An Agonising Session of Parliament: संसद का कष्टप्रद सत्र
एन के त्रिपाठी
संसद का एक और कष्टप्रद सत्र पिछले शुक्रवार को समाप्त हो गया। पिछले 12-13 वर्षों से भारत की संसद एक हो-हल्ले का तमाशा बन कर रह गई है। किसी प्रकार कुछ संवैधानिक एवं विधायी आवश्यकताएं पूरी करी जाती हैं और बजट पास करने का कार्य हो जाता है। परंतु प्रजातांत्रिक परंपराओं के अनुसार वास्तविक समस्याओं पर गंभीर विचार विमर्श अब अतीत की बात हो गई है। बहुत वर्षों से संसद में कोई यादगार भाषण नहीं हुआ है। मनमोहन सिंह की सरकार के अंतिम वर्षों के समय से होश संभालने वाली पीढ़ी ने संसद को ढंग से चलते ही नहीं देखा है। इस पीढ़ी की संसदीय कार्यवाही में कोई रुचि भी नहीं रह गई है।
लोक सभा चुनाव के बाद हुए सत्र में नियमित बजट पास करने के अतिरिक्त कुछ और चर्चाएँ भी हुई। विपक्ष और कांग्रेस के संतोषजनक चुनाव परिणामों के कारण उनमें आत्मविश्वास लौटा था। राहुल गांधी के अपेक्षाकृत संयत भाषण को अनेक टीकाकारों ने ध्यान से सुना था। हरियाणा और महाराष्ट्र की अप्रत्याशित हार से कांग्रेस पुनः विगत वर्षों के ढर्रे पर लौट आयी है।राहुल गांधी ने विपक्षी मोर्चे की एक सुनियोजित रणनीति का नेतृत्व करने के स्थान पर अमेरिका के कोर्ट में प्रस्तुत प्रकरण के आधार पर अडाणी पर तत्काल चर्चा की माँग की। यह उनका व्यक्तिगत एजेंडा था। उनका आरोप अडाणी के साथ-साथ सीधे मोदी पर था। मोदी पर अडाणी से मिले होने और उनका बचाव करने का आरोप बिना किसी साक्ष्य लगाया जा रहा था। किसी भी प्रजातंत्र की सरकार सीधे प्रधानमंत्री पर बिना साक्ष्य के किसी आरोप पर चर्चा करने के लिए तैयार नहीं हो सकती है। कांग्रेस को भी यह भलीभाँति मालूम था कि चर्चा नहीं होगी परंतु संसद में हंगामा और संसद के परिसर में तरह-तरह के प्रदर्शन करने का अवसर उसे मिला। आश्चर्यजनक रणनीति के तहत सत्ता पक्ष ने भी सोरोस के बहाने से संसद में हंगामा कर के अडाणी पर चर्चा न कराने का दृढ़ निर्णय ले लिया था। सपा और टीएमसी जैसे बड़े आकार वाले मित्र दलों के असहयोग के कारण अडाणी का मुद्दा ठंडा पड़ा और संभल तथा अन्य कुछ विषयों पर चर्चा हुई। संसद का लगभग आधा समय व्यर्थ चला गया। बचे हुए आधे समय में विशेष रूप से संविधान पर चर्चा हुई।संविधान की चर्चा का स्तर हास्यास्पद था तथा वही पुराने आरोप दोनों तरफ़ से लगाए गए। बात जवाहरलाल नेहरू तक पहुँची। कांग्रेस सरकारों का स्वयं का संवैधानिक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। फिर भी कांग्रेस ने अपने वर्तमान रूप में भाजपा पर संविधान को बदलने और डॉक्टर अंबेडकर का अपमान करने का आरोप लगाया। आरक्षण को समाप्त करने या किसी भी रूप में कम करने की बात अब कोई भी राजनैतिक दल सोच भी नहीं सकता है। परन्तु समाज की आवश्यकताओं को देखते हुए संविधान को बदलना कोई पाप नहीं है। भारतीय संविधान समय समय पर बदलना ही चाहिए। संविधान सभा भी इस बात पर आश्वस्त थी कि आने वाली पीढ़ियाँ अपनी आवश्यकता के अनुसार संविधान में संशोधन करती रहेंगी। यह सत्र संविधान सभा द्वारा संविधान की स्वीकृति के 75 वर्ष बाद गंभीर चिंतन के बजाए सतही चुनावी राजनीति की भेंट चढ़ गया। आरक्षण समाप्त करने तथा संविधान को बदलने का प्रचार विपक्ष के लिए वोटों की वर्षा लेकर आया था, इसलिए वे अभी भी अम्बेडकर के मुद्दे का पूरा चुनावी दोहन करना चाहते हैं।अमित शाह के कुछ वाक्य इसके लिए नया शिकार बन गए हैं।
लोक सभा के स्थान पर इस बार राज्य सभा एक बड़ा अखाड़ा साबित हुई। राज्यसभा 43 घंटे चली जिसमें 10 घंटे विधेयकों पर बातचीत हुई तथा 17 घंटे संविधान के नाम पर व्यय किए गए।
राज्यसभा के अध्यक्ष अर्थात उपराष्ट्रपति धनखड़ कुल मिलाकर स्वयं चार घंटे बोले। उन्हें हटाने के प्रस्ताव का भी प्रयास किया गया। इस सत्र में वन नेशन वन इलेक्शन का विधेयक अवश्य संसद में प्रस्तुत किया गया जिसे संसदीय समिति को सौंप दिया गया।
सत्र का समापन पक्ष और विपक्ष के बीच धक्का- मुक्की और आपराधिक शिकायतों के साथ हुआ। फ़िलहाल भारत की संसद ताइवान और पाकिस्तान की संसदों की स्थिति तक नहीं पहुँची है। परंतु लगता है कि हमारे धुरंधर जनप्रतिनिधि उन देशों के कीर्तिमान को भी ध्वस्त कर के देश को स्तब्ध कर देंगे।