7.In Memory of My Father: संसार का सबसे कठिन काम ‘कन्यादान’-कर्मयोगी मेरे पिता

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In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

 पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला- मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इसकी {7} सातवीं क़िस्त में नवोदित लेखिका संध्या पांडे अपने पिता  के व्यक्तित्व में एक कर्मयोगी को स्मरण करते हुए    पिता और बेटी के रिश्ते को  याद करते हुए उन्हें  सादर नमन कर रही हैं –


कन्यादान ना किया हो जिसने
वह क्या जाने पीर पराई
पाल पोसकर बड़ा किया 
फिर करनी पड़ती है विदाई
देना सीखो इन दिलदारों से
लेना तो सबको है आता
झुकना सीखो इन प्यारों से
झुकाना तो सबको है आता
                  - रत्ना पांडे

7.In Memory of My Father: संसार का सबसे कठिन काम ‘कन्यादान’-कर्मयोगी मेरे पिता

आज जब उनके लिए कुछ लिखने बैठी तो लगा कि — कितना कठिन है एक पन्ने की लेखनी में पिता के प्यार को शब्दों में समेट पाना। सिर्फ जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना बाकी दिन भूल जाना असंभव है। कभी कभी याद करके उनकी तस्वीर को कैनवास पर उतार पाना भी कठिन है। पिता के संपूर्ण व्यक्तित्व को एक साथ समझा पाना भी सही नहीं है । कितनी भी कोशिश कर लें पर पिता से अपने मन के भावों को छुपा नहीं सकते थे। संसार का सबसे कठिन दिन वह होता होगा जब पिता अपनी पुत्री का दान करके दानदाता बन जाते हैं। यही संसार सबसे कठिन काम है अपने जिगर का टुकड़ा किसी को जीवन भर के लिए सौंप देना, वे कर्मयोगी ही होते है जो कन्यादान करते हैं .  इस कन्यादान के पुण्य को कमाने के पीछे कितनी पीड़ा झेल जाते हैं वो। सब बच्चे अपना अपना घर बसा लेते हैं। फिर भी पिता की आँखों में स्म्रतियां तो शेष रह जाती हैं। उनके जहन में बच्चों का बाल सुलभ रूप ही बसा रहता है। बच्चे तो सभी सुखी हो जाते हैं। पर भविष्य की चिंता उनके भाल पर और झुर्रियाँ चेहरे पर छाई रहती हैं। सबकुछ बच्चों पर लुटा दिया उसके बाद भी सूखे सिलवटें पड़ते हुए हाथ में आशीष तो समाया रहता है।जब सबके पापाओं को याद करती हूँ तो मुझे अपने पापा याद आ जाते हैं। सच में पापा आपको भूलना आसान नहीं है ?

पिछले एक वर्ष में हजारों बार आप मेरी स्मृतियों में आए होंगे। हर बार कुछ नया सा याद दिलाकर चले गए। पहले दिनभर याद आती रही फिर दिन में आठ दस बार , फिर चार छह बार और फिर धीरे धीरे कम होकर रह गयी ।अभी भी आप एक दो बार तो याद आते ही है।

आपकी स्मृतियों का बहुत बड़ा भंडार मेरे पास रह गया है उसका एक कारण यह भी है कि — मैं सबसे ज्यादा आपके नजदीक रही हूँ। जैसा भी समय मिलता आपसे मिलने पहुँच जाती थी। जब ज्यादा समय नहीं होता था तो पुराने समय की पाठशाला में जो आधी छुट्टी होती थी उसी तरह सुबह और शाम के बीच में जो मेरा अपना खाली समय होता था उसमें ही आपसे मिलकर आ जाती थी। वो उस समय की हाफ़ रिसेज़ में मिलने जाने का महत्व सिर्फ मुझे पता है। उसे आज कोई नहीं समझेगा।

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आपके जाने के बाद सबकुछ सूना सा लगने लगा था। कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । न दिन में खाना और न रात में सोना।इन सबके चलते स्वास्थ भी बिगड़ गया और घर भी अस्त व्यस्त हो गया। घर तो देवरानी ने संभाल लिया स्वास्थ तो इनको ही संभालना था। बच्चों के पास ले गए। बेटे बहु पोते पोती में थोड़ा भूलने की कोशिश तो की परंतु संभव नहीं था। कुछ भी। वो पापा थे जिनसे एक दिन भी बात नहीं करो तो चैन नहीं आता था। अबतक तीन महीने हो गए थे। उन्हें देखने और सुनने को आँख कान तरस गए थे.

