व्यंग्य
चुनावी साल : रेवड़ियों का कमाल……
हाल ही में देश की आर्थिक शोध एजेंसी एमके ग्लोबल की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि मुफ्त की रेवड़ियों से गड़बड़ा रही राज्यों की वित्तीय व्यवस्था । चुनावी साल में राजकोषीय संतुलन ताख पर रख देते हैं राज्य । वित्तीय व्यवस्था को लेकर इस तरह की रिपोर्ट पर ज्यादा माथा खपाने की जरूरत नहीं है । कारण , ऐसी एजेंसियों का काम ही है वित्तीय व्यवस्था पर शोध करना । आर्थिकी पर शोध करना आधुनिक परम्परा है , जबकि चुनावी साल में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की परम्परा दो दशक ज्यादा पुरानी है । ऐसे में किसी भी ऐजेंसी की एक सामान्य शोध रिपोर्ट पर दशकों पुरानी परम्परा को रोक देना उचित नहीं लगता ।
आखिर मुफ्त की रेवड़ियां बंटने में बुराई क्या है ? बिना बांटे तो एक कागज भी आगे नहीं सरकता है । हमारे पूर्वजों ने भी हमें यही बताया है कि बांट – चुट कर खाना चाहिए । बांट कर खाने से ही सबका साथ सबका विकास संभव होता है । फिर इस बात का क्या प्रमाण कि एमके ग्लोबल की रिपोर्ट पूरी तरह से सही हो । सही इस लिए भी नहीं लगती , कारण चांदी – सोने की कीमतों में रिकॉर्ड बढ़ोतरी के बाद भी दीपावली पर करोड़ों – अरबों का व्यापार हो गया । बाजार में जमकर धन बरसा , पूरे मौसम में इतनी तो बारिश भी नहीं हुई । उक्त जानकारी इस बात का प्रमाण है कि देश की वित्तीय स्थिति ठीक है । जब लोगों की वित्तीय स्थिति ठीक है तो राज्यों की वित्तीय स्थिति भी ठीक होनी चाहिए । मतलब यही कि एमके ग्लोबल की रिपोर्ट को ज्यादा गंभीरता से न ले । कारण , देश में जब कभी चुनावी साल हो और मुफ्त की रेवड़ियों का कमाल न हो ….. ऐसा हो नहीं सकता । ऐसा होना भी नहीं चाहिए । चुनावी साल कोई बार-बार थोड़े ही आते हैं । ये भी अधिक मास की तरह ही आते हैं ।
फिर चुनावी साल कोई सामान्य साल तो होता नहीं है । पूरे राजनीतिक भविष्य का सवाल होता है । ऐसे में येन-केन प्रकारेण जीत ही महत्वपूर्ण होती है । इस जीत के लिए अर्जुन की तरह लक्ष्य को साधना पड़ता है । जरा सा भी चुके कि गए । यानी मत चुके चौहान वाला मूल मंत्र ध्यान में रखना होता है । इस हेतु रेवड़ियां तो क्या , और भी बहुत कुछ बांटना पड़ता है । नहीं बांटे तो मतदाताओं का एक तबका चुनाव पूर्व ही एक्ज़िट पोल की तरह हार-जीत का फैसला कर देता है । ऐसे में एमके ग्लोबल जैसी एजेंसियों की जांच रिपोर्ट को धत्ता बताते हुए आप अपना काम करें । अरे ! जब रेवड़ियां बांटने वाला खुश , पाने वाला खुश तो फिर तीसरे को संताप क्यों ? राज्यों की वित्तीय स्थिति को लेकर जिस किसी के भी पेट दुख रहे हो , दुखने दें । उन्हें गीता के इस सूत्र वाक्य का भान कराए कि ” तुम्हारा क्या गया , जो तुम रोते हो ? तुम क्या लाए थे , जो तुमने खो दिया ? फिर हमने… ” जो दिया , यहीं पर दिया । जो लिया , इसी से लिया । जो दिया इसी को दिया । ” लोकतंत्र की परिभाषा में भी तो ‘ जनता का , जनता के लिए , जनता द्वारा …. उल्लेखित है । ‘ इसलिए व्यर्थ की बातों पर ध्यान न देकर गीता के बताए मार्ग पर ही आगे बढ़े .. यानी …’ जो हुआ , वह अच्छा हुआ । जो हो रहा है , वह अच्छा हो रहा है । जो होगा , वह भी अच्छा होगा । तुम भूत का पश्चाताप न करो , भविष्य की चिंता न करो । वर्तमान चल रहा है । ‘ ऐसे में वर्तमान को सुधारना है तो रेवड़ियां तो बांटनी ही होगी । जी भरकर रेवड़ियां बांटो । कर्ज लेकर भी अपना फर्ज निभाना मत भूलो ।
– डॉ . श्रीकांत द्विवेदी
* डॉ . श्रीकांत द्विवेदी
* 6 , महावीर मार्ग , धार
* 04 नवम्बर 2024
* 9406835883