
तेजस्वी राहुल की चुनावी बहिष्कार की नक्सली माओवादी धमकी खतरनाक
आलोक मेहता
बिहार विधान सभा चुनाव से पहले तेजस्वी यादव द्वारा चुनाव बहिष्कार की धमकी और राहुल गाँधी के रुख के साथ कांग्रेसी नेता का समर्थन नक्सली माओवादी रास्ता दिखने लगा है ? इसलिए सवाल उठ रहा है कि बिहार को एक बार फिर चुनावी राजनीति के बजाय हिंसा और अराजकता की तरफ बढ़ सकता है। बिहार में मतदाता सूची के स्पेशल रिवीजन का विरोध कर रहे राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने चुनावों को बहिष्कार की धमकी देकर कहा है कि ‘ हम लोग मिलकर चुनाव बहिष्कार पर विचार कर सकते हैं। ये विकल्प हमारे पास खुला है। ‘ बिहार कांग्रेस के प्रभारी कृष्ण अल्लावरू ने भी चुनाव बहिष्कार के सवाल पर कहा कि सभी विकल्प खुले हैं , हम मिल-जुलकर फैसला लेंगे। ये चुनाव आयोग की और (मुख्य चुनाव आयुक्त) ज्ञानेश कुमार की वोटर लिस्ट है. उन्होंने कहा कि हम यह जंग जारी रखेंगे और जरूरत आई तो बड़े से बड़ा फैसला लेंगे। आने वाले वक्त में एक बड़ी लड़ाई की तैयारी है। ‘
राहुल गांधी एक बार यह कह चुके हैं कि वह भारतीय राज्य से लड़ रहे हैं। यही भाषा माओवादियों की भी है। जिस कांग्रेस के छत्तीसगढ़ नेतृत्व का माओवाद ने खात्मा कर दिया था, उसी कांग्रेस के नेता और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ‘नक्सल आंदोलन’ को सामाजिक आंदोलन बता रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों की वापसी कहीं दिख नहीं रही, लेकिन कुछ मामलों में उनकी और कांग्रेस की भाषा एक सी रहती है। एक दौर में छत्तीसगढ़, बंगाल, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आंध्र, तेलंगाना और महाराष्ट्र के बड़े हिस्से पर उनका असर रहा था।
युद्ध के मैदान की तरह मीडिया के मैदान में भी खतरों का सामना जरूरी
मोदी सरकार के सत्ता संभालते वक्त देश के लगभग एक चौथाई जिलों में लाल आतंक कायम था। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2013 में माओवाद प्रभावित जिलों की संख्या 126 थी। अप्रैल के आंकड़ों के अनुसार अब महज 18 जिलों में ही माओवाद का प्रभाव है। माओवाद कितना दुस्साहसी है, इसका अंदाजा दो घटनाओं से लगाया जा सकता है।
चुनाव बहिष्कार पर विचार करने के आरजेडी और कांग्रेस नेताओं के बयानों पर बीजेपी सांसद राजीव प्रताप रूडी ने कहा कि तेजस्वी को हार सामने दिख रही है, इसलिए बहाना बना रहे हैं. या तो उन्हें समझ आ गया है कि अगला चुनाव हाथ से निकल चुका है, इसलिए पहले ही मैदान छोड़ दो… या फिर कोई बड़ी राजनीति करना चाहते हैं।
निर्वाचन आयोग के अनुसार, बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण अभियान के तहत घर-घर जाकर किए गए सर्वेक्षण में अब तक 52 लाख से ज़्यादा मतदाता अपने पते पर मौजूद नहीं पाए गए हैं और 18 लाख से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। चुनाव आयोग ने पुनः या नए नाम जोड़ने के लिए हर नागरिक और राजनीतिक पार्टियों को एक महीने का समय और दिया है। जब राजनीतिक पार्टियां लाखों सदस्य होने का दावा करती हैं तो चुनाव मतदाता सूची में सुधार और नाम जुड़वाने में अपने कार्यकर्ता अथवा किसी प्राइवेट कंपनी से किराए पर लोग क्यों नहीं लगाती ? बिहार में मतदाता सूची संशोधन के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का भी रुख किया गया है। अदालत या चुनाव आयोग आखिर बिहार के कर्मचारियों की ही सहायता ले सकता है।
