18.In Memory of My Father :BHU में 1941 में जब डॉ राधाकृष्णन् की मदद से पिताजी का वजीफा 3 रुपए बढ़ा!

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In Memory of My Father: मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

18.In Memory of My Father :BHU में 1941 में जब डॉ राधाकृष्णन् की मदद से पिताजी का वजीफा 3 रुपए बढ़ा!

                                  तुम मेरे शिल्पी, मेरा स्वाभिमान हो

मुरलीधर चाँदनीवाला

‘पिता! तुम मेरे शिल्पी, मेरा स्वाभिमान हो,
रिश्तों की चाशनी में डुबो-डुबोकर
तुमने घर-कुटुम्ब को कितना रसीला बनाया,
दुःख झेले सदा अकेले,
दिया ही दिया, लिया कहाँ कुछ।
अब जब मैं सब पड़ाव पार कर चुका
तब भी तुम दौड़ रहे लगातार धमनियों में।
मेरे विश्वासों की वल्गा थामे हुए हे पिता!
तुम मेरे पुरुषोत्तम मुझमें सर्वत्र व्याप्त।

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शायद ही कोई होगा, जो अपने पिता के बारे में बताने का मौका हाथ से फिसल जाने दे। प्रख्यात कथा-लेखिका स्वाति तिवारी मेरी बहन है यदि मैं उनका आग्रह टाल दूँ, तो मुझे पक्का भरोसा है कि पिताजी को लेकर स्वाति ही कोई बड़ा और रोचक संस्मरण लिख डाले। वे मेरे पिताजी को उतना ही जानती हैं, जितना मैं। मेरे पिताजी जितने हम भाई-बहनों के थे, उससे थोड़े ही कम अपने सब रिश्तेदारों के बनकर रहे। वे जिससे भी मिलते, उसके भीतर तक उतर जाते। पिताजी ज्योतिष के राष्ट्रीय विद्वानों और पंचांगकर्ताओं में अग्रणी थे, लेकिन वे विद्वत्ता को लादकर नहीं चलते थे। वे जमीन पर रहते थे, किन्तु उनकी आँखें आकाश के ग्रह-नक्षत्रों से बातें करती हुई ही बंद हुईं। पिताजी जीवन भर जिन कठिनाइयों से जूझते रहे, वे ही उनके लिये उत्सव भी बनती रहीं।

मेरे पितामह पंडित रामचंद्र जोशी चाँदनीवाले वेद और ज्योतिष के बड़े विद्वान् थे। वे धार राज्य के प्रतिष्ठित ज्योतिषी थे। धार में राजबाड़ा के पार्श्व में ही हमारा घर था। पवाँर स्टेट के राजा और राजा के दरबारी जब घर के सामने से निकलते, तब झुक कर प्रणाम करते हुए ही आगे बढ़ते। पितामह की प्रसिद्धि धार से बाहर निकल कर पूरे भारत में फैल गई थी। वे बाल गंगाधर तिलक और दीनानाथ शास्त्री चुलेट के साथ मिलकर वेदकाल निर्णय पर कार्य कर चुके थे। पचपन वर्ष की आयु में गले के केंसर के कारण असमय ही उन्होंने देह त्याग दी। तब मेरे पिता पंडित कमलाकांत जोशी पन्द्रह वर्ष के थे। उनसे छोटे दो भाई चंद्रदेव, सुरेंद्रनाथ और एक बहन सुशीला भी थी। पिताजी ने अपनी स्कूली शिक्षा जारी रखते हुए अपने छोटे भाई-बहनों को भी स्कूल में प्रवेश दिलाया। वे उनके पालन-पोषण में कोई कमी नहीं आने देना चाहते थे। पिताजी माँ की सेवा के साथ अपने भाई-बहनों की देखभाल करने लगे। वे स्वयं भी पितामह की तरह ऊपर उठता चाहते थे। गणित उनकी रुचि का विषय था, उनमें स्वाध्याय की लगन भी खूब थी।

