Strange Paradox: विकास की राजनीति करने वाले CM मोहन यादव कब तक करते रहेंगे पार्टी की राजनीति का सामना!
राजनीति बड़ी गजब कला है। कहते हैं असंभव को संभव बनाने का प्रयास राजनीति है। और इन संभावनाओं को सपनों की तरह बेचना चुनाव है।
पिछला पूरा सप्ताह कांग्रेस की “गुल्लक राजनीति” और दिल्ली में संविधान के पोस्टमार्टम पर गुजरा।
मध्य प्रदेश में अगला चुनाव 2028 में होगा। परंतु प्रचंड बहुमत की भाजपा सरकार के सत्ता की गलियारों में दमदार विपक्ष की भूमिका कांग्रेस की नहीं होकर भाजपा के प्रादेशिक नेताओं की दिखाई दे रही है। कांग्रेस की महत्वाकांक्षा को पूरा होने में अभी कम से कम 4 साल है। परंतु वरिष्ठ भाजपा विधायक,पूर्व मंत्री एवं राष्ट्रीय नेताओं की महत्वाकांक्षा किसी भी दिन किसी भी क्षण पूरी हो सकती है। इस सिद्धांत के आधार पर सत्ता के गलियारों की आवाज समझना और सुनना मोहन सरकार के लिए जरूरी हो गया है।
कैबिनेट की मीटिंग की चर्चाएं और विधानसभा में लगे प्रश्न तथा उसके बाद सागर के एक वरिष्ठ नेता का बयान यह बताता है, कि सत्ता की चाशनी ने संगठन को कमजोर कर दिया है
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शिवराज सरकार में नंबर दो या नंबर तीन की भूमिका में रहे दोनों नेता यथा नरोत्तम मिश्रा एवं भूपेंद्र सिंह अपने कद और ओहरे के साथ-साथ प्रशासनिक अनुभव में दक्ष है। दोनों ही राजनीतिक शतरंज के माहिर खिलाड़ी हैं।
कल्पना कीजिए कि यदि नरोत्तम मिश्रा चुनाव नहीं हारते तो उनका कद आज क्या होता ? गोपाल भार्गव और भूपेंद्र सिंह तथा जयंत मलैया एवं अजय बिश्नोई के समकक्ष कद- काठी एवं राजनीतिक विचार तथा प्रशासनिक प्रभाव वाला कौन सा उपमुख्यमंत्री या मंत्री मुख्यमंत्री की कैबिनेट में है?? यदि कैलाश जी की बात की जाए तो उनकी छवि राष्ट्रीय स्तर की है। प्रदेश के प्रत्येक जिले, विकासखंड तथा बूथ में कैलाश जी का कोई ना कोई कार्यकर्ता काम करता रहता है। इंदौर में यदि टेलिस्कोप से संगठन को देखा जाए तो स्पष्ट दिखता है कि आधे भाजपा के कार्यकर्ता है और आधे कैलाश जी के कार्यकर्ता है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कैलाश जी का जो प्रभाव है वैसा प्रभाव किसी भी दल के किसी नेता का आज प्रदेश में नहीं है।
क्या गोविंद राजपूत मंत्री होते हुए भी गोपाल भार्गव, जयंत मलैया, अजय बिश्नोई या भूपेंद्र सिंह से अधिक प्रभाव रखते हैं?? शायद नहीं।
भाजपा में संगठन सर्वोपरि है। परंतु वर्तमान में संघनिस्ट संगठन कार्यकर्ता पूर्ण सर्वोपरि है। और इस दृष्टि से मोहन यादव पूर्ण है। मोहन यादव जी ने पिछले 1 साल में जो तूफानी मेहनत की है, चाहे वह इन्वेस्टर्स मीट के माध्यम से हो या प्रशासनिक पकड़ और दक्षता के माध्यम से हो यह दिल्ली को साधने के लिए हो। उनकी मेहनत पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। उनकी नीयत पर भी कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। परंतु गड़बड़ कहां है? ऐसा क्या हो गया है कि असंतोष का स्वर सीनियर और प्रभावी भाजपा नेताओं के माध्यम से सदन और कैबिनेट में आ रहा है। कांग्रेस के राजनीतिक विरोध से ज्यादा आंतरिक भाजपाई विरोध हावी है।