वास्तव में बिहार में नक्सलियों का असर लगातार कम होता जा रहा है। वर्ष 2000 में बिहार-झारखंड राज्य विभाजन के बाद विशेष कार्य बल का गठन किया गया था। बिहार में नक्सल वामपंथी, उग्रवादी संगठनों और संगठित अपराधी गिरोहों की गतिविधियों पर नकेल के लिए इसका गठन किया गया था। वर्ष 2004 में बिहार के 14 जिले उग्रवाद प्रभावित थे। विशेष कार्य बल की ओर से भारत सरकार के केन्द्रीय अर्द्धसैनिक बलों ) के सहयोग से उग्रवाद पर निरंतर कार्रवाई की गई। इसका नतीजा रहा कि कई नक्सल प्रभावित जिले नक्सल श्रेणी से बाहर हुए, जो लगातार घटते हुए वर्ष 2018 में घटकर 16 और 2021 में 10 हो गए। वर्तमान में बिहार के 8 जिले- मुंगेर, लखीसराय, जमुई, नवादा, गया, औरंगाबाद, रोहतास और कैमूर को गृह मंत्रालय (भारत सरकार) ने अति नक्सल प्रभावित जिलों की श्रेणी से हटाकर सीमित श्रेणी में रखा है।बिहार में पिछले पांच साल के दौरान नक्सली घटनाओं में 72 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है. वांछित हार्डकोर नक्सल सशस्त्र दस्ता के सदस्यों की संख्या भी लगातार घट रही है. 2020 में इनकी संख्या 190 थी, जो दिसंबर 2024 में घटकर मात्र 16 रह गयी है. वर्तमान में झारखंड से सटे बिहार के दो सीमावर्ती क्षेत्रों में ही नक्सल का प्रभाव रह गया है। फिलहाल नक्सल गतिविधि मुख्य रूप से बिहार-झारखंड के सीमावर्ती इलाकों के दो क्षेत्रों में केंद्रित है। गया-औरंगाबाद एक्सिस- इस क्षेत्र में बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी (BJSAC) सक्रिय है। लगातार नक्सल रोधी अभियान और शीर्ष नक्सलियों की गिरफ्तारियों की वजह से गया-औरंगाबाद क्षेत्र में वामपंथी उग्रवाद की गतिविधियों में काफी कमी आई है। वर्तमान में इस क्षेत्र में 7 सशस्त्र माओवादियों के 3 छोटे समूहों में सक्रिय होने की सूचना है।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक देश से नक्सलवाद को खत्म करने का संकल्प लिया है। सुरक्षा बलों की सफलता दर को देखते हुए यह संभव लगता है, लेकिन आगे चुनौतियां भी हैं।महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने हाल ही में नक्सल प्रभावित रहे गढ़ चिरोली में कड़ी चेतावनी देते हुए कहा कि राज्य के बाहर से आए शहरी नक्सली धन का इस्तेमाल अफवाहें फैलाने और गढ़चिरौली के लोगों को विकास के रास्ते से भटकाने के लिए कर रहे हैं। उन्होंने यह बयान गढ़चिरौली ज़िले में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए दिया, जो नक्सलियों का गढ़ रहा है।भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) और कई अन्य एजेंसियों ने शहरी नक्सलवाद के मुद्दे को उठाया। एजेंसियों ने बताया कि कैसे शहरों में रहने वाले ये लोग जंगलों में अपने दोस्तों के लिए प्रचार कर रहे थे और उनके लिए धन भी जुटा रहे थे।जब गृह मंत्री द्वारा समय सीमा तय की गई और सुरक्षा बलों ने उस पर काम करना शुरू किया, तो खुफिया ब्यूरो ने चेतावनी दी थी कि जंगलों में लड़ाई भले ही कम हो जाए, लेकिन दुष्प्रचार तंत्र गलत सूचनाएं फैलाना जारी रखेगा।