पंडित रामचंद्र केशव जोशी चाँदनीवाले
पंडित रामचंद्र केशव जोशी चाँदनीवाले
 कमलाकांत चाँदनीवाला 'आचार्य होना सरल है, किन्तु सरल नहीं है जिम्मेदारियों का पहाड़ उठाकर चलते चले जाना।'
कमलाकांत चाँदनीवाला ‘आचार्य होना सरल है, किन्तु सरल नहीं है जिम्मेदारियों का पहाड़ उठाकर चलते चले जाना।’
धार के घर का मुख्य द्वार और उसकी सीढ़ियाँ। इनसे न जाने कितनी पीढ़ियाँ चढ़ी और उतरी।
धार के घर का मुख्य द्वार और उसकी सीढ़ियाँ। इनसे न जाने कितनी पीढ़ियाँ चढ़ी और उतरी।

कुछ दिनों बाद धार सरकार ने दीवान को यह जानने के लिये हमारे घर भेजा, कि स्वर्गीय रामचंद्र केशव जोशी के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का क्या प्रबंध है। पिताजी के बड़े भाई इन्दौर में रहने चले गये थे। दो बहनों का विवाह हो चुका था। शेष दो भाई और एक बहन पिताजी के साथ कठिनाई के दौर में थे। दीवान ने चारों बच्चों को देखा, उनसे देर तक सहानुभूतिपूर्वक बात की। यह तय किया गया कि चारों में बड़े कमलाकांत जोशी को धार सरकार की ओर से पढ़ने के लिये काशी भेजा जाये। उस समय तक काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में सर्वपल्ली डाॅ. राधाकृष्णन् कुलपति होकर आ चुके थे। उनके नाम धार सरकार ने अनुमति के लिये पत्र भेजा। कुलपति का जवाब आया कि धार सरकार कमलाकांत जोशी को नौ रूपये प्रतिमाह वजीफा देने को तैयार हो, तो विश्वविद्यालय प्रवेश दे सकता है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति सर्वपल्ली डाॅ. राधाकृष्णन्
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति सर्वपल्ली डाॅ. राधाकृष्णन्

यह बात वर्ष 1939 की है। पिताजी की आयु बीस वर्ष की थी। उनका चयन तो कर लिया गया। वे काशी जाने को बहुत उत्सुक भी दिखाई दिये। लेकिन वे अपनी जवाबदारी से पिंड कैसे छुड़ा सकते थे। घर में माँ और छोटे भाई-बहनों को छोड़कर काशी जाना उनके लिये बिल्कुल भी सहज नहीं था। वे अपने घर की चिन्ता करें या अपने कैरियर की? वे असमंजस में पड़ गये। कई दिनों तक सूझ ही नहीं पड़ी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और धार राज्य के दबाव ने उनके सोचने-समझने की शक्ति छीन ली। एक रात वे बिल्कुल नहीं सोये। सुबह-सुबह निर्णय ले लिया कि वे प्रतिमाह मिलने वाले नौ रूपये वजीफे में धार के घर का खर्चा भी उठायेंगे, और अपनी पढ़ाई का भी। यह भी तय कर लिया कि ग्यारह वर्षीय छोटे भाई सुरेंद्र को अपने साथ बनारस ले जायेंगे। प्रस्थान का दिन सुनिश्चित् हुआ। पिताजी अपने छोटे भाई को लेकर बनारस के लिये रवाना तो हो गये, लेकिन घर की चिन्ताएँ भी उनके पीछे-पीछे गईं।

