मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता।इस श्रृंखला की 53 rd किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है लखनऊ की कवयित्री / लेखिका इरा श्रीवास्तव को। वे हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार श्री कामतानाथ की छोटी बेटी है। साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कहानीकार कामतानाथ रिजर्व बैंक से सेवानिवृत्त हुए थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन एक प्रतिबध्द लेखक के रूप में साहित्य को समर्पित कर दिया था.हिंदी साहित्य की दुनिया उन्हें आज भी बेहद सम्मान से याद करती है.कामतानाथ के लगभग छह उपन्यास और ग्यारह कहानी संग्रह प्रकाशित हुए . उन्हें ‘ पहल सम्मान ‘, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद का ‘ मुक्तिबोध पुरस्कार ‘, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘ यशपाल पुरस्कार ‘, ‘ साहित्य भूषण ‘ तथा ‘ महात्मा गांधी सम्मान मिला था। वे आम आदमी के जीवन से कथानक उठाते हुए कथारस से सरोबार कहानियों के रचनाकार थे। उनकी कहानियां जनपक्षधरता, हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमुनी तहजीब और गहन सामाजिक संवेदनशीलता की होती थीं. उन्होंने न केवल मजदूर जीवन पर यादगार कहानियाँ लिखी बल्कि वे अनेकों बार उनके आंदोलनों में शरीक भी हुए. बैंक की नौकरी करते हुए भी उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से एक अलग पहचान बनाई । कामतानाथ बेहद सादगी भरे मगर विलक्षण प्रतिभा के असाधारण व्यक्तित्व थे. उनकी बेटी भी बहुत गंभीर कवितायें लिखती हैं. यहाँ बहुत ही मार्मिक स्मृतियों के साथ उन्हें भावांजलि दे रही हैं इरा श्रीवास्तव। …………
ठूंठ”
पिता के जाने के बाद
उनकी अनुपस्थिति का अहसास
सबसे अधिक कही नुमाया हुआ
तो वो मां का सूना माथा था
बैठक में
पिता की मेज पर खुली उनकी किताबें
एक बारगी ये भ्रम दे भी देती
के अभी वो कही से आयेंगे
और पूरी करेंगे अपनी आधी लिखी कहानी
किंतु मां का सूना माथा तो
सिरे से नकारता था हर उम्मीद को
मां
को इस रूप में देखना
दुनिया के तमाम पेड़ पौधों को
ठूंठ देखना था
जिन पर बसंत अब कभी नहीं उतरेगा
उन्हें यूं देखने की आदत
डालने की चीज थी ही नहीं
हमने ठाना हम टांक आयेंगे
ढूंढ कर हर ठूंठ पर
एक आखिरी पत्ता हौसले से भरा
ओ. हेनरी की कहानी की तरह
हमारी मनुहार पर
अब लगाती है मां भी
अपने माथे पर छोटी काली बिंदी
और दिखती है कुछ सहज।
इरा नाथ
53. In Memory of My Father-1972 के समांतर कहानी आंदोलन में कमलेश्वर के साथ दूसरे प्रमुख हस्ताक्षर के रूप उभरे ‘Comrade Kamtanath’ मेरे पिता
” कथाकार, कामरेड कामतानाथ कतिपय पापा”-इरा श्रीवास्तव
पूरे तुम में आधे तुम थे
रचनाओं के, किरदारों के
बाकी आधे का लगभग पूरा थे
यूनियन के, कामगारों के
और थे संग संग, पूरे समूचे
संगी साथी, यारों के
बांटा करते थे खुद को सबमें
चुरा के मेरे हिस्से से
मैं भी अब वापस ले आती हूं
संग तुमको उन सबके किस्सों से।
कहां से शुरू करूं। बहु सांस्कृतिक ऊर्जा से लबरेज़
एक कामतानाथ के भीतर अलग अलग रोल अदा करते तीन चार कामतानाथ मौजूद थे।
