यह जो “सत्य” है, यह बहुत ही कोमल है। इसका बदन बहुत ही जर्जर है। बिल्कुल दुबला, पतला और कहें कि सुक्खड लाल है यह “सत्य”। इसे हम प्यार से कभी-कभी सत्तू भी पुकारते हैं। वैसे तो कहते हैं कि “सत्य” बहुत ही कड़वा होता है। लेकिन आजकल यह “सत्य” चासनी में डूबा रहता है, इसलिए कड़वाहट का तो कहीं नामोनिशान बाकी नहीं रहा, लगता है कि जैसे “सत्य” के अति मीठेपन की वजह से ही दुनिया की बेजा आबादी मधुमेह की दासी बन गई है। पर यह बात माननी पड़ेगी कि “सत्य” से सभी को बेइंतहा मोहब्बत है। शायद सबका प्यार पाने के चक्कर में यह सत्तू लाल भी टेढ़े मेढ़े, थुलथुले और बेडौल हो गए हैं। मुखौटा उतरता है तब ही पता चल पाता है कि सत्तू लाल को चकमा दिया जा रहा था। और तब चारों तरफ असत्य ही आसनी जमाए नजर आने लगता है। हालात यह हैं कि अब महसूस ही नहीं होता कि “सत्य” का अस्तित्व बचा भी है या नहीं। तब भी जब लोग इस सत्तू को ठिकाने लगाकर खुद को सत्यवान साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। और अगर कोई इन कथित सत्यवानों को झूठा कहकर ताना मार दे, तब तो मान लो पूरी जिंदगी का नाता ही जमीन में गढ़ जाए। अब इनका रौब-दाब ही कुछ ऐसा रहता है…।
हर मौसम के अपने मायने भले ही न बदले हों, लेकिन 21 वीं सदी तक आते-आते “सत्य” का मानो कचूमर ही निकल गया है। अब बात लोकतंत्र की ही हो, तो समझ लो कि “सत्य” और “चुनावी वादों” का हाल एक ही जैसा है। जैसे यह कोई परख करने का दावा नहीं कर सकता कि चुनावी वादों की सच्चाई कितनी हैं। वैसा ही हाल सत्य का हो गया है। राजनीतिक दलों के मुताबिक “सत्य” की खोज करें तो हर दल का “सत्य” अपना-अपना हो जाता है। “अ” दल का सत्य यह है कि “ब” दल झूठी है, तो “ब” दल का सत्य यह है कि “अ” दल झूठा है। “स” दल का सत्य यह है कि “द” व “य” झूठे हैं, तो “द” दल का सत्य यह है कि “स” और “य” झूठा है। तो “र” के साहब कहेंगे कि उनकी पार्टी को छोड़कर सब दल झूठे हैं। अब इसमें ढूंढो तो जानें कि “सत्य” कौन है। शायद भटकते रहेंगे लेकिन “सत्य” की खोज नहीं कर पाएंगे। अब बात किसानों के हितैषी होने की कर लें तो सभी दल दावा करेंगे कि वह किसान हितैषी है और बाकी सब किसान विरोधी। दलितों का हितैषी कौन है तो “अ” कहेगी हम, “ब” कहेगी हम, “स” कहेगी हम, “द” कहेगी हम, “य”,” र”,”ल”,”व” कहेगी हम और अन्य सभी दल “हम” का “दम” भरते नजर आएंगे। अब किसी में दम हो तो पता कर ले कि कौन है हितैषी…? यही बात दलीय मापदंडों पर आदिवासी, ओबीसी और किसी भी वर्ग के हितैषी होने के दावे पर सौ फीसदी लागू होती है। हर दल का सत्य अपना-अपना है। ऐसे में सत्य को तो मानो मुंह छिपाने के लिए ही जगह नहीं बचती और वह चुल्लू भर पानी में डूबकर मरने को आतुर हो जाता है।
