29.In Memory of My Father: स्मृति के अधिष्ठान पर अंतिम मंत्र : शाश्वत विराम के क्षण

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मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 29 th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं इंदौर से ‘अग्निधर्मा’ साप्ताहिक की संपादक डॉ शोभा जैन को। उनके पिता हरदा निवासी स्व. श्री प्रहलाद जी ‘दीवानजी’ ,लेखापाल थे .बही खातों का काम उनकी बेटी मार्मिक शब्दों में बार बार याद कर रही है .साथ ही उनके जीवन की सबसे अच्छी बात यह है कि उन्होंने अपनी बेटियों को पूरी  स्वतंत्रता दी हर उस काम की जो आत्मनिर्भर बनाती हैअपने पिताजी के जीवन के अंतिम पड़ाव को याद करते हुए बहुत भावभीनी कविता के साथ अपनी भावांजलि दे रही हैं डॉ. शोभा जैन …..

धीमेपन की प्रतिपूर्ति
मृत्यु की आहट के साथ
जब देह को अंतिम स्पर्श देती है
उस क्षण मृत्यु के अधिष्ठान पर
देवता आ चुके थे।
अंतिम क्षणों में पिताजी,
सिरहाने बैठी बहन से अपनी ‘अंतिम’ बात कह रहे थे।
भीतर की कितने वचन टूटे होंगे
माँ की तपस्याएं भंग हुई
सिरहाने बैठी बेटियों की आंखे भर गई
उस रीते होते क्षण से
कोई नन्हीं थाप थी जो
पिता की देह को रूपांतरण दे रही
अतीत का कुछ अधूरा समय भीतर गरज रहा था
अश्रु बाहर से बह रहे थे।
उस क्षण रात्रि के मानस पर
जैसे कोई लिख गया ‘काल’
मेरे जीवन का प्रलय तो निश्चित था।
—डॉ शोभा जैन

29.In Memory of My Father: स्मृति के अधिष्ठान पर अंतिम मंत्र: शाश्वत विराम के क्षण

मैंने उन्हें उन अंतिम तीन महीनों में अशक्त देखा… उस धीमेपन की प्रतिपूर्ति के साथ जो मृत्यु की आहट बनकर देह को अंतिम स्पर्श देती है।
उन दो दिनों में मैंने महसूस किया उनकी शारीरिक क्षमता जरूर लगभग शून्य हो चुकी थी लेकिन जिस चेतना के साथ वे हम सभी को जिम्मेदारियां सौंप रहे थे लगा भीतर की स्मितचिंता हमसे खुलकर बतिया रही हो।
अपनी परिपक्व आयु पिता को जीवन से जाते देखना उतना ही गहरा आघात है जितना एक पिता के लिए अपनीं संतान को मृत्यु शय्या पर देखना।
मेरे जीवन के सबसे निराशाजनक दिन यही थे। यही अक्टूबर का माह था जब मैं उनके साथ सबसे अधिक समय थी। जब वे पूरी तरह अस्वस्थ थे और पूरे 15 दिन वेंटिलेटर पर गुजारने के बाद एक वर्ष का समय उस जिजीविषा के साथ गुजारा कि नियति धीमेपाव बिना शोर अपना दायित्व निभा जाये हुआ भी यही ।

अपने जीवन में पहली बार घुटी हुई भावनाओं के साथ, उनके साथ समय गुजारा। वे कलम के साथ ही जिए जब तक जिए मुनीम जो थे । उन्हें दीवानजी के नाम से पुकारा जाता था लाल खाताबही में बड़े -बड़े हिसाब रखते थे । लेकिन उनके जीवन की उलझने बेहिसाब थी।उनके जीवन की सबसे अच्छी बात यह कि उन्होंने हम बेटियों को पूरी स्वतंत्रता दी हर उस काम की जो आत्मनिर्भर बनाती है। पढ़ने लिखने का पूरा परिवेश था घर में। वे नई सोच के साथ चलने वाले व्यक्ति थे।वे सीखा गये – दुनिया के तौर-तरीके कभी हमारे अनुकूल नहीं होते लेकिन उनसे जूझते हुए ही हम जीवन की उलझनों को समझ पाते हैं और अक्सर सुलझा भी पाते हैं। अंततः सच तो यही है जब तक जीवन है, संघर्ष है ।

