
एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति:”मेरी माँ “-
माँ एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति है जो हर किसी के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ‘मेरी माँ ‘श्रृंखला के माध्यम से हम अपनी माँ के प्रति अपना सम्मान ,अपनी संवेदना प्रकट कर सकते हैं. आज इस श्रृंखला में हम गृहिणी, नवोदित लेखिका बैतूल कलेक्टर आईएएस नरेन्द्र सूर्यवंशी जी की धर्मपत्नी नीलम सिंह के भाव प्रस्तुत कर रहे हैं।
10. My Mother Smt. Kalavati Kuril : मां ने हमेशा अपने समय से बहुत आगे की सोच रखी
नीलम सिंह सूर्यवंशी ,इंदौर
मेरे लिए माँ एक उपासना है। जरूर मैंने बहुत पुण्य प्रताप किए होंगे,तब जाकर मुझे ऐसी माँ मिली है।उन्होंने हमेशा अपने समय से बहुत आगे की सोच रखी ।लोग कहते हैं अब तुम बिलकुल अपनी माँ जैसी दिखती हो लेकिन मेरे अंदर अगर थोड़ा सा भी माँ का अंश आया हो तो मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानती हूँ।
माँ का जन्म १९५५ में उ.प्र. के सराय मनिहार गाँव में एक संपन्न परिवार में हुआ था।दो भाइयों और चार बहनों में सबसे छोटी।माँ का नाम कलावती नानाजी ने रखा था।उन्होंने सिर्फ़ चौथी कक्षा तक पढ़ाई गाँव के ही स्कूल में ही की थी।
नाना जी की उम्र अधिक होने के कारण उनका विवाह ६ वर्ष की उम्र में ही एक किसान परिवार में राजाराम कुरील नाम के लड़के{मेरे पिता} से हुआ था।
नानाजी का सोचना था कि उनके रहते हुए उनकी सभी बेटियों का ब्याह हो जाए।माँ का गोना भी १३ साल की अबोध उमर में हो गया था,तब माँ रजोस्वला भी नहीं होतीं थी। वो घर की जिम्मेदारियों को सँभालने के लिए कितनी समझदार होंगी? आज मैं सोचती हूँ वो एक भरे पूरे किसान परिवार की बहू बनकर आई थी ,जहाँ चार ननदों,चार देवर जेठ और सास ससुर के बीच दूसरे नम्बर की बहू थी।गांव में ना सड़क थी ना बिजली थी,पानी के लिए कुँआ था जिसमें रस्सी से पानी खीचना पड़ता था।गांव के किनारें बने तालाब में कपड़े धोने जाना पड़ता था ।माँ ने घर के सभी काम ससुराल में ही सीखें ।पापा तब इंदौर में रहते थे और माँ गाँव में ।

जब घर और खेती के कामों में पिसती माँ अपनी व्यथा पापा को चिट्ठी में लिखकर भेजती और जवाब का इंतज़ार करती, तब पापा का जवाब आता तो सारे घर के लिए आता।माँ मन मसोस कर रह जाती और विरह में वो आँसू बहाती।क़रीब दस वर्षों तक माँ ऐसे ही गाँव में रही और पापा इंदौर में रहते थे ।
१५ साल की उम्र में उन्होंने अपने पहले बेटे को जन्म दिया।घर में सब लोग बहुत खुश थे क्योंकि चार ननदों और जेठानी की दो बेटियों के बाद कोई पुत्र हुआ था, जो सारे खानदान के उस पीढ़ी का ज्येष्ठ पुत्र था।खूब खुशिया मनाई गई ,लेकिन माँ की सुध किसी को भी नही थी और पाँच दिन बाद ही वो घर के काम से लग गई।सारा काम ख़त्म होने के बाद रात में सास और जेठानी के पावों में तेल लगाना,और पाँव दबाना उनका रोज़ का काम था।
वो दुआ और बद्दुआ में भी बहुत यकीन करती थीं।ज़ब पहली बार वो इंदौर आई तो दादी का उनकों ना भेजने के लिए कड़ा रुख़ थाऔर उन्होंने कहा था कि ‘जाओ तुम कभी ख़ुश नहीं रहोगी ‘लेकिन माँ दादी की परवाह किए बिना ही पापा के साथ इंदौर आ गईं।

