Vijaypur Election Review : विजयपुर के सबक से लोकतंत्र ज्यादा मजबूत हुआ!
– हेमंत पाल
विजयपुर विधानसभा के उपचुनाव में न कांग्रेस जीती और न भाजपा हारी, वहां सिर्फ लोकतंत्र जीता। यहां के वोटरों ने सभी दलबदलुओं को संदेश दिया कि लोकतंत्र के साथ मजाक करना ठीक नहीं। विजयपुर सीट से रामनिवास रावत कांग्रेस के टिकट पर लगातार 6 बार चुनाव जीते। कांग्रेस की सरकार बनी, तो उन्हें मंत्री भी बनाया गया। लेकिन, इस बार जब भाजपा की सरकार बनी, तो उनका मन फिर मंत्री बनने के लिए डोल गया। उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। भाजपा ने भी उन्हें कैबिनेट मंत्री तक बना दिया। लेकिन, जनता ने उनके फैसले को नकार दिया। उपचुनाव में उनकी हार राजनीतिक स्वार्थ के लिए दलबदल करने वालों के लिए एक सबक है।
रामनिवास रावत की हार का एक बड़ा कारण यह भी माना जा सकता है कि उन्होंने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा तो कर दी, पर इस्तीफ़ा तब तक नहीं दिया जब तक उन्हें वादे के मुताबिक मंत्री नहीं बनाया गया। भाजपा ने जब उन्हें वन एवं पर्यावरण मंत्री बनाया, तब उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया। ये ऐसी घटना थी, जिससे रावत का निजी लालच स्पष्ट होता है। लेकिन, इससे जनता की नाराजगी उभरकर सामने आई। लोगों को नजर आ गया कि उनके नेता ने सिर्फ मंत्री बनने के लिए ही कांग्रेस छोड़ी है! किसी भी नेता का राजनीतिक स्वार्थ का यह चरम था, जो उनके गले पड़ गया।
जनता ने इस उपचुनाव में जो फैसला दिया उसके कई मायने हैं। लेकिन, सबसे बड़ा इशारा यही है, कि वोटर किसी की मिल्कियत नहीं होते! वे लोकतंत्र के प्रहरी होते हैं और विजयपुर में यही सच सामने आया। यह सीट सालों तक कांग्रेस का गढ़ रही। जब भाजपा की आंधी चली, तब भी विजयपुर में कांग्रेस का झंडा गड़ा रहा! यही कारण था कि रामनिवास रावत ने इस सीट को अपनी बपौती समझ लिया। जबकि, वास्तव में ये वोटरों का अपना नजरिया था। जब रावत ने दलबदल किया, तो वे ग़लतफ़हमी में थे कि चुनाव जीतना उनके लिए बड़ी चुनौती नहीं है। लेकिन, यही भ्रम उन पर भारी पड़ गया। जनता ने उनके फैसले को स्वीकार नहीं किया और एवीएम में अपना फैसला दर्ज किया, जो लोकतंत्र के पक्ष में गया।
यदि हार के कारणों की गिनती की जाए, तो भाजपा में दलबदलुओं के खिलाफ असंतोष भी है। भाजपा जिस तरह से कांग्रेस में तोड़फोड़ की, वो भाजपा के बड़े नेताओं को रास नहीं आया। भूपेंद्र सिंह और अजय विश्नोई जैसे नेता इस मामले में अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं। ये नेता कई बार बोल चुके हैं कि ऐसे दलबदलू नेताओं की वजह से पार्टी की अंदरूनी राजनीति प्रभावित हो रही है। बताते हैं कि यही असंतोष विजयपुर में भी पसरा और कई भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं ने गंभीरता से इस चुनाव में मेहनत नहीं की। यानी हार का कारण भाजपा के अंदर भी मौजूद रहा!