 

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उनके देह रूपांतरण की जानकारी मुझ तक पहुँचने के बाद एक क्षण भी गवाए उन तक पहुंचते -पहुंचते शाम 5:30 बजे चुका था…
उन्हें घर से ले जा चुके थे हमने (दोनों बहनें जो इन्दौर में रहती है )रास्ते में ही गाड़ी रोककर माँ नर्मदा तीरे उनके अंतिम दर्शन किये।

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माँ नर्मदा जिसकी ऋषियों ने नर्मदा की स्तुति की.

अंतिम क्षण के तीन माह पूर्व उनकी स्थितियों को देखते हुए हम पांचो बहन भाई उनके साथ रहे| दो दिन मैं भी उनके साथ थी पूरी तरह । उन्हें ठीक उसी तरह अपने हाथ से कवा तोड़कर खिलाया जैसे बचपन में वे हमें खिलाते थे.. चाय पिलाई (जो उन्हें बहुत प्रिय थी )

एक छोटा सा कमरा, अंधेरे कुछ उजाले से भरा, एक लोहे का पलंग किसी बिछात की तरह आश्रय बना हुआ। उस पर चेहरे की चमक से दुबले पतले (अंतिम क्षण में कमजोर हो गये थे शारीरिक रूप से ) लगभग सिमट चुके पिता मंजरी आँखों से मंजर देख रहे थे उनके जीवन के बाद का..

सब कुछ अचिन्हा सा रहस्यमयी मेरे लिए जैसे कभी भी कोई चमत्कार हो सकता है.सामने हम सब बैठे (चारो बहनें )पलंग पर पैर के पास छोटा भाई जो उनके स्वास्थ्य ठीक  रहते कम ही उनसे मिला बल्कि किसी भी क्षण की कोई याद न जोड़ सका ।पाई पाई खाली था वह ।

उस दिन उनके देहवासन के तीन माह पूर्व जब हम भाई बहन साथ थे पूरा परिवार था साथ में|लेकिन उस कमरे में सन्नाटा भी पसरा था।मैं मन को समझा रही थी बहुत सारे खुरदुरे एहसास मुझे व्यग्र कर रहे थे।उन दो दिनों में मैंने महसूस किया उनकी शारीरिक क्षमता जरूर लगभग शून्य हो चुकी थी लेकिन जिस चेतना के साथ वे हम सभी को जिम्मेदारियां सौंप रहे थे लगा भीतर की स्मितचिंता हमसे खुलकर बतिया रही हो.

             उनके जीवन का यह आख़री सौपान था.. उनके साथ बिताया आख़री समय
           जैसे वे खाली होकर अचानक नहीं गये. सबकुछ सुनियोजित था उनके भीतर …….!

एक माह यहां इन्दौर के अस्पताल में (बॉम्बे हॉस्पिटल )में भर्ती रहे …15 दिन वेंटीलेटर पर रहे …(हम सभी के लिए अस्पताल का यह पहला अनुभव था )हम नियमित उनसे दो बार अस्पताल में मिलते | कम से कम उस समय तो पूरा परिवार इकट्ठा था अस्पताल मेँ पूरे एक माह | उस कक्ष मेँ जाने के बाद एक बुरे खयाल के साथ मैं वापस लौटती … वेंटीलेटर को लेकर कुछ बड़ी गलत धारणाएं बनी थी मेरे मन में जो टूटी |वेंटीलेटर से उठकर (पूरे 20 दिन बाद ) वे ख़ुद चलकर घर लौटे..