इंदौर आकर उन्हें ऐसा लगा जैसे वो किसी स्वर्ग में आई हों ,पहली बार झिलमिल झिलमिल बिजली को देखना, बड़ी-बड़ी सड़के ,नल से पानी निकलना,खाना बनाने के लिए स्टोव,और पापा के पास एक छोटा सा रेडियो भी था ये सब कुछ उनके लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था।
शरमाई,सकुचाई सी माँ ,किसी भी अंजान व्यक्ति के सामने झट से हाथ भर का घूँघट ओढ़ लेना।पहली फ़िल्म भी उन्होंने यहीं देखी थी वो भी घूँघट में। उसके पहले तक फ़िल्म और हीरो,हीरोइन क्या होती है वो भी पता नहीं था।पहली फ़िल्म शायद उन्होंने धर्मेद्र जी की आँखे देखी थी, जो कुछ समझ में नहीं आई थी।
गाँव में अक्सर वो मेला देखने जाती थीं और वहीं से अपनी ज़रूरत का सामान ख़रीद कर ले आती थीं,आसपास के गाँवों में साल दो साल में नौटंकी होती थी वो उन्होंने एक दो बार देखा था।लेकिन माँ पूरे नौ महीनें तक बीमार रही और अंतः वो वापस गाँव लौट आई।बाद में जब दादी इंदौर आई और उन्होंने पापा की तकलीफ़े देखी तो कुछ सालों बाद ख़ुशी-ख़ुशी दुबारा माँ को भेजा।उसके बाद माँ यहीं इंदौर में रहने लगीं,पापा का छोटा सा सूटकेस बनाने का काम था।माँ के कन्धों पर अब घर चलाने की ज़िम्मेदारी भी थी।आर्थिक समस्याओं के चलते वो घर में सिलाई का काम करने लगी और पापा को आर्थिक सहायता करनें लगी। माँ और पापा के बीच आपसी तालमेल बहुत अच्छा था,कभी किसी बात को लेकर उनके बीच अनबन होते नहीं देखा,सारा जीवन वो एक दूसरे से सलाह लेकर ही चला करते ।वो बहुत पढ़ी-लिखीं नहीं है लेकिन पढ़ाई और पैसों के महत्त्व को बखूबी समझती ।
आज भी मुझें अपनी बचपन की स्मृतियों की यादों में घर की दहलीज़ में डाहरि के पास जहाँ आधी रात में चिमनी के मद्धम उजाले में माँ सूती साड़ी पहने चकिया पर अनाज पीसने ताई जी के साथ एक पैर मोड़ कर बैठी हुई है, पीसते-पीसते लोकगीतों का गाना मुझें सुनाई देता ।उस पूरे आटे से सुबह सबके लिए रोटी बनाई जायेंगी।
तब वो मुझे माँ अन्नपूर्णा के रूप में दिखाई देती है।

एक दोपहर वो गाँव में पट्टी और पेम से हमें “अ, आ, इ, ई” सिखाती हुई दिखीं — पहला अक्षर ज्ञान उन्होंने ही दिया और ये उनकीं सोच और कड़े अनुशासन का ही परिणाम था कि उनका एक बेटा डॉक्टर और दूसरा बेटा यूनियन बैंक में चीफ़ जनरल मैनेजर, चीफ़ इन्फॉर्मेशन सिक्योरिटी ऑफिसर एंड हेड ऑफ़ डेटा प्रोटेक्शन ऑफिसर है।
उस ज़माने और ग़रीबी में, मुझे भी उन्होंने ग्रेजुएट करवाया और मेरी शादी एक सुयोग्य वर से करवाई ,मेरे पति मध्यप्रदेश के बैतूल में जिलाधीश हैं , जो आज एक क्लास वन ऑफिसर है , साथ में मैं भी कुछ टूटा-फूटा लिख लेती हूँ।
जब मैं हम बच्चों में इतनी उपलब्धियाँ देखती हूँ, तो मुझे लगता है कि उनके दिए हुए संस्कारों में कितनी ऊर्जा और कितना तेज था।तब मुझे माँ सरस्वती के रूप में नज़र आती हैं।वो मुझे टिप-टॉप तैयार होकर कभी-कभी सिलाई मशीन पर सिलाई करती हुई दिखाई देती हैं।कितने कम पैसों में घर को कितनी अच्छी तरह सँभाला, कितनी बरकत थी उन पैसों में कि उनकी सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो गईं।तब मुझे वो माँ लक्ष्मी का रूप नज़र आती हैं।
अब वो ज़्यादा चल-फिर नहीं पाती हैं, लेकिन जब भी उनसे मिलने जाती हूँ और उन्हें पता चल जाता है कि मैं आ रही हूँ, तो वो झट से तैयार होकर बैठ जाती हैं — ताकि किसी को पता न चले कि वो किसी शारीरिक तकलीफ़ में हैं।५ साल पहले कमर की नसों के दबनें के कारण नसों का ऑपरेशन करवाना पड़ा था,तब से ही उनका चलना बिल्कुल कम हो गया। लेकिन ख़ुद की दिनचर्या के काम जैसे तैसे वो कर लेतीं हैं ।
घर में खाना बनानें के लिए किसी और का आना उन्हें पसंद नहीं है, इसलिए रसोई के अंदर के सभी काम स्टूल पर बैठकर पापा को सीखा दिए हैं।अब पापा मम्मी से ज़्यादा अच्छे कुक हैं। और तो और बड़े मज़े से पूरे रौबदारी के साथ वो पापा से बड़ी,पापड़,अचार भी बनवा लेतीं हैं।

मम्मी अपनी बहुओं और बेटों के साथ रहनें नहीं जातीं हैं वो कहतीं है कि —“वो सभी चीजें मुझे हाथ में देंगी तो मेरे शरीर को चलानें की कोशिश भी ख़त्म हो जाएगी ,तब बहुत मुश्किल हो जाएगा और मैं अधिक लाचार हो जाऊँगी”।
महीने पंद्रह दिन में मैं जब भी मिलनें जाती हूँ, तब हर बार एक नए रंग के सूट की माँग करती है। उन्हें पहनना-ओढ़ना ,सिंगार करना बहुत पसंद है,कई बार उनके हाथो में मेहंदी लगी हुई होती है ,मैं पूछती हूँ की मम्मी मेहंदी लगवाई थी तो कहती है -“हा मन हुआ तो रचना (किरायेदार) से लगवा लिया था”।
उन्हें उनकें किराएदारों और उनकें बच्चों के साथ घुल-मिल कर रहना बहुत पसंद है।वो आज भी पूरी जीवंतता से भरी हुई हैं, उत्साह,उमंग उनकीं जीवनशैली का हिस्सा है।माँ आप हमेशा ऐसे ही मुस्कुराती रहें।

नीलम सिंह सूर्यवंशी ,इंदौर
नीलम सिंह नरेंद्र कुमार सूर्यवंशी
लेखिका ,गृहिणी ,इंदौर लेखिका संघ,इंदौर की सदस्य
शिक्षा – बी.कॉम
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