शिवाजी की लय…”मृत्यु पर विजय” …

169

शिवाजी की लय…”मृत्यु पर विजय” …

महाभारत की कथा में पूरे विश्व को झुकाने का सामर्थ्य था तो केवल कर्ण में | कुंती को दिए गए वचन के अनुरूप कर्ण ने कितनी ही बार युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को युद्ध में जीवन दान दिया। यदि वह चाहता तो युधिष्ठिर को परास्त कर युद्ध समाप्त कर सकता था, परन्तु माता को दिए गए वचन को वह संग्राम की गर्मी में भी नहीं भूला। ऐसा दान केवल ज्येष्ठ कौन्तेय ही कर सकता था। यदि युद्ध और योद्धा धर्म के दायरों में महाभारत हुई होती तो निश्चय ही कर्ण मृत्युंजय था। कर्ण के अंतिम क्षण अत्यंत मार्मिक हैं। और यदि कहा जाए तो कर्ण का पूरा जीवन ही मार्मिक है। माता कुंती हों, खुद कृष्ण हों या पितामह भीष्म ही सही, पर कर्ण के चरित्र को शिवाजी ने अपनी लय में जो शब्दों में प्रवाहित किया है, वह अतुलनीय है, अद्भुत है और श्रेष्ठतम है। वास्तव में मृत्यु ने कर्ण पर विजय प्राप्त नहीं की थी, बल्कि ‘मृत्यु पर विजय’ प्राप्त कर कर्ण ने ही खुद मृत्यु का आलिंगन किया था। दरअसल आज हम याद कर रहे हैं कालजयी लेखक ‘शिवाजी सावंत’ की और उनकी अमर कृति ‘मृत्युंजय’ की। शिवाजी सावंत ने मात्र 62 साल की उम्र में 18 सितंबर 2002 को ही मृत्यु का वरण किया था।

‘शिवाजी गोविन्दराव सावंत’ का जन्म 31 अगस्त, 1940 को आजरा, ज़िला कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में हुआ था। शिवाजी सावंत का जन्म महाराष्ट्र के एक छोटे से किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा ‘व्यंकटराव हाई स्कूल अजारा’ से पूरी की। उन्होंने राजाराम प्रशाला, कोल्हापुर में 20 साल तक शिक्षक के रूप में काम किया और उसके बाद छह साल 1974-1980 तक पुणे में महाराष्ट्र शिक्षा विभाग की मासिक पत्रिका लोकशिक्षा के संपादक के रूप में काम किया। सावंत की शादी मृणालिनी से हुई थी। उनका एक बेटा अमिताभ और बेटी कादम्बिनी है।

शिवाजी ने लेखन की शुरुआत प्रारम्भिक कविता से की, किन्तु परिणति गद्य लेखन में थी। वर्षों के चिन्तन-मनन के उपरान्त 27 वर्ष की अवस्था में ही प्रथम मराठी उपन्यास ‘मृत्युंजय’ का प्रकाशन हुआ। यह उपन्यास उनकी लोकप्रियता का प्रतिमान बना। इसका अनुवाद अंग्रेज़ी एवं हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़,तेलुगु,बांग्ला,मलयालम आदि अनेक भाषाओं में भी हो चुका है। छावा (मूल मराठी में,1989) के अतिरिक्त मृत्युंजय और छावा की कथावस्तु को ही लेकर दो नाटकों की रचना की है। शिवाजी की अन्य लोकप्रिय कृतियाँ हैं- लढत (जीवनी), शलाका साज (ललित निबन्ध), अशी मने असे नमुने (रेखा चित्र), मोरवला (रेखा चित्र)। युगपुरुष श्रीकृष्ण के जीवन पर केंद्रित उनका एक बृहत् उपन्यास ‘युगन्धर’ प्रकाशित हुआ है। उनके उपन्यास मृत्युंजय, छावा, युगन्धर और नाटक संघर्ष के हिन्दी अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हैं। शिवाजी सावंत का 18 सितम्बर, 2002 को मडगाँव (गोवा) में देहावसान हुआ। वे 76वें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद के लिए प्रचार कर रहे थे। मृत्युंजय लिखने के कारण उन्हें मृत्युंजयकार (मृत्युंजय के लेखक) के रूप में जाना जाता है। वे 1994 में मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले मराठी लेखक थे। 1980 में प्रकाशित उनका उपन्यास ‘छावा’ छत्रपति संभाजी के जीवन पर आधारित है। उन्होंने 1995 से महाराष्ट्र साहित्य परिषद के उपाध्यक्ष का पद संभाला। वे 1983 के बड़ौदा साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष थे। वे न केवल एक ऐतिहासिक लेखक थे, बल्कि एक राजनीतिक लेखक भी थे।

मृत्युंजय में कुछ अलंकार ऐसे हैं जो कि पाठकों को उस समय की घटना में रोमांचित करें, और कुछ ऐसे गूढ़ रूपक हैं जो आगे के कथानक में होने वाली घटनाओं के सूचक हैं। कर्ण का अधिरथ के घर बड़ा होना और कोकिला का कौओं के नीड़ में बड़ा होना, क्या यह दोनों किसी प्रकार से जुड़े हुए नहीं हैं? कर्ण का यह मानना कि भले ही कोकिला कौओं के घोंसले में ही क्यों न पली बढ़ी हो, समय आने पर वह अपनी कूक से पूरे जगत को यह बता देती है कि वह कौन है? क्या यह उनके पूरे जीवन भर के संघर्ष का ही सार नहीं है? कर्ण ने अपना पूरा जीवन अपनी पहचान ढूँढने में लगा दिया। जब उनको अपने कुल का ज्ञान हुआ भी, उन्होंने हँसते हँसते उसका त्याग कर न केवल उच्च कोटि का स्थान प्राप्त किया, बल्कि दानवीरता के रूप में आज तक ध्रुव तारे के समान भारतीय विचारधारा को सुसज्जित कर रहे हैं। और यही बात शिवाजी सावंत पर लागू होती है। स्कूल में एक नाटक में कृष्ण की भूमिका में शिवाजी को कर्ण का जीवन इतना भाया कि कर्ण को पूरी तरह से जीकर 27 साल में ‘मृत्युंजय’ की रचना कर शिवाजी सावंत भारतीय साहित्य में ध्रुवतारा बनकर चमकते रहेंगे। शिवाजी की लय में…”मृत्यु पर विजय” पढ़कर वास्तव में कर्ण को पूरी तरह जिया जा सकता है

…।