बनारस में रुइया छात्रावास में जो कमरा उन्हें मिला, उसमें छः विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था थी। छोटे भाई को छात्रावास के कमरे में रहने की अनुमति कोई क्यों देता? छात्रावास के अपने नियम थे। छोटे भाई को बाहर ही रहना पड़ता। रात में पिताजी उसे छात्रावास के कमरे के बाहर दालान में सुला तो देते, लेकिन खुद सो नहीं पाते। तब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ाई का स्तर बहुत ऊँचा था। पंडित मदनमोहन मालवीय स्वयं व्यवस्थाएँ देखते थे। एक बार ऐसा भी हुआ कि पूस की ठिठुरती रात में कोई बारह बजे महामना मालवीय जी और  सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् निरीक्षण के लिये छात्रावास में आये, और पिताजी के कमरे का द्वार खटखटाया। संयोगवश द्वार पिताजी ने ही खोला। वे अपने सामने खड़े दो महापुरुषों को देखते ही चरणों में गिर पड़े। मालवीय जी ने बाहर दालान में सोये बच्चे के बारे में जानकारी ली। उनका मन भर आया, और छात्रावास से बाहर एक सद्गृहस्थ के परिवार में रहने की उत्तम व्यवस्था की।

इस बीच धार में पिताजी की माँ बीमार पड़ गई। छोटे भाई को लेकर भागते हुए आना पड़ा। एक दिन वह चल बसी। इसके साथ ही घर कई बड़ी समस्याओं से घिर गया। बार-बार धार आना पड़ता। नौ रूपये में दो जगह का खर्च बहुत कठिन मालूम होता था, किन्तु कोई विकल्प था नहीं। इधर द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण महंगाई बहुत बढ़ गई। पिताजी ने स्वयं डॉ. राधाकृष्णन् से मिलकर वजीफा बढ़वाने का निवेदन किया। वर्ष 1941 में राधाकृष्णन् की सिफारिश पर धार राज्य ने वजीफा तीन रूपये बढ़ाकर बारह रूपये कर दिया, तो कुछ राहत मिली।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ,महामना मदन मोहन मालवीय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ,महामना मदन मोहन मालवीय

 

बनारस की शाम गंगा किनारे घूमते हुए पिताजी अपनी पढ़ाई-लिखाई के खर्चे का जोड़ लगाते रहते। घूमते-घूमते उनका मन उछलकर धार की पौ-चौपाटी पर आ जाता। छोटे भाई-बहनों के सपने पिताजी की आँखों में तैरने लगते। भाई-बहनों की दुर्दशा का ख्याल आते ही वे अकेले में रो पड़ते।

 एक शाम बनारस की
एक शाम बनारस की

लीलावती गणित में भी उन्हें अपने घर का बिगड़ा हुआ गणित ही दिखाई देता था। ऐसा कई दिनों तक चलता रहा। धार के सूने घर में थोड़े से समय के लिये बहार तब आई, जब पिताजी गर्मी की छुट्टियों में धार आये, और उनका विवाह हुआ। विवाह तो हो गया, लेकिन बनारस तो लौटना ही था। घर का खर्चा तो पढ़ाई के वजीफे से ही चल रहा था। माँ धार के बड़े सारे घर में अकेली रह गई। वह बाट जोहती रही कि पति कब लौटेंगे आचार्य होकर। पिताजी रुइया होस्टल के बंद कमरे में रात-रात भर करवटें बदलते हुए सोचते-‘आचार्य होना सरल है, किन्तु सरल नहीं है जिम्मेदारियों का पहाड़ उठाकर चलते चले जाना।’

गायघाट वाराणसी में रुइया छात्रावास संस्कृत ब्लॉक
गायघाट वाराणसी में रुइया छात्रावास संस्कृत ब्लॉक

इन सबके बावजूद पिताजी ने ज्योतिष गणित और खगोलशास्त्र में गम्भीर अनुसंधान किये। काशी की विद्वत्सभा में उनका प्रभाव बहुत गहरा था। प्रमथनाथ तर्काभूषण, पंडित केदारदत्त जोशी उनके बहुत करीब थे। कुछ अकादमिक सहायताएँ पंडित दयाशंकर दुबे से मिलती थीं, जो धार के ही थे। वहाँ रहकर उन्होंने रमल विद्या और तंत्रविद्या भी सीखी, कुछ अनूठी सिद्धियाँ भी प्राप्त कीं।