राज्य का सूचना तंत्र भी यही कहता है, कि संगठन इस असंतोष और गैर बराबरी के स्वर को विचारधारा की कसौटी पर नहीं कस पा रहा है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने विचारधारा को द्वितीय श्रेणी में ला दिया है। भाजपा में महत्वाकांक्षा का समाजवाद है। सभी विधायक मंत्री बनना चाहते हैं। कुछ उपमुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। और कुछ मुख्यमंत्री भी बनना चाहते हैं। कोई भी विधायक कार्यकर्ता नहीं बनना चाहता। वह कार्य करवाने वाला कर्ता बनना चाहता है।
मोहन यादव विकास की राजनीति करते हैं। परंतु उन्हें सामना करना पड़ता है पार्टी की राजनीति का। यह अजीब विरोधाभास है। क्या यह सत्य नही है कि महत्वाकांक्षा की लगाम उसकी पूर्णता या आधी पूर्णता पर ही निर्भर करती है ? सरकार के मुखिया के लिए विधायकों की योग्य वरिष्ठता और उनका कद चुनौती बन गया है। क्या राज्य नीति आयोग का अध्यक्ष बनाकर गोपाल भार्गव के अनुभव, योग्यता और वरिष्ठता का उपयोग नहीं किया जा सकता। विद्युत नियामक आयोग जैसे पब्लिक जेनरेट संस्थान में क्या जयंत मलैया उपयोगी नहीं हो सकते ? जो सीधे जनता को प्रभावित करेंगे ? प्रदेश में बढ़ रही निजी एवं शासकीय स्वास्थ्य सेवाओं तथा उनके मानक स्तर को बनाए रखने के लिए निर्मित किसी भी आयोग में क्या अजय बिश्नोई उच्चतम परफॉर्म नहीं कर सकते हैं?
क्या भूपेंद्र सिंह इंटर स्टेट जल एवं ऊर्जा जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर बने किसी भी आयोग में उच्चतम अंशदान प्रदेश की सरकार एवं जनता को नहीं दे सकते ?
कुल मिलाकर अनुभव और योग्य वरिष्ठता को जब भी सीमित किया गया है न संगठन बचा है और न सरकारें बची है। 75 वर्ष का भारतीय राजनीति का इतिहास कुछ ऐसे ही घटनाओं का साक्षात इतिहास है। वर्तमान भाजपा सरकार एवं संगठन में निपटाने की राजनीति से ज्यादा आवश्यक है, सामंजस्य की राजनीति कर मोदी विजन को मजबूत करना। मध्य प्रदेश देश का ही नहीं बल्कि भाजपा का हृदय स्थल है। फिलहाल भाजपा के हृदय स्थल में कोलेस्ट्रॉल बढ़ता जा रहा है। समय रहते इसका ऑर्गेनिक ट्रीटमेंट जरूरी है। यदि समय रहते हृदय की देखभाल नहीं की गई तो बाईपास सर्जरी ही इलाज होगा।
विजयपुर के परिणाम यह बताते हैं कि कहीं ना कहीं कुछ कमी है।और कहीं ना कहीं कुछ तो गड़बड़ है। बुंदेलखंड और बघेलखंड के साथ महाकौशल की सियासत संगठन और सरकार से नाखुश है। लोहिया जी ने कहा था जिंदा कौम इंतजार नहीं करती। अभी भी मध्य प्रदेश की राजनीति में भाजपा सरकार के मुखर विरोधी वहीं भाजपा विधायक हैं, जो लोहिया को जानने वाले अंतिम पीढ़ी के नेता है।
जब वृक्ष और नेता का कद बड़ा हो जाए, तो उसे पूज्य वृक्ष मानकर जल अर्पित करना उचित होगा। क्योंकि वृक्ष और कद को रोकना तथा उसकी आलोचना दोनों नुकसानदेह साबित होंगे। इसमें संदेह नही।