साठ के दशक के शुरुआती दौर में जब अपने समय के जीवन को समग्रता से पकड़ने की कोशिश करता ‘ नई कहानी आंदोलन’ जोरों पर था। कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, ऊषा प्रियंवदा और मनु भंडारी के कथा साहित्य ने हिंदी साहित्य में धूम मचा रखी थी ठीक उसी समय आम जीवन से जुड़ी, आसपास के परिवेश से उठाई गई, सहज स्वाभाविकबम भाषा और मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण अपनी कहानियों से चर्चा में आए साहित्यकार कामतानाथ।
लगभग उसी समय रिजर्व बैंक की नियुक्ति पाते ही वहां की यूनियन के जुझारू नेता के रूप में उभरे और सभी बैंक कर्मियों के प्रिय कामरेड कामतानाथ बन गए और इन दोनों के ही साथ साथ घर के लिए वक्त निकालते, बच्चों को अच्छे संस्कार और शिक्षा देते, बैंक से महीने महीने भर की छुट्टी ले कर फाइनल एग्जाम के दौरान हमें पढ़ाते हुए, परिवार को कश्मीर और केरल की सैर कराते, छोटी बड़ी समस्याओं को तमाम युक्तियों से सुलझाते, मेरे पापा कामतानाथ तो वो थे ही।
बैंक घर परिवार और दोस्तों के बीच बंटा उनका सारा समय लेखक कामतानाथ के लिए कब का नियत था इसे हम कभी जान ही नहीं पाए । उनके भीतर का लेखक शायद हर वक्त सक्रिय रहता था फिर वो मजदूर भाइयों के लिए धरना या भाषण दे रहे हो, पारिवारिक जिम्मेदारियां निभा रहे हो या यार दोस्तों के साथ मशगूल हो। उनकी पैनी निगाहें बारीक से बारीक चीजों, व्यवहार और परिस्थितियों का मुआयना कर रही होती और दिमाग उन्हें डाटा बेस में सेव करता रहता। लिखते वो अक्सर भोर में उठ कर या कभी रात सोते वक्त कुछ ज़हन में आ जाता तो तब या फिर रविवार को जब बैंक की छुट्टी होती।
1961 में उनकी पहली कहानी स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई फिर धर्मयुग,कहानी,नई कहानियां, सारिका में कहानियों के प्रकाशन का सिलसिला चल निकला और 1972 के समांतर कहानी आंदोलन में वो कमलेश्वर के साथ दूसरे प्रमुख हस्ताक्षर के रूप उभर कर सामने आए।
यदि उनके आरंभिक जीवन और उनकी संपूर्ण शिक्षा पर नज़र डाली जाए तो उस दौर में तो उन्होंने भी हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में खुद की कल्पना नहीं की होगी। क्योंकि हिंदी से उनका दूर दूर तक कोई लेना देना पढ़ाई लिखाई के दौरान नहीं था।
वो एक निम्न मध्य वर्गीय परिवार की अति सिमित मूलभूत सुविधाओं के बीच जन्मे थे। उनके पिता रेलवे में बीस रुपए प्रतिमाह पर क्लर्क थे, लखनऊ के पुराने बिरहाने मोहल्ले की संकरी सी सत्ती वाली गली के एक छोटे दोमंजिला मकान मे अपने तीन भाई बहनों के अतिरिक्त तीन चचाजात भाइयों के साथ रहते थे। गोली, कांचा लट्टू और पतंगबाजी करते हुए उनका बचपन बीता । आर्थिक तंगी के चलते सात आठ साल तक उन्हें पहनने को चप्पल तक नसीब नहीं हुई। आठ वर्ष की उम्र में उन्होंने सीधे चौथी कक्षा से पढ़ना शुरू किया और इसी बदौलत उन्हें कपड़े के जूते नसीब हुए। कभी पेशावरी चप्पलों के लिए तो कभी पुरानी सेकंड हैंड साइकिल के लिए पिता से डांट फटकार सुनी और कितनी ही हील हुज्जत के बाद मूलभूत जरूरतें पूरी हुई।