महाराष्ट्र विधानसभा में महाराष्ट्र विशेष जन सुरक्षा विधेयक पारित होने के कुछ दिनों बाद, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने 22 जुलाई, २०२५ को यह भी बताया था कि राज्य के बाहर के “शहरी नक्सली” अफवाहें फैलाने और विकास परियोजनाओं को रोकने के लिए विदेशी धन का इस्तेमाल कर रहे हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार, 500 और 1000 रुपये के बैंक नोटों के विमुद्रीकरण से देश के अधिकांश हिंसाग्रस्त क्षेत्रों पर महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव पड़ा । वामपंथी उग्रवादियों ने समर्थकों या आम ग्रामीणों के खातों में अवैध धन जमा किया था । विमुद्रीकरण के बाद विभिन्न वामपंथी उग्रवादी समूहों से लाखों रुपये जब्त किए गए। इसके अलावा, वामपंथी उग्रवादियों ने भी विमुद्रीकरण अभियान का विरोध किया , जिससे उनकी नाराजगी का संकेत मिलता है। चूँकि अवैध रूप से रखी गई नकदी आतंकवादियों के वित्तपोषण का एक बड़ा हिस्सा रही है, इसलिए विमुद्रीकरण के बाद, आतंकवादियों के पास रखी अधिकांश नकदी बेकार हो गई। विमुद्रीकरण के कारण पाकिस्तान में छपे उच्च गुणवत्ता वाले नकली भारतीय नोटों का प्रचलन भी तुरंत बंद हो गया।
आधिकारियों को विश्वास है कि जंगलों में नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई 2026 तक समाप्त हो जाएगी। इन नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लोग सुरक्षा बलों का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि वे सुरक्षित महसूस करते हैं और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे विकास देख रहे हैं।2019 में एनआईए की जाँच और विदेशी फंडिंग पर शिकंजा कसने के बाद, शहरी नक्सल समस्या काफी हद तक कम हो गई है। हालाँकि, अभी भी कई ऐसे तत्व हैं जो समस्या पैदा करते रहेंगे और भावनाओं को भड़काते रहेंगे।
केंद्रीय गृह मंत्रालय पहले से ही 2026 के बाद की योजना पर काम कर रहा है, और इसमें शहरी क्षेत्रों में रहने वाले नक्सली आंदोलन के समर्थकों को भी शामिल किया गया है। सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाली सामग्री पर कड़ी नज़र रखने के लिए टीमें गठित की जा रही हैं। लोगों को भड़काने के लिए फ़र्ज़ी विरोध प्रदर्शन भी भड़काए जा सकते हैं। ये टीमें इन तत्वों को मिलने वाले धन पर भी कड़ी नज़र रखेंगी, जिसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार अभियान चलाने के लिए किया जा सकता है।
पिछले साल लोकसभा चुनावों से पहले, भारतीय संविधान को लेकर एक व्यापक अभियान शुरू हुआ था। नक्सलवादी आंदोलन के समर्थक इसी कड़ी में लोगों को संविधान के विरुद्ध भड़काने की योजना बना रहे हैं। ये तत्व इस तरह के अभियान शुरू करने के लिए सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल कर सकते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि अगर दुष्प्रचार अभियान चल पड़ा और लोग भड़क गए, तो सारा अच्छा काम बेकार हो जाएगा। उन्होंने पहले भी ऐसा किया है और आगे भी गाँवों के भोले-भाले लोगों को गुमराह करने और भड़काने की कोशिश करते रहेंगे।तो तेजस्वी यादव और राहुल गांधी क्या उसी दिशा को अपनाकर देश को अराजकता की ओर ले जाना चाहते हैं ?