उनके तीसरे मासिक श्राद्ध पर एक पंडीतजी ने तर्पण करने के बाद ये बताया कि अब आप उनको ज्यादा याद मत किया करो। उन्हें शांति से जाने दो। उन्होंने अपनी पूरी आयु अच्छे से जी ली थी। उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन भी अच्छे से किया। कोई काम अधूरा नहीं छोड़ा था। अब उन्हें अपनी अगली यात्रा के लिए निकलने दो उन्हें मत रोको। मैने हाँ में सिर तो हिला दिया पर यह क्या?मुझे पापा पहले से ज्यादा याद आने लगे। पिछले एक दशक से उनकी ज्योति भी चली गयी थी। वो मम्मी के सहारे के बिना कुछ कर नहीं पाते थे। ऐसे में मम्मी की सेवा को नमन करती हूँ उन्होंने पापा का पूरा ध्यान रखा। या यूँ कहो कि वे मम्मी की आँखों से सबकुछ देखते थे।मम्मी जिस ढङ्ग से उन्हें बता देतीं वो समझ जाते थे।

हम भाई बहन में कौन मोटा हो गया है। कौन पतला हुआ है। किस बच्चे का रंग साफ है कौन काला है ,कौन गोरा सब मम्मी बताती थी। और वो वैसा का वैसा हम लोगों को बोलते थे।मैं जानती थी कि उन्हें मुझपर ही भरोसा और विश्वास था। भले ही रोज मिलने न जाओ फिर भी एक शहर में रहने से हिम्मत थी। मै जब भी बच्चों के पास जाती तो उनसे मिलकर जाती तो कहते — जल्दी आना। हम अकेले हैं। मुझे एक छींक भी आए तो मम्मी से कहते बबली को देखकर आओ।खुद से आते नहीं बनता था तो मम्मी को दोड़ लगवाते थे। मै गुस्सा होती पापा मम्मी को क्यों परेशान किया मैं ठीक हूँ। तो कहते। वैसे भी तुम्हारी माँ करती क्या है? मम्मी की इतनी सेवा के बाद भी कहीं कुछ कमी रह जाती थी तो मुझे शिकायत करते थे। फिर मैं समझाती पापा उनकी भी उम्र हो गयी है। नहीं बनता है उनसे भी।मम्मी का रोज का नियम था सुबह पेपर पढ़कर सुनाती। शाम को वाल्मीकि रामायण सुनाती।पापा की यादों का पिटारा तो बहुत बड़ा है उसमें से एक रस्सी की तरह जब में एक सिरा पकड़ती हूँ तो मेरे बचपन से लेकर अभी तक की इतनी लम्बाई हो गयी है की दूसरा सिरा मिलता ही नहीं है।

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पापा वेटेरिनरी डॉक्टर थे। बेजुबान पशुओं का इलाज चुटकियों में कर देते थे। उनको अपनी ड्यूटी बड़ी ईमानदारी से करते देखा है हमने।देर रात को भी यदि कोई अपना सीरियस जानवर लेकर आता तो वो उठकर उसका उपचार करने लग जाते।कई बार वो बीमार जानवर को देखने बहुत दूर तक साइकल से भी चले जाते थे। उनसे बहुत कुछ सिखाऔर याद भी रखा है।
जब भी याद आती है तो एक सैलाब सा बहने लगता है वो रुकने का नाम ही नहीं लेता है। शादी के बाद इतने सालों तक एक ही जगह हरदा में रहना फिर भाई का ट्रांसफर इंदौर हो जाना उन्हें भाई के घर भेजना ईश्वर का कोई तो संकेत था जिसे मै समझ नहीं पायी थी। आज याद आ रहा है उनका यहाँ से विदा होना। मेरा दिल जानता है मैने कैसे उन्हें गाड़ी में बैठाया था। कितना बच्चों की तरह रोये थे वो।मैने उन्हें समझाया था कि अभी चले जाओ जब वापस आना हो तो बता देना मैं लेने आ जाऊँगी।आपसे हर महीने मिलने भी आऊँगी। आपसे हर रोज बात करूँगी। जाने कितने वादे कर डाले थे। अपनी गृहस्थी से बड़ी मुश्किल से समय निकालकर हरदा से इंदौर मिलने तो जाती थी पर दो – चार घंटे के लिए। कभी रात नहीं रह पायी उनके पास।