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लगभग डेढ़ वर्ष घर पर माँ की देख रेख में रहे …इन दिनो अपनी पसंद का खाने की इच्छा जताते लेकिन विवशताएं घेर लेती| अब तो उनके दिनचर्या से जुड़े सारे कार्य माँ ही एक बच्चे की तरह संभालती| सच ‘बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन होता है’ प्रेमचंद की कहानी में पढ़ा था उसे पिता में जिया |

वीडियो कॉल पर उनसे बात होती रहती..लेकिन मेरा मन उन्हें (असमय जाता देख अपने शिक्षक की तरह )देख आंसू से तर बतर हो जाता इसलिए बहनों से पूछने लगी | फोन लगाना बहुत कम कर दिया |
अंततः एक दिन सबकी नियति यही है | पिता सेहत को लेकर बहुत गंभीर थे | इसमें माँ की ही भूमिका सबसे अहम रही पिता के देह रूपांतरण के पहले हम में से किसी ने भी अस्पताल जैसी किसी जगह का मुंह तक नहीं देखा | छोटी मोटी तकलीफे मौसमी सर्दी जुकाम या अन्य बीमारी, घरेलु नुस्खों से आज भी ठीक करने की आदत है |

अंतिम क्षण में पिताजी ने सारे भाई बहनों को चांदी के गिलास कुछ सिक्के दिये।दीपावली पर जिनकी पूजन होती थी। मुझे अपने सारे स्याही पेन और लाल बहीखाते जो अब कोरे ही रहने थे ।मेरे सामने बहुत कुछ घूम रहा था।

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यह जीवन का वह क्षण था जब सारी रीती, नीति ,रसों के सभी स्थायी भाव -विराग में एक अभाव गहरा चुका था। ये स्मृति के अधिष्ठान पर अंतिम मंत्र, शाश्वत विराम के क्षण ही थे। भाग्य जब खंडित स्वरूप में प्रतिबिंबित होता है तब शायद ऐसे ही क्षण जन्म लेते हैं। उस क्षण वह केवल शोक नहीं था बहुत कुछ था वह जो शोक बनकर फूट रहा था।

चेतना शून्य मैं होना चाहती थी। अजीब सी पीड़ा, छटपटाहट वितृष्णा मुझे घेर रही थी।मैंने पिताजी से कभी कुछ न छुपाया गलत सही सब। मेरी बाल रचना के वे पहले पाठक होते थे।घर पर बाकी सब पढ़ाकू प्रवृत्ति के लेकिन साहित्य के पाठक सतही (माँ –पिताजी को छोड़कर )यही वजह थी उनकी डांट मैं लम्बे समय तक दिमाग़ में नहीं रखती थी।
अब उनके अंतिम समय की तकलीफ मेरी पीड़ा थी। लेकिन मुक्ति का मार्ग पलायन भी तो नहींकुछ यंत्रणाएं भोगनी ही पड़ती हैं। उनसे गुजरना नियति। गाय आकर खड़ी होती दरवाजे पर तो पिताजी हांफते हुए टुकड़ों -टुकड़ों में कहते गैया की रोटी ले आ ।वे चेतस बने रहे अंतिम शैया पर भी सब कुछ याद था उन्हें। पलकों की अंतहीन गुफा से बहता पानी निर्मल करता जा रहा था बहुत कुछ भीतर ही भीतर।

वे शून्य की परिधि में सिमटकर सबकुछ देख रहे थे कुछ कुछ खोया निर्विकार सादिन( 20 दिसंबर 2020 ) जब चिता की लपटों के साथ चिंता से मुक्ति की लौ उठ रही थी जो उनकी देह को चारों ओर से घेरे रही | अपनी उदास आँखों में (लगभग निराशा से भरी )बहुत दूर उन्हें देख रही थी |

अब उनसे जुड़े क्षण  जो जीवन के साथ अटूट बने…

हमारे घर की सुबह पूजन पाठ और घर के कैसेट वाले टेप रिकॉर्डर में बजते स्त्रोत भजन के साथ होती। घर के बच्चों की नींद खुलती माँ की पूजन से उठते होम की महक से लेकिन पिताजी तो रात में सोते ही नहीं थे ।वह और उनके बहीखाते चलते रहते रात भर (पिताजी लेखपाल जो थे )।उनकी लगभग दो चाय रात में बनती थी इतने में सुबह के 4 या कभी 5 तो बज ही जाते । रात्रि जागरण लगभग उनकी नियमित दिनचर्या थी।

