Power Of Society: कुपोषण के चक्रव्यूह तोड़ने समाज शक्ति का अक्षय पात्र
दुनिया भर की सरकारें कुपोषण से निपटने निरंतर घोषणायें और प्रयास करतीं हैं .भारत ने भी शिशुओं और गर्भवती माताओं के लिये आँगन बाडियों में पोषण आहार योजना ,विद्यालयों में मध्याह्न भोजन योजना जैसे उपायों तथा खाद्य सुरक्षा क़ानून जैसे उपायों से कुपोषण कम करने की कोशिश की है .सीईओ ज़िला पंचायत के रूप में मेरी ज़िम्मेदारी थी कि पोषण संबंधी सभी योजनायें ठीक से चलें .सख़्ती अकेली काफ़ी नहीं थी .हर स्तर पर ढिलाई और लीकेज थे .आवंटन राशि बढ़ाये जाने की ज़रूरत थी .राशियों और खाद्यान्नों की अक्सर विलंबित लय योजना को बेसुरा और असफल बना रही थी .मध्याह्न भोजन योजना किसी की प्राथमिकता में नहीं दिखती थी .खाद्यान्नों और राशियों की रिसन स्थिति को भयावह बनाती जा रही थी .
सर्व व्यापी लालच के फंदे में फँसकर अधिकारी ,शिक्षक ,जन प्रतिनिधि यहाँ तक कि गाँव गली के बदमाशों तक की कुदृष्टि मध्याह्न भोजन में अपना हिस्सा झटकने को व्याकुल थी .मासूमों के हिस्से का निवाला हर कोई नोंच रहा था .
पाँच सितारा होटलों में कुपोषण के मुद्दे पर संवाद हो रहे थे और मैदानी हक़ीक़त निर्वस्त्र खड़ी मुझे मुँह चिढ़ा रही थी .
मैंने सभी जनपद सीईओ ,सरपंचों ,शिक्षकों को बुलाकर खुलकर चर्चा की .सबकी सुनने के बाद स्पष्ट निर्देश दिये कि बच्चों का खाना चुराने वाले जेल जाने तैयार रहें .मैं गाँव गाँव स्कूल स्कूल जाकर खाना चखना शुरू किया तो खबर ज़िले भर में फैल गई .कुछ लोग निलंबित हुए कुछ जेल गए तो सरकारी रिसन थमने लगी .स्कूलों को खाद्यान्न और राशि भी तुरंत जाने लगी .अगले चरण में मैंने समाज सेवियों ,व्यापारियों ,समृद्ध लोगों और विभिन्न सामाजिक संगठनों को प्रेरित किया कि स्कूली बच्चों को पौष्टिक खाना देने में वे यथा शक्ति सहयोग करें .पत्रकारों ने भी साथ दिया .रणनीति एकदम सरल थी .कोई भी व्यक्ति अपने घर के पास के सरकारी स्कूल में जाकर एक आलू या एक कद्दू से लेकर कितनी ही सामग्री दान कर सकता था या केले अमरूद सेव स्कूल में बाँट सकता था .मैंने ज़िले के लोगों से अपील की कि वे अपना या अपने बच्चों का जन्म दिन स्कूली बच्चों को भोज या फल देकर मनायें .परिणाम चमत्कारी आये .श्री शंभु खट्टर के नेतृत्व में सिंधी समाज आगे आया .स्व डॉ विनम्र जैन ने सिंगल टोला विद्यालय को गोद ले लिया .वे इतना पौष्टिक और सुस्वादु खाना भेजते कि शिक्षक भी आनंदित होते .लेने की जगह देने की संस्कृति इतनी लोक प्रिय होने लगी कि ज़िले भर से दान दाताओं की कहानियाँ आने लगीं .उमरिया के इस अक्षय पात्र की कहानी राष्ट्रीय मीडिया की सुर्ख़ी बन गईं.मेरे स्थानांतरण के अनेक वर्षों बाद तक भी सेवा भावी लोग अक्षय पात्र चलाते रहे .शासकीय आवंटन सीमित होते हैं किंतु भारतीय समाज की दान भावना का अक्षय पात्र कभी रिक्त नहीं होता .