किसी तरह जोड़ गांठ कर स्कूल में उनका दाखिला कराने और घर पर मास्टर लगवाने वाले उनके पिता को ये कतई नागवार गुजरता था कि बेटा कोर्स की किताबें छोड़ कर किस्से कहानियों की किताबें पढ़े, इसलिए घर पर अलग बांध कर रखी हुई पिता की किताबों में से तमाम किस्से कहानियां जैसे गुलसानोवर अलिफ लैला आदि भी उन्होंने चोरी छिपे ही पढ़ी। ये सब किताबें उर्दू में थी। उनकी आरंभिक शिक्षा भी ऊर्दू में हुई , इंटर साइंस से, बी ए अंग्रेजी, गणित और दर्शनशास्र से और एम ए अंग्रेजी साहित्य से किया और संपूर्ण शिक्षा के दौरान हिंदी भाषा साहित्य की उपस्थिति कही दर्ज नहीं हुई। लेखन में गहरी रुचि के चलते हाइस्कूल में लेखन की शुरुआत की तो अंग्रेजी कविताएं लिख कर । संपूर्ण शिक्षा के दौरान भाषा का यह विरोधाभास देख कर तो यही लगता है कि तब शायद उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आगे चल कर वो हिंदी साहित्य के ख्यात साहित्यकार बन जायेंगे और साठ के दशक में जब अकहानी आंदोलन सर उठा रहा था उनकी जीवन से सरोकार रखती, आम आदमी के बीच से उठाई गई कहानियों को हाथो हाथ लिया जाएगा।
कामतानाथ जो सारी रात, नर्सिंग होम में, लाशें, छुट्टियां, तीसरी सांस, शिकस्त, इक्कीसवीं सदी की शोक कथा, देवी का आगमन, सुबह होने तक, सब ठीक हो जाएगा,अंतेष्टि और संक्रमण जैसी जीवन के विभिन्न आयामों को समेटे हुए बेहद चर्चित कहानियों के लेखक है और जिनकी कहानियों में बतरस और चलती हुई आम भाषा में संवादों के अनूठे प्रयोग के चलते उनकी संक्रमण कहानी का तो सौ से अधिक बार मंचन किया गया और करने वालों में नसीरुद्दीन शाह और देवेंद्र राज अंकुर जी प्रमुख रहे।
कामतानाथ जिन्होंने पांच दशकों तक सक्रिय लेखन करते हुए, एक और हिंदुस्तान, सुबह होने तक, समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की, तुम्हारे नाम, पिघलेगी बर्फ और चार खंडों में विभाजित काल कथा जैसे वृहद उपन्यास और नौ कहानी संग्रह के बाद दो खण्डों में संपूर्ण कहानियां, दिशाहीन, फूलन, कल्पतरु की छाया आदि नाटक से साहित्य जगत को समृद्ध किया।
एक साहित्यकार के अतिरिक्त रिजर्व बैंक की नौकरी के दौरान ट्रेड यूनियन के अत्यंत प्रभावशाली और जुझारू लीडर के तौर पर भी उन्होंने लोगों के दिलों पर राज किया। हर मुसीबत में मजदूर यूनियन के साथ खड़े रहे। यहां तक कि उनके लिए जेल तक गए और लंबे समय तक नौकरी से निलंबित भी रहे। कितने लोगों को तब बैंक के एग्जाम के लिए पढ़ा कर या अपनी सिफारिश पर रिजर्व बैंक में भर्ती करवाया।
यूनियन लीडर होने के चलते कभी प्रमोशन भी नहीं लिया जो कि आसानी से उन्हें बड़े ओहदे तक पहुंचा सकता था। बतौर कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्ड होल्डर सिर्फ बैंक यूनियन ही नहीं बल्कि वो हर मजदूर पिछड़े और सर्वहारा वर्ग के साथ खड़े थे और उनके लिए लाल इमली, एल्गिन मिल के गेट पर धरना प्रदर्शन और जम कर नारेबाजी की उनके हक़ के लिए कंधे से कंधा मिला कर खड़े हुए। कामगारों , कमजोरों और अवर्णों के लिए प्रतिबद्ध, उनके लिए सहज सरल और बराबरी का व्यवहार, कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं और सबके ऊपर इन सबके लिए न्याय पाने के लिए सत्ता से निडरता के साथ मुठभेड़ और विरोध उनके खास गुण थे।