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ईश्वर का धन्यवाद करते हुए सबको बताना चाहती हूँ कि यह भगवान का इशारा था या मेरा विश्वास। पिछले वर्ष श्राद्ध के दिनों में मुझे डेंगू हो गया था,फिर इलाज के लिए बेटे के पास इंदौर चली गयी।वहाँ से स्वस्थ होकर पापा के पास चले जाना महज एक संयोग ही तो था। शादी के बाद पापा के पास तीन रात पहली बार रुकी थी। उन्हीं के पलंग पर बैठी रही। जाने कितने वर्षों की बातें हम दोनों के पास थी। वह करती रही। रात रात भर उनको नींद नहीं आती थी और उन दिनों जब मैं उनके पास ही रहती थी तो रात भर वो मुझसे बबली बबली कहकर बात करते रहते और खाने पीने की जिद करते रहे। खाते नहीं बनता था इसलिए कमजोर हो गए थे । तब तक नवरात्रि शुरू हो गयी थी। मैने पापा से पूछा कि मैं हरदा जाऊँ? तो उन्होंने साफ मना कर दिया !नहीं। फिर मम्मी के समझाने पर उन्होंने कहा — ठीक है जाओ। भाई से कहा इसको हरदा छोड़कर आओ। जल्दी आना और न जाने कितने आशीर्वादों के साथ मुझे विदा किया था। घर आने के बाद भी मन नहीं लग रहा था। नवरात्रि की तीज के दिन तो मैं हरदा आई और जैसे तैसे चतुर्थी निकली होगी बस। पंचमी के दिन सुबह सुबह मम्मीजी के हाथ से चाय पी और आठ बजे के लगभग भतीजे ने वीडियो काल पर मुझे दिखाया की बाबा कैसे कर रहे है ? बस मैं समझ ही नहीं पाई। अपने पापा की अंतिम साँसों को। मेरी आँखों के सामने मेरे पापा ने अंतिम तीन साँस ली और एक अनंत यात्रा पर निकल गए। मैं कुछ नहीं कर पाई। हाथ में मोबाइल रखा का रखा रह गया।

मेरे गौरव ,मेरे अभिमान आज मौन समाधी में समा गए थे। बार बार अफसोस इस बात का था कि– मैं दो दिन के लिए आई ही क्यों ? वहीं क्यों नहीं रुकी। फिर लगता है कि — शायद मेरा मोह ही उन्हें जाने नहीं दे रहा था। मैं उन्हें कब तक रोकती। उन्हें बहुत तकलीफ थी। डॉक्टर ने भी जबाब दे दिया था।उन तीन दिनों में मैने उन्हें गीताजी , सप्तसती के अध्याय ,रामरक्षा सब कुछ सुनाए थे। उन्हें राम रक्षा स्त्रोत्र,विष्णु सहस्त्रनाम ,कुछ चौपाई मुखाग्र थी। वो खुद भी बहुत विद्वान, आस्थावान थे। उन्हें धर्म में आस्था रखने वाले लोग पसंद थे।

