तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः …

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तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः …

ययाति ग्रंथि वृद्धावस्था में यौवन की तीव्र कामना की ग्रंथि मानी जाती है। किंवदंति है कि, राजा ययाति एक सहस्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्होंने अपने पुत्र पुरु से उधार ली गई युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया। जब ययाति को वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त हुआ, तब उन्होंने कहा था-

‘भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताःतपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।कालो न यातो वयमेव याताःतृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥

अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं। काल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गये; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं!

ययाति को इस अनुभव को पाने में हजारों साल बिताने पड़े। ययाति की कहानी बड़ी दिलचस्प और शिक्षाप्रद है। ययाति, चन्द्रवंशी राजा थे। वे राजा नहुष के छः पुत्रों याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति में से एक थे। ययाति की कथा महाभारत के आदि पर्व में, भागवत पुराण में, और मत्स्य पुराण में आती है। याति राज्य, अर्थ आदि से विरक्त रहते थे इसलिये राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके करवा दिया। ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ। देवयानी के साथ उनकी सखी शर्मिष्ठा भी ययाति के भवन में रहने लगी। ययाति ने शुक्राचार्य से प्रतिज्ञा की थी की वे देवयानी के अलावा किसी दूसरी नारी से शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाएंगे। एकबार शर्मिष्ठा ने ययाति से विवाह करने की इच्छा जताई परंतु ययाति को शुक्राचार्यजी का भय था लेकिन शर्मिष्ठा के लगातर प्रयास के बाद ययाति को शर्मिष्ठा से विवाह करना पड़ा। इस तरह देवयानी से छुपाकर शर्मिष्ठा एवं ययाति ने तीन वर्ष बीता दिए। उनके गर्भ से तीन पुत्रलाभ करने के बाद जब देवयानी को यह पता चला तो उसने शुक्र को सब बता दिया। शुक्र ने ययाति को वचनभंग के कारण शुक्रहीन वृद्ध होने का श्राप दिया। तब ययाति की दो पत्नियाँ थीं। शर्मिष्ठा के तीन और देवयानी के दो पुत्र हुए। ययाति ने अपनी वृद्धावस्था अपने पुत्रों को देकर उनका यौवन प्राप्त करना चाहा, पर पुरू को छोड़कर और कोई पुत्र इस पर सहमत नहीं हुआ। पुत्रों में पुरू सबसे छोटा था, पर पिता ने इसी को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया और स्वयं एक सहस्र वर्ष तक युवा रहकर शारीरिक सुख भोगते रहे। एक हजार वर्ष बाद पुरू को बुलाकर ययाति ने कहा – ‘इतने दिनों तक सुख भोगने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई। तुम अपना यौवन लो, मैं अब वानप्रस्थ आश्रम में रहकर तपस्या करूँगा।’ फिर घोर तपस्या करके ययाति स्वर्ग पहुँचे, परन्तु थोड़े ही दिनों बाद इंद्र के शाप से स्वर्गभ्रष्ट हो गए। अंतरिक्ष पथ से पृथ्वी को लौटते समय इन्हें अपने दौहित्र, अष्ट, शिवि आदि मिले और इनकी विपत्ति देखकर सभी ने अपने अपने पुण्य के बल से इन्हें फिर स्वर्ग लौटा दिया। इन लोगों की सहायता से ही ययाति को अन्त में मुक्ति प्राप्त हुई।

‘ययाति’ के जरिए आज हम मराठी साहित्यकार विष्णु सखाराम खांडेकर को याद कर रहे हैं। 2 सितंबर को उनकी पुण्यतिथि है। ययाति उनके द्वारा 1959 में लिखा गया मराठी भाषा का ऐतिहासिक उपन्यास है। खांडेकर की सबसे प्रसिद्ध कृतियों में से एक, यह हिंदू महाकाव्य महाभारत से ऐतिहासिक हिंदू राजा ययाति की कहानी को फिर से बताता है। उपन्यास में कई कथावाचक हैं, और नैतिकता की प्रकृति पर कई सवाल उठाते हैं। मराठी साहित्य के क्लासिक के रूप में स्वीकार किए जाने वाले ययाति ने 1960 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1974 में ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित कई पुरस्कार जीते थे।

 

खांडेकर महाराष्ट्र के सांगली में 19 जनवरी 1898 को पैदा हुए थे। स्कूल के दिनों में खांडेकर को नाटकों में काफी रूचि थी और उन्होंने कई नाटकों में अभिनय भी किया।खांडेकर ने ययाति सहित 16 उपन्यास लिखे। इनमें हृदयाची हाक, कांचनमृग, उल्का, पहिले प्रेम, अमृतवेल, अश्रु, सोनेरी स्वप्ने भंगलेली शामिल हैं। उनकी कृतियों के आधार पर मराठी में छाया, ज्वाला, देवता, अमृत, धर्मपत्नी और परदेशी फिल्में बनीं। इनमें ज्वाला, अमृत और धर्मपत्नी नाम से हिन्दी में भी फिल्में बनाई गईं। उन्होंने मराठी फिल्म लग्न पहावे करून की पटकथा और संवाद भी लिखे थे। भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया। सरकार ने उनके सम्मान में 1998 में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया था। मराठी के इस चर्चित रचनाकार का निधन दो सितंबर 1976 को हुआ।

 

दरअसल खांडेकर के इस उपन्यास और पात्र ‘ययाति’ के जरिए हम 21वीं सदी में मानव की सोच पर तरस खा सकते हैं। जहां नैतिकता तो मानो कूड़ेदान में पड़ी कराह रही है। जहां भोग के लिए अनैतिक साधनों से संसाधन जुटाने में सभी मर्यादाएं मानव ने ताक पर रख दी हैं। और जहां व्यक्ति को इतना समय भी नहीं मिल पा रहा है कि वह जीवन में यह निष्कर्ष भी निकाल सके कि वह गलत मार्ग पर है। गलत मार्ग को छोड़े, उससे पहले ही शरीर उसका साथ छोड़ देता है। हम 21वीं सदी के ययाति, खुद को ही अभिशप्त कर नरकगामी हो जाते हैं और असंतुष्टि संग जीवन का अंत भुगतने को मजबूर हैं। तो ऐसे हम अंधों को ‘ययाति’ पढ़कर अपनी आंखों से यह समझने की कोशिश जरूर करनी चाहिए कि ‘तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः’ यानि तृष्णा जीर्ण नहीं होती, हम ही जीर्ण होते हैं। इसलिए मानवता को शर्मसार न होने दें और सही मार्ग पर चलें…।