तब के उनके साथ के वो लोग जिन्होंने उनका यह रूप देखा वो उन्हें मजदूरों के रहनुमा, महान इंकलाबी नेता, हरफनमौला पर इन सबसे बढ़कर हर कोई उन्हें एक बेहद उम्दा इंसान के तौर पर याद करता है। उनके अकाट्य तर्कों से बैंक प्रबंधन भी घबराता था।
तब के समय का एक मजेदार किस्सा पापा भी बड़े मज़े ले कर सुनाया करते थे। उन दिनों वो बैंक के तमाम कर्मचारियों के दिलों पर राज किया करते थे। लोग उन्हें कॉमरेड कहते और लाल सलाम करते। उन्हीं दिनों एक बार पापा की राजदूत रास्ते में कुछ गड़बड़ हो गई तो उसे मैकेनिक के पास छोड़ कर वो पैदल ही बैंक की ओर बढ़ लिए। तभी बैंक के मैनेजर जिनका नाम मैं भूल रही हूं उनकी बगल से अपनी कार से गुजरे । पापा को देख कर उन्होंने कार रोकी और साथ चलने को पूछा। पापा भी राजी हो गए। कायदे से उन्हें आगे वाली सीट पर उनके बगल में बैठना चाहिए था जो सही शिष्टाचार होता। पर ऐसा करना उन्हें हिमाकत लगा और वो कार की पिछली सीट का दरवाजा खोल पीछे बैठ गए। गाड़ी ने जब रिजर्व बैंक में प्रवेश किया तो सब अचंभित से पापा को देख रहे थे। पापा जब उतर कर लोगों के बीच पहुंचे तो सबने एक स्वर में बोला क्या बात है कॉमरेड आपने तो मैनेजर को ड्राइवर बना दिया। तब पापा को अपनी गलती का अहसास हुआ और वो अपनी बेवकूफी पर खुद ढहाका लगा कर हंस पड़े। बाद में जा कर मैनेजर से माफ़ी भी मांगी और अपनी इस कमी को स्वीकार भी किया कि वो लिफ्ट ऑफर करने पर किए जाने वाले इस शिष्टाचार से पूरी तरह अनभिज्ञ थे ।
अपनी गलतियां स्वीकारने में उन्हें कतई हिचक नहीं होती और उन गलतियों का वो सार्वजनिक रूप से खुलासा करते ताकि अगले को भी सीख मिल
हमारी गलतियों पर भी हमें उनकी डांट का सामना करना पड़ता था। हम सबको उनसे बहुत डर भी लगता था। शायद इसका कारण उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व, उनकी कड़क आवाज और कदम कदम पर दी जाने वाली उनकी नसीहतें और घुड़कियां थी।
झूठ से उन्हें सख़्त नफ़रत थी। एक बार की बात बताती हूं तब मैं चौथी कक्षा में थी। शार्पनर कही मिल नहीं रहा था तो पेंसिल छीलने के लिए मैंने उनकी शेविंग किट से चुपचाप रेजर का ब्लेड निकाला और अपना काम निकाल कर वापस लगा भी दिया। तब रेजर में ब्लेड लगाने पड़ते थे टोपाज़ का ब्लेड आता था आज की तरह ट्रिमर या यूज एन थ्रो वाले रेजर नहीं थे
सुबह जब पापा शेव करने बैठे तो ब्लेड की धार खराब हो चुकी थी और संयोग से पैकेट में एक्स्ट्रा ब्लेड भी खत्म थे तो लिहाजा वो बिना शेव किए ऑफिस चले गए । शेव वो प्रतिदिन करते थे। रात को जब दफ़्तर से लौटे और नहा धो कर खाने पीने बैठे तो हम तीनों भाई बहनों को बुलाया गया। मैं सबसे छोटी फिर दादा और उससे बड़ी दीदी। पापा ने नॉर्मल लहजे में पूछा मेरे दाढ़ी वाले ब्लेड से पेंसिल किसने छीली थी। अब मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम। पता था बिना उनसे पूछे उनका सामान छुआ अब तो खैर नहीं सो मैं चुप। दादा दीदी भी चुप। अब उन्होंने किया हो तो न बताएंगे और मैं जिसने ये कारस्तानी की वो मारे डर के चुप। बताओ कुछ नहीं कहेंगे पापा ने दो तीन बार पूछा पर हम तीनों हमने नहीं छीली ही कहें पड़े थे। पापा को भी गुस्सा आया तीनों को बाहर बालकनी में खड़ा कर दिया और कमरे का दरवाजा अंदर