

- Fair Skin Obsession: असली सुंदरता आत्मविश्वास और व्यक्तित्व में,सौंदर्य की परिभाषा में बदलाव की जरूरत
कीर्ति कापसे की विशेष रिपोर्ट
भारत सहित कई देशों में गोरी त्वचा को सुंदरता का प्रतीक माना जाता रहा है। फिल्मों, विज्ञापनों और समाज में लंबे समय से यह धारणा बनी हुई है कि गोरा रंग श्रेष्ठता और आकर्षण का सूचक है। हालांकि, बदलते समय के साथ यह सोच अब सवालों के घेरे में आ गई है।
*इतिहास से जुड़े कारण*
गोरे रंग के प्रति आकर्षण की जड़ें औपनिवेशिक काल से जुड़ी हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान गोरी त्वचा को सत्ता और प्रभाव का प्रतीक माना गया, जिससे यह मानसिकता समाज में गहराई तक बैठ गई। इसके अलावा, पारंपरिक समाजों में उच्च वर्ग के लोगों का गोरा होना और श्रमिक वर्ग का काला होना भी इस सोच को बल देता रहा।
बॉलीवुड और मीडिया का प्रभाव
हिंदी सिनेमा और टेलीविजन पर वर्षों तक गोरी त्वचा को खूबसूरती के रूप में प्रस्तुत किया गया। अधिकतर मुख्य भूमिकाओं में गोरे कलाकारों को लिया गया, जबकि गहरे रंग के लोगों को सहायक भूमिकाओं तक सीमित रखा गया। फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन और ‘गोरी दुल्हन’ जैसी सामाजिक अपेक्षाएँ भी इस सोच को मजबूत करती आई हैं।
*क्या काला रंग कमतर समझा जाता है?*
आज भी कई देशों में गहरे रंग के लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। शादी के प्रस्तावों में ‘गोरी लड़की’ की मांग आम बात है। हालांकि, पश्चिमी देशों में ‘Black is Beautiful’ जैसी मुहिम ने इस मानसिकता को चुनौती दी है, और अब भारत सहित कई देशों में भी त्वचा के हर रंग को स्वीकार करने की दिशा में बदलाव हो रहा है।
*बदलती सोच और नई पहल*
अब कई बॉलीवुड और फैशन इंडस्ट्री से जुड़े लोग गोरेपन के इस ऑब्सेशन के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। ‘डस्की ब्यूटी’ को भी अब ग्लैमर और आत्मविश्वास का प्रतीक माना जा रहा है। सोशल मीडिया पर भी #UnfairAndLovely और #MelaninMagic जैसे ट्रेंड इस मुद्दे को उठाते आ रहे हैं।
त्वचा का रंग प्राकृतिक होता है और उसकी श्रेष्ठता तय करना समाज की गलत धारणा है। असली सुंदरता आत्मविश्वास और व्यक्तित्व में होती है, न कि किसी की त्वचा के रंग में। बदलते समय के साथ अब इस सोच को बदलने और विविधता को अपनाने की जरूरत है।