Big order of Supreme Court: रेप के दोषी को नाबालिग मानकर नई सजा  

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Big order of Supreme Court: रेप के दोषी को नाबालिग मानकर नई सजा

 

Supreme Court के एक ताज़ा फैसले ने पूरे देश में कानूनी बहस छेड़ दी है। राजस्थान के एक रेप मामले में 53 साल के दोषी को “नाबालिग” मानते हुए उसकी सजा Juvenile Justice Board के हवाले कर दी गई। अब हर तरफ चर्चा है कि आखिर इतनी देर से भी नाबालिग होने का दावा क्यों स्वीकारा गया और इसका असर भविष्य के मामलों पर क्या होगा..?

मामला 1988 का है, जब राजस्थान के एक व्यक्ति पर नाबालिग लड़की के साथ रेप का केस दर्ज हुआ था। निचली अदालत से लेकर हाई कोर्ट तक, दोषी को सात साल की सजा बरकरार रखी गई। लेकिन 2025 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और स्कूल रिकॉर्ड के ज़रिए दावा किया कि अपराध के वक़्त उसकी उम्र महज़ 16 थी, मतलब कानूनन वह नाबालिग था।

सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें चीफ जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टाइन जॉर्ज मसीह थे, ने माना कि अभियोजन की ओर से सबूत पुख्ता थे: पीड़िता का बयान, मेडिकल रिपोर्ट, गवाह- सब कुछ। लेकिन आरोपी का स्कूल प्रमाणपत्र उसकी उम्र साबित करने के लिए काफी पाया गया। कोर्ट ने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा का हवाला दिया, जिसके मुताबिक, स्कूल सर्टिफिकेट को उम्र का सबसे भरोसेमंद सबूत माना जाता है।

सरकार की दलील थी कि इतने साल बाद नाबालिग होने का दावा सही नहीं है। लेकिन कोर्ट ने पहले के फैसलों पर भरोसा जताते हुए कहा- नाबालिग होने का दावा प्रक्रिया के किसी भी स्टेज पर किया जा सकता है, भले ही मामला खत्म हो चुका हो। इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने सात साल की सजा को रद्द करते हुए केस जेजे बोर्ड को भेज दिया। अब आरोपी पर सिर्फ जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 के मुताबिक अधिकतम तीन साल स्पेशल होम भेजे जाने पर विचार होगा।

*एक नजर में*  

1. 1988 में रेप के लिए दोषी ठहराया गया था; तब आरोपी की उम्र 16 साल स्कूल रिकॉर्ड से सामने आई।

2. सुप्रीम कोर्ट ने कहा- नाबालिग होने का दावा किसी भी समय, केस फाइनल होने पर भी उठाया जा सकता है।

3. जुवेनाइल जस्टिस कानून के मुताबिक अब ऐसे मामलों में उम्रकैद या फांसी नहीं, सुधार या काउंसलिंग का ही विकल्प।

4. कोर्ट ने 2015 के कानून को पुराने केस पर भी “ज़्यादा फायदेमंद” मानते हुए लागू किया।

5. अब जेजे बोर्ड करेगा आगे सुनवाई, सजा का स्वरूप बोर्ड तय करेगा, न कि सामान्य अदालत।

*अब आगे क्या…?*  

अब मामला जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के पास है, जो कानूनन दोषी को अधिकतम तीन साल तक स्पेशल होम में भेज सकता है। यह फैसला कानूनी व्यवस्था, पीड़ितों के अधिकार और अपराध की गंभीरता के बीच संतुलन बनाने को लेकर नई बहस छेड़ेगा। संभावना है कि इससे पुराने मामलों में भी अदालतों में नाबालिग का तर्क बार-बार सामने आएगा।

“अपनी बात”

सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने दिखा दिया कि कानून न सिर्फ गलती, बल्कि उम्र, समय और सुधार की उम्मीद को भी अहमियत देता है। कितना सही, कितना नैतिक..? बहस लॉ में चलती रहेगी…