कहा तो यह भी जा रहा है कि चुनाव जीतने वाले मुकेश मल्होत्रा ने भी दलबदल किया। यह सच भी है कि वे पहले भाजपा में थे, जब पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया, तो वे निर्दलीय खड़े हो गए। वे भले चुनाव हार गए, पर उन्हें अच्छे वोट मिले। इन्हीं वोटों ने कांग्रेस को आकर्षित किया और रामनिवास रावत के सामने उन्हें उम्मीदवार बनाया गया। जनता के दिल में रामनिवास रावत को सबक सिखाने की मंशा थी, तो उन्होंने मुकेश मल्होत्रा के पक्ष में वोट दिए और उनकी जीत दर्ज हो गई। यह भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने कांटे से कांटा निकाल दिया।
मुकेश मल्होत्रा 2023 तक भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता रहे। भाजपा राज में ‘शहरिया विकास प्राधिकरण’ के अध्यक्ष भी रहे। 2023 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने विजयपुर सीट से भाजपा से टिकट मांगा। लेकिन, पार्टी ने उन पर भरोसा नहीं किया। नाराज मुकेश मल्होत्रा निर्दलीय चुनाव मैदान में उतर गए और 44128 वोट हासिल किए। 2024 में लोकसभा चुनाव के दौरान मुकेश मल्होत्रा कांग्रेस में आ गए। उपचुनाव में कांग्रेस ने उन पर भरोसा किया और वे उस भरोसे पर खरे भी उतरे। उन्होंने विजयपुर में कांग्रेस का सातवीं बार झंडा गाड़ दिया।
इन दो सीटों के उपचुनाव की एक खास बात ये भी रही कि दोनों सीटों के वोटरों ने अपनी विचारधारा नहीं बदली। विजयपुर में 6 बार चुनाव जीते रामनिवास रावत इस बार पार्टी बदलकर मैदान में थे! पर वोटरों ने उनके साथ पार्टी नहीं बदली, उन्होंने कांग्रेस के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बरक़रार रखा। वही स्थिति बुधनी विधानसभा सीट पर भी रही, जहां से पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 5 बार चुनाव जीते थे। उन्हीं के इस्तीफे से खाली हुई इस सीट पर वोटरों ने भाजपा का साथ नहीं छोड़ा। यानी विजयपुर के वोटरों ने कांग्रेस का हाथ नहीं छोड़ा, तो बुधनी के वोटर भाजपा के साथ रहे।
नतीजों को देखकर कहा जा सकता है कि मध्यप्रदेश में विधानसभा उपचुनाव का यह मैच टाई रहा। लेकिन, राजनीतिक नजरिए से भाजपा के लिए बुधनी की जीत से बड़ा झटका विजयपुर की हार रहा। क्योंकि, अमूमन सत्ताधारी पार्टी उपचुनाव में कम ही हारती है। डॉ मोहन यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह पहले उपचुनाव थे, जो एक तरह से उनकी अग्निपरीक्षा थी। साथ में विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र तोमर की प्रतिष्ठा भी रामनिवास रावत की जीत पर टिकी थी। वे ही उन्हें भाजपा में लाए और मंत्री भी बनवाया। उपचुनाव में वे प्रचार करने भी गए, लेकिन जीत दर्ज नहीं करा सके। ध्यान देने की बात यह भी है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया इस चुनाव से दूर रहे। यदि वे प्रचार से जुड़ते, तो निश्चित रूप से फर्क पड़ता।
अंत में यही कहा जा सकता है कि दल बदलकर करके भाजपा में आए और मंत्री होने के बावजूद चुनाव हार गए रामनिवास रावत ने उन नेताओं को चेता तो दिया कि दलबदलू विचारधारा हमेशा वोटरों को स्वीकार्य नहीं होती। वोटरों से धृष्टता करके जो नेता चुनाव जीते, वो उनका कोई हथकंडा रहा होगा।लेकिन, हमेशा यह फार्मूला सफल नहीं होता और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है विजयपुर उपचुनाव का नतीजा। अब लोगों की नजरें बीना की विधायक निर्मला सप्रे पर टिकी हैं कि वे क्या फैसला करती हैं! क्योंकि, वे भी राजनीतिक उलझन में फंसी हैं। वे कांग्रेस से चुनाव जीतकर दल बदलकर करके भाजपा में शामिल हुई। लेकिन, अभी तक कांग्रेस से इस्तीफ़ा नहीं दिया। उधर, कांग्रेस ने उनकी विधायकी ख़त्म करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष के सामने अपनी दलील पेश कर दी। रामनिवास रावत के हश्र के बाद उनकी चिंता निश्चित रूप से बढ़ेगी, क्योंकि उन्हें भी भविष्य में उपचुनाव का सामना करना ही है।