से बंद। बोले जाओ तीनों तय कर लो पहले कि किसने बिना पूछे पेंसिल छीली फिर आना अंदर। अब हम तीनों छज्जे पर खड़े। दादा दीदी जानते थे कि मैं ही बची सो मैंने ही किया था। दोनों कभी घुड़के कभी टिपियाए कि बताती क्यों नहीं पर हम पापा की डांट मार के डर से साफ मुकर जाएं। अब तीनों बाहर अंधेरे में खड़े। मच्छर तो काट ही रहें थे ऊपर से हमें परेशान करने के लिए पड़ोस का लड़का हमारे मुंह पर टार्च चमका कर मजे ले रहा था सो अलग। थोड़ी देर बाद दरवाजा खोला गया। और फिर पूछा गया। पर नतीज़ा वही ढाक के तीन पात। तब पापा बोले जो सच बोलेगा उसे एक रुपया मिलेगा। दादा दीदी फिर भी चुप रहे जब किया नहीं तो कहते क्यों। हमें हमेशा सच बोलना चाहिए ये सबक वो दोनों तो सीख चुके थे मुझे ही सीखना बाकी था। सो लालच में मैने फौरन स्वीकार कर लिया। पापा ने पास बुलाया और दिया एक झापड़ जब पूछ रहे थे तब बता देती तो कुछ नही कहते पर इतनी देर से झूठ बोलती रही और अपने भाई बहन को भी सजा में खड़ा किया ये झापड़ उसी के लिए। खबरदार जो जिंदगी में कभी झूठ बोला या अपनी गलती किसी और के सर मढ़ी।चलो जाओ और आइंदा से चाहिए हो तो मुझसे मांग लेना खराब ब्लेड अलग रखे रहते है उससे लेना। दादा दीदी तो बेचारे चले गए हम वही खड़े। जाओ बोला ना तुमसे पापा बोले। और हम जो थोड़ा मुंह लगे और दुलारे भी ज्यादा थे धीमे से बोले आपने तो कहा था रुपया देंगे। बस पापा जो ठहाका लगा कर मेरी इस जुर्रत पर हंसें कि क्या कहूं। मैंने भी इस मौके का फायदा उठाया और उनके हिलते पेट के ऊपर हाथों का घेरा डाल सॉरी पापा कहते हुए उनसे चिपक गई।
पापा को लेकर बचपन से जुड़ी एक और घटना मुझे याद आती है जिसका मेरे बागवानी के शौक से बहुत ही दिलचस्प जुड़ाव है। तब बमुश्किल आठ नौ साल की रही हूंगी। एक दिन घर पर दादा, दीदी के साथ बिस्तर पर कुछ मस्ती करते करते हाथ में पकड़ी दो चवन्नियां मैंने अनजाने में मुंह में रख ली और दोनों फिसल कर गले में अटक गई। मैं बहुत डर गई। दादा, दीदी को बताया। मम्मी और नानी भी वही बैठी थी सब घबरा गए। नानी ने मुंह नीचे कर पीछे गर्दन और पीठ पर ठोक कर उन्हें बाहर निकालने का प्रयास किया किंतु एक तेज खासी के साथ फाइनली वो चवन्नियां मेरे पेट में पहुंच गई। इसी बीच पास के डॉक्टर अंकल बुला लिए गए थे। उन्होंने देखा दाखा और फिर कहा शुक्र है चवन्नियां सांस की नली मे नहीं अटकी। सब कुशल मंगल है। मिठाई खिलाइए बिटिया को और मेरे पेट को गुदगुदाते हुए बोले ज्यादा कुछ नहीं बस चवन्नी का पेड़ निकलेगा इसके पेट में। वो तो ये कह कर चले गए पर अब हम परेशान के सच में निकलेगा क्या? और निकलेगा तो बढ़ कर क्या मुंह से बाहर आ कर लटकने लगेगा? और क्या सच में उसमें चवन्नियां लटकेंगी? फिर तो टॉफी, आइस्क्रीम के लिए तोड़ी जा सकती है। पर फिर मैं बोलूंगी कैसे? और दिखूंगी कैसी? शायद बहुत डरावनी। बस फिर क्या था। बाल सुलभ प्रश्नों से रो रो कर बुरा हाल था। मारे डर के उस दिन पानी नहीं पी रही थी के कही चवन्नियों की सिंचाई हो गई तो सच ही पेड़ निकल आएगा क्योंकि अक्सर पापा और माली काका को बीज बो कर पौधे उगाते देखा था जिन्हें मैं भी पानी दिया करती थी। पापा उस दिन किसी मीटिंग के