कथा फूफा की 

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कथा फूफा की 

 

मुकेश नेमा

जब एक बार आप फूफा होना मंजूर कर लेते हैं तो ज़िंदगी बड़ी आसान हो जाती है। मोह माया के बंधन से मुक्त हो जाते हैं आप। मान अपमान जैसी वृत्तियों से दूर संन्यास की अवस्था है ये। जब भी आप फूफा हो जाने के लिए राजी हो जाते हैं तो संसार से ऊपर उठ जाते हैं और ईश्वर के नज़दीक हो जाते है।

फूफा होते ही यह मान लेती है दुनिया कि अब आप किसी काम के नहीं रहे। वह आपसे उम्मीदें लगाना छोड़ देती है ऐसे में आप ज़्यादा स्वतंत्र और सहज हो जाते है। फूफा होना हल्का हो जाना है। आप सभी बंधनों से मुक्त हो जाते है और दुनिया की नज़रों से दूर होकर सारे छिन्द्रान्वेषियो से छुटकारा पा लेते है।

फूफा होना विराट कोहली से गौतम गंभीर हो जाना है। ऐसे में फ़ील्ड में कोई नया लड़का बैंटिग करता है और आप बस नागरिक अभिनंदन करवाने और कामेन्ट्री करने लायक़ ही रह जाते हैं। जो बंदा किसी भी तरह का रोल पा लेने को ईश्वर इच्छा मान कर संतोष कर ले। हर परिस्थिति में सकारात्मक बना रहे ,उसी में ख़ुशियाँ तलाश ले वो आदमी ही फूफा होने के डिप्रेशन से पार पा सकता है।

फूफा होना उपदेशक हो जाना है। आप ब्रम्ह सत्य ,जगत मिथ्या जैसे चिंतन करने लगते हैं।हमें किसी से क्या लेना है भाई। जो ठीक लगता है कर लो। हमसे मत पूछो यार। ऐसी बातें करते किसी विरक्त आदमी से मिले तो मान लीजिये कि ये आदमी फूफा हो चुका। और बाक़ी ज़िंदगी भी उसे इसी फूफत्व के साथ गुज़ारनी है।

फूफा होना अतीतजीवी हो जाना है। अच्छा भला आदमी ,हमारा ज़माना अच्छा था ,अब तो टाईम ख़राब आ गया है , जैसी बातें करने लगता है। ये बात अलग है कि सुनने वाला कोई होता नहीं है और उसे अपने आप से बात करके काम चलाना पड़ता है।

फूफा को रह रह कर गुज़रा हुआ ज़माना याद आता है। उसे अपने बाप दादाओं की अमीरी याद आती है। सात गाँवों की ज़मींदारी थी हमारे दादा के पास। हाथी बंधा रहता था दरवाज़े पर। बाप फलाने विभाग के बड़े अफ़सर थे। क्या दबदबा था उनका। ये बात अलग है कि ये सब कहानियाँ सुनाने वाला आदमी खुद सादा जीवन ,उच्च विचार जैसी चीज होता है। फूफा होते ही आदमी सीधा हो जाता है और जो सादा होता है वही फूफा होता है।

जब कोई बंदा साले की लड़की की शादी में आये लिफ़ाफ़े सहेजने जैसे काम को महत्वपूर्ण मान लेता है। और कैटरर को बेवजह डाँट कर संतुष्ट हो जाता है। इस अवस्था को फ़ूफा होने की गति को स्वीकार कर लेने की स्थिति कहा जाता है। जो फूफा बिना मुँह बनाये ये सब कर पाता है उसे यदा कदा चरण स्पर्श जैसे सुख मिलते रहते है।

फूफा होना ड्राइंगरूम के क़ीमती फूलदान से कोने में पड़े बुकशेल्फ़ की धूल खाती धार्मिक किताब हो जाना है। ऐसी किताब जिसे अब कोई नहीं पढ़ता और वो ड्राइंगरूम में केवल इसलिये रखी गई है क्योंकि कभी ख़रीदी गई थी और अब फेंकी नहीं जा सकती।

फूफा वो हुक्का है जिसे गुड़गुड़ाया जा चुका। अपने हिस्से के बसंत देख चुका जीजा होता है वो। ऐसा जीजा होता है वो जिसे इस्तीफ़ा देने से ना-नुकर करने की वजह से बर्खास्त किया गया है। सच्चाई यही है कि कारवां गुज़र चुका होता है उसका और उसके हिस्से में ग़ुबार भर बचा होता है। ऐसे में जो फूफा परिस्थितियों का क़ायदे से विश्लेषण कर पाते है ,पतझड़ में जीना सीख लेते हैं ,समझौता वादी होते है ,मंज़ूर कर लेते हैं फूफा होना। वो ही अपने शेष बचे खुचे जीवन में सुखी रह पाते है। मरते वक्त उन्हें ज्यादा मलाल नही होता और मरने के फौरन बाद वो मोक्ष के अधिकारी होते हैं।