वे सुबह- सुबह दो घंटे की नींद लेते थे । रात भर खाताबही पर कलम घिसते -घिसते कब सुबह के चार बज जाते और मां घड़ी से पहले उठकर घर के काम में जुट जाती यह दिनचर्या आज भी माँ की है।
देर रात तक लिखने पढ़ने की आदत मुझे पिताजी से ही विरासत में मिली।फर्क इतना है कि लिखना उनकी जीविका का साधन था जिससे हमारा परिवार चलता था। अपने परीक्षा के दिनों में हम पांचों भाई बहन रात्रि जागरण करते तब चाय की तपेली में 6 कप चाय एक साथ उबलती । हमारा परिवार रात्रि जागरण का उदाहरण था मोहल्ले में इसलिए आसपास के हम उम्र बच्चे भी अक्सर देर रात पढ़ने घर आ जाया करते थे उसी चाय में कभी -कभी उनके साथ हम भी चुस्कियां लेते और परीक्षा की तयारी करते। मोहल्ले की उस पतली सी गली जिसे वैधराज जी की गली कहा जाता में जहाँ लगभग 15 -20 परिवार रहते होंगे पढ़ने लिखने में अधिक रुचि रखने वाला परिवार था हमारा था क्योकि स्कूल कॉलेज की गतिविधियों में भी हम सब भाई बहन पूरे वर्ष जुड़े रहते थे जिसमें की जा रही तैयारी में पिताजी मेरे वाद विवाद और भाषण के पहले श्रोता होते थे ।

घर से लेकर पिताजी के कार्यस्थल तक उनके लाल खाताबही की बैठकी बिलकुल वैसी ही थी जैसी फिल्मों के मुंशियों की होती है ।
लकड़ी का एक बड़े से उदर वाला बक्सेनुमा डेस्क , उसका ढलान नुमा ढक्क्नन और घर का एक कोना बल्कि एक पूरी अलमारी उनके बहीखातों से महकती। जिसमें केमल स्याही की दवात काले , नीले दोनों रंग की और अमीरी रुआब वाले इंक पेन जिनका ढक्क्न सोने जैसा और शेष हिस्सा काला या महरून बिलकुल बारीक़ नीब वाला पेन और पिताजी की खूबसूरत लिखावट सभी भाई बहनों को विरासत मिली।

उनके देहवसान के बाद मुझे विरासत में उनके सारे पेन मिले जो आज मेरे पास सहेजे हैं। मैं उनसे लिखती हूँ आज भी।अपने जीवन के अंतिम दिनों में दो खाताबही जो पूरी तरह खाली थे उन्होंने अस्वस्थता के दिनों में मुझे सौंपे। पुराने खाता बही वर्ष पूरा होने पर जब खाली रह जाते थे पिताजी मुझे दे देते थे उन दिनों मैं डायरी और यात्रा संस्मरण अधिक लिखती थी घर और आसपास के अनुभव, स्कूल के अपने शिक्षकों पर पहली बार 150 पन्नों की हस्तलिखित कृति कक्षा बारहवीं में जब लिखी तो उसका रफ कार्य पिताजी के गैर जरुरी बहीखाते में ही किया। और विद्यालय के विदाई समारोह(बारहवीं कक्षा ) में उसे प्राचार्य को भेंट किया जिसकी तस्वीर में सदा पिताजी की स्मृतियों को जीवंत पाती हूँ ।

पिताजी की निजी अलमारी में वे सारी चीजें होती थी जिसे हम केवल स्टेशनरी की दुकान पर देखकर बड़े जिज्ञासु हो सकते थे। छटवीं सातवीं में रहते हुए बिना लाइन वाले कागज पर लिखना सीखना , बिना स्केल के सीधी पंक्ति में लिखना ,पेपर क्लिप लगाना, स्टेप्लर में पिन भरना , कागजों के बंच बनाकर पंचिंग मशीन से बराबर अंतराल में छेद करके उन्हें नीले बंध से बांधना यह सब बहुत जल्दी सीख लिया। केलकुलेटर पर रफ्तार से हाथ जमाना अब आदत में था । कक्षा ग्यारहवीं में आते -आते बटनों को देखने की जरूरत नहीं पड़ती पिताजी शुरू से ही छोटे – छोटे जोड़ लगाने का काम हम बच्चों को देते थे उस जोड़ की क्रॉस चेक होती बड़ी दीदी के द्वारा। बड़ी दीदी का गणित ज्ञान और हिसाब लगाने की गति पिताजी के जैसी ही।

