एक ओंकार सतनाम…

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एक ओंकार सतनाम…

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की बाणी की शुरूआत मूल मंत्र से होती है। ये मूल मंत्र है एक ओंकार सतनाम, कर्तापुरख, निरभऊ निर्वैर, अकाल मूरत, अजूनी स्वैभं गुरु परसाद॥ आइए जानते हैं मूल मंत्र का अर्थ। एक ओंकार यानि अकाल पुरख यानी परमात्मा एक है। वो हर जगह मौजूद है और उसके जैसा कोई और नहीं है। सतनाम यानि अकाल पुरख का नाम सबसे सच्चा है। करता पुरख यानि उसी ने सब कुछ बनाया है। वो ही है जो सब कुछ करता है। वह सब बनाकर उसमें रस-बस गया है। निरभऊ यानि अकाल पुरख को कोई डर नहीं है। निर्वैर यानि अकाल पुरख की किसी से दुश्मनी नहीं है।अकाल मूरत यानि परमात्मा की शक्ल काल रहित है। इस पर समय का कोई असर नहीं। इसका कोई आकार नहीं। अजूनी यानि जो न तो पैदा होता है और न ही मृत्यु को प्राप्त होता है। वह किसी जूनी यानि योनि में नहीं पड़ता है। स्वैभं यानि जो प्रकाश से उत्पन्न हुआ है। इसे न तो किसी ने बनाया है और न ही जन्म दिया है। गुरु परसाद यानि अकाल पुरख की समझ इंसान को गुरु की कृपा से ही होती है।

आज श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की चर्चा इसलिए, क्योंकि आज का दिन यानी 27 अगस्त सिखों के इतिहास के लिए विशेष महत्व रखता है। आज ही के दिन सन् 1604 में अमृतसर के बेहद लोकप्रिय हरमंदिर साहिब यानी स्वर्ण मंदिर में गुरु ग्रंथ साहिब को स्थापित किया गया था।सिखों का सबसे पूजनीय पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब है। हरमंदिर साहिब को दरबार साहिब या स्‍वर्ण मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। स्वर्ण मंदिर के दर्श करने और यहां अपना मत्था टेकने के लिए लोग दूर-दराज से आते हैं। यहां सिर्फ भारतीय लोग ही नहीं बल्कि विदेशी सैलानी भी आते हैं। मान्यता है कि सिखों के पांचवे गुरू श्री गुरु अर्जुन देव ने ही स्वर्ण मंदिर की नींव रखी थी। जैसे कि इसके नाम से पता चलता है इस गुरुद्वारे का बाहरी हिस्‍सा सोने से निर्मित है। इसीलिए इसे स्‍वर्ण मंदिर कहा जाता है। यह सरोवर के बीचों बीच स्थित है। इसके द्वार चारों दिशाओं में खुलते हैं। इस सरोवर के चारों ओर अमृतसर शहर बसा हुआ है।

यह संयोग ही है कि वर्ष 2024 में 26 अगस्त को श्री कृष्ण जन्माष्टमी का अवसर रहा, तो 27 अगस्त 2024 का दिन सिख अनुयाइयों के लिए खास है। दोनों ही दिन यह स्थापित करते हैं कि परमात्मा एक है। कृष्ण ने ‘गीता’ का उपदेश अर्जुन को दिया था। और भगवद्गीता के अनुसार ईश्वर अविनाशी हैं, अनित्य हैं, अकर्ता हैं और अंतर्यामी हैं। इस चराचर जगत में वो हर जगह व्याप्त हैं। गीता में ऊँ, तत् और सत् इन शब्दों के द्वारा ईश्वर की व्याख्या की गई है। ईश्वर को ओंकार स्वरूप माना गया है ये तीन शब्द इस सृष्टि का आधार हैं। गीता में ईश्वर को परम सत्य माना गया है। ईश्वर अनादि, अजन्मा, अनन्त और ज्ञान का स्वरूप हैं। ईश्वर, विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है। वह जीवों को उनके कार्यों के अनुसार सुख-दुःख प्रदान करता है। ईश्वर, कर्म नहीं करता लेकिन ईश्वर के बिना कोई कर्म होना भी संभव नहीं। ईश्वर, कर्म फलदाता है। वह सबका स्वामी है। गीता में निर्गुण ब्रह्म और सगुण ईश्वर का अत्यन्त सुन्दर समन्वय वर्णित है लेकिन ‘सगुण ईश्वर’ से अधिक श्रेष्ठ ‘निर्गुण’ और अव्यक्त स्वरूप को माना गया है। भगवद्गीता में ईश्वर को पुरुषोत्तम की संज्ञा दी गयी है। उन्हें प्रकृति और पुरुष से परे माना गया है तथा परमात्मा या परमब्रह्म कहा गया है।

तो गीता हो या श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी, सभी का मत है कि परमात्मा एक है। दोनों ही ग्रंथ ईश्वर को एक ही तरह से परिभाषित करते हैं। तो दोनों ही ग्रंथ यह बताते हैं कि सभी धर्म के अनुयाइयों को प्रेम और सौहार्द के साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए। क्योंकि परम सत्य यही है कि एक ओंकार सतनाम…।