बेहद खामोशी से बहती बाल साहित्य की निर्मल धारा

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बेहद खामोशी से बहती बाल साहित्य की निर्मल धारा

– वरिष्ठ पत्रकार कर्मयोगी की रिपोर्ट 

बाल साहित्यकार व चार दशक से अधिक समय से फीचर पत्रकारिता में सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार नरेंद्र ‘निर्मल’ को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने वर्ष 2023 के लिये ‘लल्ली प्रसाद पांडेय बाल साहित्य पत्रकारिता सम्मान’ देने की घोषणा की है। पिछले चार दशक से बाल साहित्य संवर्धन कर रहे नरेंद्र निर्मल एक बड़े समाचार पत्र समूह में पिछले डेढ़ दशक से फीचर संपादक हैं। उन्होंने बाल साहित्यकार और फीचर पत्रकार के रूप में दोहरी भूमिका के साथ न्याय किया है। नरेंद्र निर्मल को इस पुरस्कार का मिलने पर कहा जा सकता है ’देर आयद दुरुस्त आयद।’ अच्छा होता यदि उन्हें यह पुरस्कार कुछ दशक पूर्व मिल जाता। तो फिर ऐसे उत्साहवर्धन से हमें और अच्छा बाल साहित्य पढ़ने को मिलता।

वे उस मूल रूप से उस लखनऊ के रहने वाले हैं, जहां से भारत के सबसे बड़े प्रदेश की सत्ता ही संचालित नहीं होती, बल्कि तमाम साहित्य के पुरस्कार का निर्धारण होता रहा है। उनके पर्याप्त संपर्क सूत्र भी रहे हैं। उनसे अकसर कहा भी गया कि वे बाल साहित्य पुरस्कार के लिए आवेदन करें। लेकिन, उन्होंने कभी किसी ऐसे पुरस्कार के लिये आवेदन ही नहीं किया। यह एक टकसाली सत्य है कि सिर्फ साहित्य के ही सहारे धर परिवार नहीं चलता। सो उन्होंने अपना पूरा जीवन बाल साहित्य की पत्रकारिता में खपाया। बिना किसी जोड़तोड के ऋषि कर्म जैसी पत्रकारिता में रत रहे। लंबे समय तक फिल्मी पत्रकारिता से जुड़े पेज भी संपादित करते रहे। लंबे समय तक तमाम फिल्मी हीरो-हीरोइन उनके संपर्क में रहे। लेकिन कभी किसी पीआरओ को न तरजीह दी न किसी तरह का लाभ उठाया। बल्कि, पत्रकारिता का समर्पण इस हद तक था कि उन्होंने अपनी सेहत तक की परवाह नहीं की।

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की निदेशक डॉ अमिता दुबे के अनुसार बाल साहित्य संवर्धन योजना के तहत इस पुरस्कार में उन्हें 51 हजार की धनराशि, अंगवस्त्र और प्रशस्ति पत्र दिया जाएगा। पिछले चार दशक से पत्रकारिता में सक्रिय निर्मल ने मनोरमा, अमर उजाला, दैनिक जागरण व हरिभूमि में फीचर संपादन को नए आयाम प्रदान किए। इलाहाबाद, मेरठ, नोएडा, रायपुर व दिल्ली आदि शहरों में बाल साहित्य का संपादन कर्म को साधना भाव से करने वाले नरेंद्र निर्मल की पहली बाल कहानी आठ साल की उम्र में प्रकाशित हुई थी। बाल साहित्य के प्रति जुनून के चलते उन्होंने कॉलेज के दिनों में एक पाक्षिक समाचार पत्र ‘द चिल्ड्रन टाइम्स’ निकाला। पढ़ाई के दौरान जेब खर्च के बूते ऐसी कोशिश करना निस्संदेह बाल साहित्य के प्रति जुनून का ही परिचायक था।

हालांकि, यह प्रयोग ज्यादा दिन नहीं चला, मगर बाल साहित्य के प्रति उनके जुनून का पता तो चला ही। फिर एक दशक तक ‘अमर उजाला’ में बाल साहित्य केंद्रित ‘बाल जगत’ का संपादन किया। देश के नामी बाल साहित्यकारों से रचना मंगवाना और नवोदित रचनाकारों की कॉपी को सजाना-संवारना दशकों तक जारी रहा। कालांतर लंबे समय तक सोलह पेज की बाल साहित्य केंद्रित बाल पत्रिका ‘बाल भूमि’ का संपादन किया। जो बाल पाठकों में खासी लोकप्रिय भी रही। कोविड के बाद की स्थितियों का पत्रिका के स्वरूप पर खासा नकारात्मक असर पड़ा। उनकी रचनाएं पाठ्यक्रम का भी हिस्सा रही हैं। उन्होंने सामान्य कहानियां भी लिखी। लेकिन, उन कहानियों के केंद्रीय पात्र भी बच्चे ही रहे हैं। समाज के वंचित व परिस्थितियों के मारे उनकी कहानियों के कथानक का हिस्सा रहे। वे लगातार दूरदर्शन व आकाशवाणी पर भी नियमित कहानियां प्रस्तुत करते रहे हैं।

बाल साहित्य का संपादन करने वाले पत्रकार की विडंबना यह रहती है कि पूरा समय दूसरे बाल साहित्यकारों व आम लेखकों की रचनाओं को संपादित करने व सजाने-संवारने में लग जाता है। कमोबेश यही स्थिति नरेंद्र निर्मल की भी रही। यदि निर्मल विशुद्ध बाल साहित्यकार की भूमिका में होते तो निश्चित रूप से बाल पाठकों के लिये कुछ कालजयी रच पाते। आज विडंबना यह है कि बाल साहित्य के नाम पर ऐसा सतही साहित्य रचा जा है जिसे बच्चे तो क्या बड़े भी न समझ पाएं। फिर तकनीक की उन्नति और प्रिंटिंग सुविधा के चलते ऐसी किताबों की भरमार बाजार में जो सही मायनों में बाल साहित्य की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। लेकिन, पुरस्कार प्रबंधन में ऐसे ही लोग बाजी मारते रहे हैं। सही मायनों में हम नई पीढ़ी के बदलते रुझान के अनुरूप बाल साहित्य दे पाने मे चुके हैं। यही वजह है कि योग्यता व क्षमता के बावजूद निर्मल पुस्तक छापने की होड़ व पुरस्कारों की दौड़ से दूर ही रहे।

फिलहाल नरेंद्र निर्मल एक बड़े अखबार समूह में फीचर संपादक हैं। बाल साहित्य में उनकी एक खास पहचान रही है। कहानियां, कविताएं लिखते रहते हैं। लाइमलाइट में आने से बचते रहे हैं। चमक-दमक से दूर रहकर सीधा-सादा जीवन बिताते हैं। लेखकों व बाल साहित्यकारों की कापी से जूझना उनकी आदत रही है। अपने काम में रत रहते हैं वे खामोशी से फीचर पत्रकारिता और बाल साहित्य सेवा में लगे रहे हैं। फीचर संपादन की विषयवस्तु और कलेवर में उनकी स्पष्ट छाप आज भी नजर आती है। यही वजह कि वे अब अपनी एक्स्ट्रा पारी खेल रहे हैं। संपादन का कार्य उनके लिये ऋषि कर्म जैसा रहा है। वे ऐसे अनेक पुरस्कारों के हकदार हैं।