सिलसिले में बाहर थे अगले दिन सुबह आना था उन्हें। वापस आने पर मम्मी ने उन्हें मेरे द्वारा चवन्नियां गटकने से लेकर मेरे पानी न पीने का किस्सा बयान किया। समस्या विकट थी। बिना पानी के तो डिहाइड्रेशन हो जाना था। अगली सुबह मैं तब तक सो कर उठी नहीं थी। पापा घर के पास की नर्सरी गए और हरसिंगार का एक पौधा ले आए। (हरसिंगार का ही क्यों ये जिन्होंने कभी हरसिंगार का बीज देखा होगा वो तुरंत समझ जायेंगे) उन्होंने पानी से धो कर उसकी जड़ों से मिट्टी साफ की और मेज पर रख दिया। मुझे जगाया गया और वो पेड़ दिखाते हुए पापा बोले। “क्यों भाई चवन्नी का पेड़ उगा लिया तुमने। तुम तो सो रही थी पर ये पेड़ तुम्हारे खुले मुंह से बाहर झांक रहा था। मैंने बाहर खींच लिया है चलो बगीचे में लगा दे” मुझे बेहद आश्चर्य हुआ के रात भर में उग के मुंह से बाहर भी आ गया पर साथ ही खुश भी थी के चलो मुसीबत से निजात मिली। बस फिर क्या था रोज पेड़ में चवन्नी लटकने के सपने देखती और पौधे की लगन से सेवा करती। गुलाबी ठंड में उसमें केसरिया डंडी वाले छोटे छोटे सफेद महकदार फूल खिले और बाद में जब बीज की गोल गोल टिकिया लटकी तो पिता जी जो आखिर थे तो कमाल के कहानीकार उन्होंने बोला देखो पेड़ हरा होता है तो इस पर तो ऐसी ही हरी चवन्नियां निकलेंगी और मैं बुद्धू मान भी गई। हां चवन्नियां तोड़ कर आइसक्रीम खरीदने की इच्छा पर जरूर पानी फिर गया। कुछ बड़ी और समझदार हुई तो अपनी बेवकूफी पर इतनी हंसी आई के क्या कहूं। पर इसी बहाने घर पर हरसिंगार का खूबसूरत पेड़ लगा जो कालांतर में इतना बड़ा हो गया के उसकी जड़ों ने गेट के पास की गैलरी की फर्श पर खासी मोटी दरार बना दी जिसकी वजह से उसे हटाना पड़ा किंतु तब तक उसके बीजों से और कटिंग से कई गमले तैयार हो चुके थे।
उनकी छोटी छोटी सीख ने हमें अच्छे संस्कार दिए, और हमारी शिक्षा दीक्षा में भी उन्होंने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। खुद जो बचपन उन्होंने जिया जो कष्ट झेले उनसे हमारा सामना न हो इसका वो बहुत ध्यान रखते थे जबकि उनकी बैंक की नौकरी भी १५५ रुपए महीना से ही शुरू हुई थी। और उनकी आय मात्र ही घर चलाने का इकलौता जरिया थी। जितना सामर्थ्य भर उनसे हुआ उससे कही अधिक उन्होंने हमारे लिए किया। कहानियों की अच्छी अच्छी किताबें, घुमाना फिराना, जब वीसीआर किराए पर मिलने लगा तो मंगवा कर अच्छी इंग्लिश फिल्में जैसे बॉर्न फ्री, सावजे हार्वेस्ट, ग्लैडिएटर, गोन विद द विंड, शार्क, लॉरेन हार्डी और चार्ली चैपलिन की सीरीज ऐसी न जाने कितनी मूवी दिखाई। जन्माष्टमी पर झाकी सजाने में भी हमारे साथ जुट जाते और जेल आदि का दफ्ती से क्या ही शानदार थ्री डी मॉडल बनाते के देखने वाले दंग रह जाते। बुरादे के प्रबंध से ले कर उसे रंगना सुखाना सब जबकि वो खुद कोई पूजा पाठ नहीं करते थे पर हम बच्चों की खुशी के लिए बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते। इसी तरह रिजर्व बैंकवाले घर में नए साल की पूर्व संध्या पर सब कॉलोनी वालों के साथ मिल कर शानदार पार्टी का आयोजन करते रात भर धमाचौकड़ी मचती हम बच्चों के लिए टोपियां सीटी और न जाने क्या क्या लाया जाता। खाने पीने के प्रबंध होते।
