निदा साहब को इस दुनिया से रुखसत हुए आज के दिन छह साल पूरे हो गए। निदा साहब गजल और शाइरी को कोठे की रूमानियत से निकाल कर खेत, खलिहान में गेहूं, धान, और आंगन में तुलसी के बिरवा की तरह रोप गये। उनके आदर्श मीरोगालिब नहीं बल्कि कबीर, तुलसी, सूर, बाबा फरीद थे। निदा फाजली में ही वो गुर्दा था जो पाकिस्तान में जाकर कह आए…
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो ये करलें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
वो मनुष्य को ईश्वर की सबसे बड़ी नेमत मानते थे।
मंदिर और मस्जिद दोनों को तो आदमी ने गढा है, पर आदमी ईश्वर की औलाद है इसलिये वह मंदिर. मस्जिद से बड़ा है।
..निदा साहब की हर रचनाएं अध्यात्म की ऋचाएं हैं और वे वैसे ही सहजता से व्यक्त करते हैं जैसे कबीर, सूर, तुलसी कर गए…
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है,
मिल जाए तो माटी है खो जाए तो सोना है।
मंचीय कवि परंपरा में मां की जैसी प्राणप्रतिष्ठा निदा साहब ने की वह उनके बाद की पीढ़ी के कवि शायरों के लिए नजीर है। आज मुनव्वर राणा औऱ आलोक श्रीवास्तव जैसे कई रचनाकार मंचों पर मां पर लिखी नज्मों,गजलों की वजह से चर्चित हैं।
निदा साहब ने शाइरी को महबूबा के पहलू से निकाल कर मां की गोद पर रख दिया…
मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार,
दिल ने दिल से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।।
या फिर जगजीत के सुरों से सजी वो सोंधी गजल..
बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी मां,
याद आती है चौका बासन चिमैटा फुकनी जैसी मां।
निदा एक दार्शनिक शायर थे। जो बातें दर्शनशास्त्री गूढ व्याख्या के साथ सामने लाते हैं वही निदा साहब आम जबान में..
.दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है,
सोच समझ वालों को इतनी नादानी दे मौला।
तेरे रहते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हो
जीने वाले को मरने की आसानी दे मौला।.
.निदा साहब फिल्मों में साहिर और शैलेन्द्र के आगे की लकीर थे। निदा साहब के शब्दों ने ही जगजीत सिंह की गायकी में प्राण फूंके .. जगजीत जी का जन्मदिन है। परलोक में भी वे निदा साहब के साथ जुगलबंदी निभा रहे होंगे। दोनों ने ही आम आदमी के नैराश्य में संघर्ष की तपिश दी और कामयाबी का जज्बा जगाया..।
निदा साहब की वे रचनाएं जिन्हें आज मैं याद किए, गुनगुनाए बिना नहीं रह सकता
एक
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आस्माँ नहीं मिलता
बुझा सका ह भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता
कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिस में धुआँ नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता
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दो
बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी माँ
चिड़ियों के चहकार में गूंजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा, माथा,
आँखें जाने कहाँ गई
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ
…. ….. ……. …
तीन
गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड़धानी दे मौला
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझवालों को थोड़ी नादानी दे मौला
फिर रोशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला
फिर मूरत से बाहर आकर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला
तेरे होते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हो
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला।
…… …….. …….. ……
चार
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है
अच्छा-सा कोई मौसम तन्हा-सा कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है
ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है
ये वक्त जो तेरा है, ये वक्त जो मेरा
हर गाम पर पहरा है, फिर भी इसे खोना है
आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को
आकाश की चादर है धरती का बिछौना है।
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पाँच
बृन्दाबन के कृष्ण कन्हैय्या अल्लाह हू
बँसी राधा गीता गैय्या अल्लाह हू
थोड़े तिनके थोड़े दाने थोड़ा जल
एक ही जैसी हर गौरय्या अल्लाह हू
जैसा जिस का बर्तन वैसा उस का तन
घटती बढ़ती गंगा मैय्या अल्लाह हू
एक ही दरिया नीला पीला लाल हरा
अपनी अपनी सब की नैय्या अल्लाह हू
मौलवियों का सजदा पंडित की पूजा
मज़दूरों की हैय्या हैय्या अल्लाह हू।।