प्राथमिक शिक्षा सरस्वती शिशु मंदिर में संस्कार अर्जित करते हुए की ओर ग्यारहवीं की पढ़ाई सरकारी स्कूल में की उन दिनों सरकारी शिक्षक बहुत जिम्मेदार आत्मीय होते थे मुझे मिले भी ।कॉमर्स लेने के बाद पिताजी से सीखे जमा नामे कॉमर्स की पढाई में बहुत काम आये। घर में दो केल्कूलेटर थे एक बड़ा एक छोटा। बड़ा पिताजी का, जिसका उपयोग वह बहुत ही कम करते थे । छोटा हम दोनों बहनों के लिए । इस प्रकार कागज, महत्वपूर्ण दस्तावेजों और रबर, पेन्सिल रेजर ,पंचिंग मशीन जैसे शस्त्र मेरे बचपन से ही साथी बन गये ।
पिताजी के बड़े से डिब्बे में यह सब उपलब्ध रहता। हम सब उनसे पूछकर ही उनके उस डिब्बे को खोलते। गलती से कोई चीज डिब्बे से गायब मिले समझो किसी ने बिना पूछे डिब्बा खोला है खोलने वाले की शाम को श्यामत आनी थी। डांट का पात्र बनना स्वाभाविक है। ऐसा ही कुछ परिवेश जीवन को गति देते चला गया।
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समय के साथ बहुत कुछ बदला सबके शादी ब्याह हो गए। पिताजी जो जीवन में कभी किसी डॉक्टर के पास नहीं गये अपने जीवन के अंतिम एक वर्ष पूरी तरह अस्वस्थता में गुजारे। यही वह अंतिम समय था जब वह अस्पताल में रहे और फिर कभी पूरी तरह स्वस्थ न हो सके। घर का परिवेश ही कुछ ऐसा था की कभी किसी को अस्पताल या डॉक्टर का मुंह नहीं देखना पड़ा। पिताजी ने कभी बाजार का कुछ नहीं खाया शाम की चाय तक वे घर आकर पीते थे। छोटे कस्बों में घर और कार्यस्थल की दूरी बहुत अधिक नहीं होती थी इतनी की पैदल आना जाना हो सके। कार्यस्थल पर बनी चाय पीते थे लेकिन बीच बाजार में होटलों पर खड़े होकर न कभी कुछ खाया न पिया। इस अनुशासन की आदत बहनों मे अधिक थी कि बाहर का बना खाना पीना लगभग न के बराबर ही रहा किसी विवशता में खाना पड़े तो बात अलग है लेकिन शोक से तो शायद ही कभी खाया हो ।

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पिताजी अपने परिवार के साथ

मैंने विवाह से पहले कभी पानी बतासे तक नहीं खाये। उन दिनों बाजार में ही इसे खाने का चलन था। पिताजी की यह आदत उनके रहन सहन और अनुशासित जीवन शैली का हिस्सा थी। मार्च एंडिंग में टैक्स के काम करते -करते रात भर जागने की उस समय सीमा को छोड़कर पिताजी के हर काम का समय तय था माँ ने इस समय अनुशासन का बहुत ध्यान रखा क्योकि वे स्वयं मिलेट्री परिवार से थी जहाँ समय के प्रति सख्त अनुशासन का नियम था नानाजी मिलेट्री के चिकित्सक थे एक बिलकुल छोटे से कस्बें(निमाड़ क्षेत्र के ) में उनका छोटा सा क्लिनिक भी था । माताजी को नानाजी से मिली घरेलु चिकित्सा और समय अनुशासन का प्रभाव बहनों में रहा । पिताजी इसलिए स्वास्थ्यगत विषयों को लेकर निश्चिन्त थे। पिताजी से समय के साथ कार्य का पूर्व नियोजन सीखा।

लेकिन उनकी अस्वस्थता वाला पूरा समय रुई की फाहों की तरह है स्मृतियों में जब भी भारी मन से गुजरता है चिपक जाता है मेरी देह से। घंटों एक टक डबडबाती आँखों से स्थिर रह जाती हूँ ।

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शोभाजी अपने पिताजी के साथ

डॉ शोभा जैन,इंदौर 
संपादक, समीक्षक
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