उन्होंने हमें निर्भीक, ईमानदार और स्वाभिमानी होने के ही पाठ पढ़ाएं। अपने ढंग और तरीकों से हमारा भूत प्रेत का डर भगाया और अंधविश्वासों का पर्दा फाश किया।
पूजा पाठ से जुड़े कर्मकांड या अंधविश्वासों की जगह हमारे घर में नहीं थी। किसी हद तक इसकी एक बड़ी वजह उनका दर्शनशास्त्र विषय और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का सदस्य होना रहा। पापा ने सिर्फ एक सीख दी की अपनी किस्मत खुद लिखो।
तमाम सफलताओं के बावजूद वो कभी अहंकार के मद में चूर नहीं हुए । बहुत ही सरल, सहृदय, और यारबाश आदमी थे वे । उनकी ख्याति किन ऊंचाइयों को छू रही है इसका पता हमें तब चलता जब कभी किसी पुरस्कार समारोह से हार , शॉल और स्मृति चिन्ह के साथ लौटते या जब कभी अखबारों में उनके बारे में लिखा जाता। वरना तो हमें कानों कान खबर भी नहीं होती थी कि चल क्या रहा है। कभी हम कहते कि क्या पाया इतना बड़ा समारोह था आपके लिए। हमें बताया भी नहीं, या हमें भी ले चलते या आज कुछ अच्छे कपड़े पहन जाते तो लंबा चौड़ा भाषण सुनने को मिल जाता कि इन कपड़ों में क्या खराबी है। पुरस्कार मेरे काम पर मिलना था या कपड़ों पर ,आदमी सिर्फ अपने काम से जाना जाता है, प्रेम चंद्र तो जूते भी फटे पहनते थे पर कितने बड़े साहित्यकार थे आदि आदि।
समांतर आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन के चलते या कभी यूं ही कितने नामचीन लोगों का घर तक आना हुआ मसलन कैफ़ी आज़मी, शबाना आजमी, बाबा नागार्जुन, नामवर जी, भीष्म साहनी, कमलेश्वर जी से घरेलू संबंध थे तो वो तो कितनी ही दफा आए। पर क्या मजाल जो कभी हमारा कोई खास तारूफ कराया गया हो या उनके साथ कोई फोटो खिंचवाई गई हो। जैसा कि आज कल आम देखने को मिलता है। यहां तक कि उनके पचहत्तरवें जन्मदिन पर जब नसीरुद्दीन शाह जी को उनके समारोह में संपूर्ण कहानियों के लोकार्पण के लिए सम्मिलित होना था, हमें सख्त हिदायत दी गई थी कि खबरदार जो उनके साथ लपक लपक कर फोटो खिंचवाने या आगे की पंक्ति में उनके साथ बैठने जैसी हसरतें हमारे मन में आई। ये सब बेहूदगी और चमचागिरी लगती है। जिंदगी में खुद अपना कद इतना ऊंचा करो कि दूसरे तुम्हारे ऑटोग्राफ ले और फोटो खिंचाए। बस फिर क्या हम दूसरी पंक्ति में अनचीन्हे से बैठे रहे और नसीर जी के साथ फोटो खींचा कर अपने जानने वालों में रौब और रुतबा कायम करने के मौके को जाते देखते रहे।
किस्से तो बहुत है। लिखने बैठूं तो कागज कम पड़ जाए। जिंदगी भर कभी हार न मानने वाले पापा बस कैंसर से हार गए। कैंसर से परास्त न हुए होते तो आज भी साहित्य साधना में लीन होते।
अंतिम स्टेज पर कैंसर का पता चला तो डॉक्टर्स ने भी जवाब दे दिया। कैंसर एक एक अंग को कब्जे में लेने लगा। मानो जीवन की चतुरंग पर मौत उनके एक एक प्यादे को पीट रही थी पर बाजी वो मरते दम तक खेलते रहे। मजाल है हार मानी हो या मुंह से कभी उफ निकला हो।
