंखे खलनायक की मौत पर नम भी हुई। यह फिल्म 30 साल बाद भी ट्रायंगल लव स्टोरी के रूप में दर्शकों को याद है। इसमें शाहरुख़ खान के साथ जूही चावला और सनी देओल की मुख्य भूमिका थी। ‘डर’ के बाद सनी ने न तो यशराज के साथ कोई फिल्म की और न शाहरुख़ के साथ।
इससे पहले 1973 में आई ‘बॉबी’ भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसने प्रेम के बंधन की गांठों को खोल दिया था। राज कपूर की जिन फिल्मों को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा उनमें ‘बॉबी’ भी है। ये ऐसी टीनएज प्रेम कहानी है, जो अलग-अलग वर्ग से थे। वास्तव में तो ये युवाओं के लिए हवा के झोंके की तरह की फिल्म थी। अलग तरह के प्रेम की 1981 में आई अमिताभ बच्चन, रेखा और जया बच्चन की फिल्म ‘सिलसिला’ ऐसी फिल्म थी, जिसे अमिताभ-रेखा की जिंदगी से जोड़कर देखा जाता रहा। उस दौर में विवाहेत्तर रिश्तों जैसे विषय के कारण इस फिल्म की कहानी को आधुनिक भी समझा गया। फिल्म तो हिट नहीं हुई, पर फिल्म के गीत-संगीत को पसंद किया गया। कुछ फ़िल्में अप्रत्याशित रूप से सफल होती है। उनसे जितनी उम्मीद नहीं होती वे उससे ज्यादा छलांग मार देती है। ऐसी फिल्मों में निर्देशक अनिल शर्मा की फिल्म ‘ग़दर’ और इसके सीक्वल ‘ग़दर-2’ को रखा जा सकता है, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिए। दोनों फिल्मों में अपने एक्शन और आक्रोश से सनी देओल दर्शकों के दिलों पर छा गए थे। पहले भाग के 22 साल बाद ‘ग़दर 2’ आई। दोनों फिल्मों में निशाने पर पाकिस्तान रहा।
यश चोपड़ा की की 1975 में आई फिल्म ‘दीवार’ को अमिताभ बच्चन की कालजयी फिल्मों में गिना जाता है। ‘दीवार’ फिल्म का नायक उस दौर के सारे नायकीय गुणों से परे था। जबकि, फिल्म में नायक के नास्तिक होने के बावजूद उसका कुली के बिल्ला नंबर 786 के प्रति उसकी आस्था रहती है। फिल्म के अंत में जब छोटा भाई उसे गोली मारता है, तो यही बिल्ला उसके हाथ से छिटक जाता है। फिल्म का बेहद सशक्त सीन था अमिताभ बच्चन की बाँह पर ‘मेरा बाप चोर है’ लिखना। फिल्म के क्लाइमेक्स में निरूपा रॉय की छवि ‘मदर इंडिया’ की नरगिस जैसी माँ की भूमिका से मिलती-जुलती है! हिंदी फिल्म इतिहास में जिन फिल्मों को रिकॉर्ड तरह माना जाता था, उनमें 1975 में आई ‘शोले’ का नाम सबसे आगे है। ये एक एक्शन फिल्म है। सलीम-जावेद की लिखी इस फिल्म का निर्माण जीपी सिप्पी ने और निर्देशन रमेश सिप्पी ने किया है। इस फिल्म की कहानी जय और वीरू नाम के दो बदमाशों पर केंद्रित है, जिन्हें डाकू गब्बर सिंह से बदला लेने के लिए पूर्व पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह अपने गाँव लाता है। जया भादुरी और हेमा मालिनी ने भी फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई। शोले को भारतीय सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना जाता है।
इससे पहले 1973 में आई फिल्म जंजीर’ ने अमिताभ बच्चन को एक्टर के रूप में स्थापित किया। इस फिल्म ने ऐसा गुस्सैल नायक दिया, जिसका जलवा आज आधी शताब्दी बाद भी बरक़रार है। इस फिल्म की रिलीज को 50 साल हो गए। वे लोकप्रियता के उस शिखर पर हैं, जहां से वे ‘जंजीर’ की कामयाबी के बाद खड़े हुए थे। किसी एक्टर को कोई एक फिल्म इतनी ऊंचाई दे सकती है, ‘जंजीर’ इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है। जिन फिल्मों का उल्लेख किया गया सिर्फ वे ही फ़िल्में हिंदी फिल्म इतिहास का हिस्सा नहीं है। ऐसी और भी कई फ़िल्में हैं जो अलग-अलग समयकाल में दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी हैं।