बात लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलों पर ही लागू नहीं होती। बल्कि मनी, पावर और चमक-दमक के फेर में उलझे सभी महानुभावों पर लागू होती है। “सत्य” अपने साथ हो रहे खिलवाड़ को देखते-देखते बूढ़ा और कमजोर हो गया है। या यूं कहें कि ठगे जाते-ठगे जाते अब “सत्य” खुद ही ठग विद्या में माहिर हो गया है। अब लोग उसके नाम का रट्टा लगाकर जब चाहें जिसे चाहें ठगते रहें, पर बूढ़ा हो चुका “सत्य” अब अपनी किस्मत को कोसकर कोने में चुपचाप बैठा शून्य की तरफ टकटकी लगाए एकटक निहारते रहता है। सोचता है कि आखिर पूरी जिंदगी मैंने हासिल ही क्या किया है? सत्य को कभी लगता है कि जीवन भर वह ठगा गया है तो कभी उसे ऐसा लगने लगा है कि जिसने दिल से उसका दामन थामा मानो वही ठगा गया, बाकी सब मौजमस्ती करते इठलाते, बल खाते इधर-उधर मौज कर रहे हैं। पदों और प्रतिष्ठा की दौड़ में मैडल जीत रहे हैं, इनाम पा रहे हैं और हर पल अपना कद बढ़ा रहे हैं। सिंहासनों पर आसन लगाकर ज्ञान का बघार लगा रहे हैं। “सत्य” का दम भरने वालों को पहले यह कहकर गाली दी गई कि तुम तो सत्यवादी हरिश्चंद्र की औलाद हो? तो यह भी खरी खोटी सुनाई गईं कि यह जान लो कि सत्य से किसी का पेट नहीं भरता, घर का चूल्हा नहीं जलता। और अब यह हालत हो गई कि सब के पेट भर गए और सत्य भूखों मरने की कगार पर पहुंच गया। घरों के चूल्हों में जलकर सत्य खाक हो रहा है।
शायद अपनी दुर्दशा को देखते-देखते “सत्य” की आंखें पथरा गई हैं। काया जवाब दे गई है। चिर यौवन का वरदान पाने के बाद भी अब “सत्य” चिर बुढ़ापे का पर्याय बन गया है। हालत ऐसी है कि ठंड में ठिठुर जाता है, गर्मी में झुलस जाता है और बारिश में उसकी त्वचा गलने लगती है। लेकिन सिर्फ इसलिए लंबी-लंबी सांसें लेकर जिंदा होने का टैग लगाए है, ताकि कोई यह न कह सके कि “सत्य” अब नहीं रहा। और यह कि दुनिया में लोगों का यह भरोसा न टूटे कि “अंत में जीत सत्य की ही होती है।” सत्य कराहते हुए लंबी सांस लेकर बड़बड़ाता रहता है कि कि जब लोग अपने अंतिम समय में उसे समझ पाते हैं, तब तक मौत उनके सामने खड़ी हो जाती है। वह झूठ की कलई खोलना चाहते हैं, लेकिन जुबान साथ नहीं देती और बोल थक जाते हैं। “मैं सत्य” उनके पास खड़ा होकर फिर अपनी किस्मत पर रोता हूं कि काश बुढ़ापे में भी लोग अपने मुंह से झूठ की पोल खोल पाते। तो यौवन में सत्य का संचार हो पाता और उसको मिला चिर यौवन का वरदान चरितार्थ हो पाता। साथ ही लोग सत्य के रैपर में लपेट-लपेटकर झूठ को परोसने से बाज आ पाते। फिलहाल 21 वीं सदी के 21 साल पूरे होते-होते “सत्य” डिप्रेशन से उबरने के लिए मुट्ठी-मुट्ठी भर दवाईयां गटक रहा है लेकिन हार मानने को तैयार नहीं है सो देखते हैं कि “सत्य” जीतता है या डिप्रेशन में ही कोई अनहोना कदम उठाने को मजबूर होता है…! फिलहाल सत्य ठिठुरा हुआ कोने में बैठकर सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहा है, ताकि सरजू में स्नान कर उत्तरायण सूर्य को जल चढ़ा वक्त बदलने की मन्नत मांग सके। मन से हार चुके सत्य का विशेष अनुरोध यह भी है कि कोई भी सत्यवादी बुरा मत मानना क्योंकि उसकी मंशा किसी को ठेस पहुंचाने की कतई नहीं है। अब मरा हुआ भी किसी को क्या मारेगा भला…।