अंतिम दिनों में जब वो अस्पताल में थे उनके दोनों हाथ वीगो कुचवा कर छलनी हो चुके थे। नस ही नहीं मिलती थी। पर जीते जी कुछ और जी लेने की उत्कंठा कहां खत्म होती है सो आखिरी चारा था गले में वीगो लगाई जाए। पापा ने सहर्ष अनुमति दे दी। मेरी तो साथ जाने की हिम्मत ही न थी। पता था वो दर्द से उफ न करेंगे पर पीले पड़ते चेहरे पर दर्द से जो लकीरें उभरती उन्हें देखना जानलेवा होता। भाई के साथ गले में वीगो लगवा कर व्हील चेयर पर जब वापस लौटे तो देख कर बहुत कष्ट हुआ था। पर वीगो के बहाने कमरे से बाहर ऑपरेशन थिएटर तक का वो संक्षिप्त भ्रमण उन्हें कुछ ताज़गी भी दे गया था। वो एक तारीख थी। उसके अगले दिन ही उन्होंने कुछ भी रिएक्शन देना , या बोलना सब बंद कर दिया। आंखे अधमुंदी रहने लगी। दर्द चरम पर पहुंच चुका था। अंग धीरे धीरे काम करना बंद करने लगे। शरीर के रोम रोम से पानी रिसने लगा। बदन भारी होता गया। इतना के मुश्किल से करवट दिला के किसी तरह उनके भीगे कपड़े बदला पाते थे हम भाई ,बहन। वो कराहते हुए सिर्फ दो शब्द बोलते रहते.. अम्मा और चाचा। मुझे आश्चर्य हुआ के व्यक्ति उम्र में चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए कष्ट में उसे सिर्फ मां बाप ही याद आते है। अर्ध बेहोशी में दो तीन दिन ये सिलसिला चला। और फिर वो बीच बीच में सिर्फ एक नाम लेने लगे । कान पास ले जा कर ध्यान से सुनना पड़ा था क्योंकि आवाज भी क्षीण हो रही थी। वो नाम था “बंसी”
वो रह रह कर दिन में चार पांच बार बस बंसी नाम पुकारते और शांत हो जाते। बंसी हमारे लिए अबूझ पहेली थी। हम भाई बहनों को दूर दूर तक रिश्तेदारी में ऐसा कोई शख्स याद नहीं आन पड़ता था जिसका नाम बंसी हो। नाते रिश्तेदारों से पूछा गया किंतु कोई भी ये न बता पाया कि वो किस बंसी को याद कर रहे है। हमें अजब बैचैनी और छटपटाहट महसूस होती थी। आश्चर्य भी होता था कि इस अंतिम बेला में मम्मी या हम बच्चों में से किसी को या कोई खास मित्र या फिर वो प्रकाशक ही जिसे उनका “काल कथा” छापना था कोई भी उनके जहन में न था बल्कि कोई याद था तो बस बंसी। कहते है के मृत्यु शय्या पर आदमी उसे याद करता है जो सबसे प्रिय हो पर ऐसी घड़ी में उनके द्वारा बंसी को याद करना हम सबके लिए रहस्य बन कर रह गया था। मन में ग्लानि भी थी के अंतिम समय में जिसे वो पुकार रहे है हम उसे उनके सम्मुख उपस्थित भी नहीं कर पा रहे। किसी ने कहा के शायद बंसीधर कह रहे हो और कृष्ण को याद कर रहे हो मोक्ष के लिए। किंतु ऐसा कुछ भी न था । वो नाम सिर्फ किसी बंसी का था। और फिर सात दिसंबर दो हजार बारह की रात आठ बजे के करीब उन्होंने अंतिम सांस ली और बंसी भी फौरी तौर पर उनके साथ ही दफ़न हो गया लेकिन चार पांच दिन बाद जब कुछ खास करीबी रिश्तेदारों के साथ हम सब उनसे जुड़ी यादों का पिटारा खोले बैठे थे तो चाची को अचानक याद हो आया के बंसी कौन था और वो यकायक बोल उठी “अरे बॉबी वो “दादा” आखिरी समय में जिस बंसी को याद कर रहे थे वो तो बिरहाने का नाऊ था। और हमेशा जब भी किसी के यहां कोई गमी होती थी तो वो ही घर घर जा कर बताता था के फलाने नहीं रहे।”
ये सुन कर हम सब के सब अवाक् रह गए थे। तो उस समय जब वो बेहोश थे, आखिरी सांसे ले रहे थे, शरीर साथ छोड़ रहा था उस समय उनके दिमाग में था के कोई बंसी को बुला दे ताकि वो उनके न रहने की खबर सब जगह दे आए। वो वापस बिरहाने वाले अपने पुराने घर पहुंच गए थे जहां अंतिम समय में कोई साथ था तो उनके मां, बाऊ जी और बंसी।
-इरा श्रीवास्तव,लखनऊ