वो अंतिम तीन दिन और तीन रातें कोई कैसे भूले हैं ? यादों का यदि कोई मोल है,तो इन तीन दिनों की यादें मेरे पास अनमोल है।मै इंदौर भेजने के बाद भी निश्चिंत नहीं थी। उन्हें वहाँ अच्छा तो लग रहा था पर वो हरदा को भूल नहीं पा रहे थे। उनसे बात करते समय एक अपराध बोध मुझे भी लगता था।मैने क्यों उन्हें जाने दिया? पर उनका अपना परिवार सब पोता पोती इंदौर में ही थे। इसलिए भेज दिया।जिस यात्रा पर भेजने से डरती थी आज वही यात्रा उन्होंने सजा ली थी। सुबह से ही अनंत यात्रा की तैयारी कर ली थी।
आज के दिन एकदम शांति से लेटे थे पापा। न शरीर में कोई हलचल न शिकवा, न शिकायत। एक असीम शांति और तेज था उनके मुख पर।
आज पूरा एक वर्ष हो गया। एक दिन भी उन्हें भूल नहीं पाई हूँ। मेरे सभी भाई बहन उनको याद करते है। परन्तु जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि- वो सिर्फ मेरे थे, मैं उनकी। जितना प्यार मैं उनको करती थी उससे कहीं ज्यादा वो भी मुझे करते थे। मुझे लगता है 9 मई 1984  मेरे विवाह का दिन  मेरे पिता के लिए भी उतना ही कठिन रहा होगा  हर पिता के  लिए होता है अपनी बेटी को किसी दुसरे को सोंपना
कितनी अजीब बात है जब वो यहाँ थे तब मेरे पास ज्यादा समय नहीं होता था। जल्दी जल्दी मिलकर आना पड़ता था। जब से वो लोग इंदौर गए थे। मेरे पास भी खूब समय रहने लगा पर जिनके पास बैठने जाना चाहती थी वो ही यहाँ नहीं थे।
इस एक साल में सबकुछ यथावत हो गया है। सबका आना जाना, मेल मिलाप, तर्पण श्राद्ध संकल्प सब विधिवत हो गए है। पर मैं आज भी उनके चले जाने का पल भूल नहीं पा रही हूँ।
जीवन भर की मौन समाधि पर आप चले गए। अब यहाँ न घर है,न घर की चौखट, न आपका पलङ् ,न आपकी बैठक। कुछ भी नहीं दिखता फिर भी याद आ जाती है।पापा बेटी का रिश्ता ऐसा है जिसे परिभाषाओं में नहीं बाँधा जा सकता। पर वह बड़ा अनमोल और सच्चा होता है।आपसे मिलने जाना, आपसे बातें करना, कुछ नया सीखना, धर्म की, पूजा पाठ, अध्यात्म, छोटी छोटी बीमारियों के लिए घरेलू उपचार, एलोपैथिक ड्रग्स की जानकारी आपसे ही ली है।

आपको मेरे हाथ की खीर, मुरब्बा, गुझिया, दहीबड़े कितने पसंद थे।आप भगवान राम के अनन्य भक्त थे और माँ नर्मदा में आपकी गहरी आस्था थी।पचपन साल की उम्र तक तो मुझे बड़े होने का अहसास ही नहीं हुआ।
क्योंकि जब भी आपके सामने होती तो आपकी बबली ही होती । पापा आप कैसे चले गए, कहाँ चले गए, किसके लिए चले गए। समझ नहीं आ रहा। हमारे पास न तो कोई देवीय शक्ति बची, न ऊर्जा, न उत्साह। जीवन चल रहा है इसलिए चल रहे हैं।पापा हर जन्म में आप ही मेरे पापा बनना।

पिता का परिचय तो सिर्फ पिता होता है लेकिन एक व्यक्ति  का नाम ,परिवार पता सब  होता है ,उनका  परिचय क्या दूँ मैं ?
नाम –डॉक्टर रमेश चन्द्र शुक्ला
जन्म तारीख – 12-4 -38
जन्म स्थान – पुराना हरसुद
शिक्षा – बी वि एस सी
वेटेरिनरी की शिक्षा जबलपुर
नौकरी — हरदा, होशंगाबाद, भोपाल, सिवनी, भिंड, मुरैना, इटारसी।
पुण्य तिथी – 19- 11- 23

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संध्या पांडेय, हरदा मध्य प्रदेश