वर्ष 1948 में पिताजी आचार्य होकर अंतिम रूप से धार लौट आये। वे अपनी विद्या को व्यवसाय के रूप में नहीं उतार सके। किसीके आगे हाथ फैलाना उन्हें पसंद ही नहीं था। एक स्वाभिमानी के भाग्य में जो कष्ट होते हैं, उनका सामना पिताजी को करना ही पड़ा। उन्हें लम्बे समय तक कोई पक्की आजीविका नहीं मिली। बाद में उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध खाद्य विभाग में ऊँचे से ऊँचे पद दिये गये, वे उन पदों पर रहे भी, लेकिन विभाग में व्याप्त आर्थिक भ्रष्टाचार को देख कर पिताजी ने वह नौकरी छोड़ दी। इस बीच छोटे भाई चंद्रदेव की अल्पायु में मृत्यु हो गई। समाज के लोगों ने पिताजी पर छोटे भाई की बीमारी को अनदेखा करने का आरोप लगाकर उन्हें बहुत दुःखी कर दिया। पिताजी पर चारों ओर से मार पड़ रही थी। आजीविका के लिये संघर्ष जारी था। प्राच्य विद्या काम नहीं आई।

ओजस्वी वक्ता पंडित कमलाकांत जोशी जी
ओजस्वी वक्ता पंडित कमलाकांत जोशी

उन्हें नये सिरे से आधुनिक विषयों के पाठ्यक्रम में प्रवेश लेना पड़ा। एम. ए. किया। फिर शिक्षक हो गये। महाराजवाड़ा स्कूल में एक दशक तक अध्यापन के बाद अपनी रुचि के अनुरूप उज्जैन स्थित जीवाजी वेधशाला में चले आये। वर्ष 1963 से 1980 तक वेधशाला-प्रमुख के रूप में रहे। पिताजी ने इस वेधशाला के विकास में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। कुछ यंत्रों के निर्माण करवाये, बीस वर्षों तक एफेमेरीज(दृश्य ग्रह स्थिति पंचांग) निकाली। महाकालेश्वर मंदिर के ज्योतिर्लिंग को कालगणना से जोड़ते हुए पिताजी ने जो तथ्य सबके सामने रखे, उन्हें पहले तो हाशिये पर डाल दिया गया, फिर विदुषी कपिला वात्स्यायन का समर्थन मिलने पर मान्यता मिली। ‘समय विवेचन’ पिताजी की महत्वपूर्ण कृति है।

उज्जैन -पंडित कमलाकांत चाँदनीवाला वर्ष 1963 से 1980 तक वेधशाला-प्रमुख के रूप में रहे
उज्जैन -पंडित कमलाकांत चाँदनीवाला वर्ष 1963 से 1980 तक वेधशाला-प्रमुख के रूप में रहे

वर्ष 1971 में पिताजी के जीवन में फिर एक भूचाल आया। माँ अचानक ही देवलोक चली गई। जैसे-तैसे उन्होंने स्वयं को दुःख सहन करने के लिये तैयार किया ही था, कि दो वर्ष बाद घर में एक और अनहोनी हो गई। घर की बड़ी बहू भी चल बसी। पिताजी बहुत टूट चुके थे, फिर भी हम चारों भाइयों की पढ़ाई-लिखाई, ब्याह-शादी के लिये आखिरी तक जूझते ही रहे।

पंडित कमलाकांत जी की पत्नी
पंडित कमलाकांत जी की पत्नी

छः अक्टूबर 1983 को चौसठ वर्ष की आयु में वे हमें छोड़कर चले गये, किन्तु वे उत्सव बनकर हम सबमें बसे हुए हैं। पिताजी हम भाई-बहनों का ही नहीं, पूरे कुटुंब का स्वाभिमान थे। उनकी जेब खाली रहती थी, लेकिन वे दुनिया के सबसे बड़े अमीर की तरह चलते थे। पिताजी की सुगंध आज भी घर के कोने-कोने में महकती है।

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डॉ. मुरलीधर चाँदनीवाला वेदों के विश्रुत विद्वान्

मुरलीधर चाँदनीवाला,रतलाम
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14. In Memory of My Father : समय से आगे चलते थे मेरे पिता