करूणा के आईने में आवारा कुत्तों के साथ निरीह इंसानों को भी देखें…!

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करूणा के आईने में आवारा कुत्तों के साथ निरीह इंसानों को भी देखें…!

अजय बोकिल  

भारत भर के 6 करोड़ से ज्यादा आवारा कुत्तों के बारे में हाल में सुप्रीम कोर्ट ने जो ताजा फैसला सुनाया है, उस पर नई नैतिक बहस छिड़ गई है। पशु प्रेमियों का मानना है कि कोर्ट का निर्णय आवारा कुत्तों के हित में और करूणा से प्रेरित है, जबकि इससे नाखुश लोगों का मानना है कि कुत्तों से प्रेम अपनी जगह है, लेकिन नैतिक और जैविक दृष्टि से कुत्तों की तुलना में मानव जीवन को बचाना और उसकी सुरक्षा उससे ज्यादा जरूरी है। बावजूद इसके कि कुत्तों की मानव जीवन में अलग अहमियत है, जो भौतिक सुरक्षा, नैतिक वफादारी और विश्वसनीयता के सकारात्मक भाव से लेकर इंसानों की जान लेने तक फैली है। कुत्तों के स्वभाव और आचरण ने कई मुहावरों को जन्म दिया है, जैसे कि ‘मालिक का कुत्ता बनने’, ‘कुत्ते की मौत मरने’, ‘कुत्ते की तरह भौंकने’, कुत्ते की माफिक दुम हिलाने और ‘कुत्ते की तरह सूंघने और कान खड़े होना’ आदि। आदमी कुत्तों की खूबियों का इस्तेमाल करता है और कुत्ता इंसान की कमजोरियों को पहचान लेता है। वफादारी निभाने के लिए वह मनुष्य के साथ स्वर्ग तक भी जा सकता है। पालतू हो तो वह दोस्त है और आवारा हो तो अनचाहा दुश्मन भी है। रखवाला भी है और हत्यारा भी है। पुराणों में वह भगवान भैरोनाथ का वाहन है तो भगवान दत्तात्रय सदा चार कुत्तों से घिरे रहते हैं, जो चार वेदों का प्रतीक हैं। संक्षेप में कहें तो कुत्ता संज्ञा भी है, उपमा भी है और विशेषण भी है। एक अंग्रेजी कहावत है कि ‘आवारा कुत्ते दिल से घुमक्कड़ होते हैं पसंद से योद्धा। या फिर‘वो अनचाहे सफर में जीवित रहने की कला के प्रतीक हैं।‘

 

यह सही है कि मानव सभ्यता और कुत्तों का साथ हजारों साल पुराना है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ कुत्तों का सफर भी जारी है। कुत्ता पालना अमीरी का लक्षण है तो आवारा कुत्तों को भी दुत्कारना गरीबी की पहचान है। भारत दुनिया की सबसे ज्यादा जनसंख्‍या का देश होने के साथ-साथ विश्व में सर्वाधिक आवारा कुत्तों का भी देश है। लेकिन यहां असल मुद्दा आवारा कुत्तों के प्रति मानवीय संवेदना तक सीमित न होगा कुत्ते का कुत्ता न रहकर हिंसक होकर इंसानों को काटने और उससे होने वाली असमय और अकारण मौतों का भी है। भारत में पिछले वर्ष कुत्ता काटे के 37 लाख से ज्यादा मामले हुए। जिनमे आधिकारिक तौर पर 54 लोगों की जानें गईं। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में कुत्ता काटे से हर साल 15 से 20 हजार तक लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं, जिनमें ज्यादातर 15 साल और उसके कम उम्र के बच्चे होते हैं। इनमें से कई की मौत तो कुत्तों से भी बदतर होती है। ये मौतें ज्यादातर उन आवारा कुत्तों के काटने से होती हैं, जिन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता, जो अक्सर झुंड में रहते हैं। जो गली- मोहल्लों के स्वघोषित रखवाले होते हैं और कई बार अनजान व्यक्ति को देख, दुत्कार के प्रतिकार अथवा भूख के दबाव में भी मनुष्यों को काट लेते हैं। यूं कुत्ता काटे से होने वाले भयंकर रेबीज रोग का इलाज इंजेक्शन से होता है। सही वक्त पर इलाज हो जाए तो ठीक वरना रेबीज का मारा अगर जीवित रह भी जाए तो उसकी जिंदगी पागल कुत्ते से बदतर हो जाती है।

बहरहाल, देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा हाल में दिए गए निर्णय में जस्टिस विक्रमनाथ की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय बेंच ने अपने फैसले में कहा है कि दिल्ली में शेल्टर होम से सभी कुत्तों को छोड़ा जाए। लेकिन हिंसक और बीमार कुत्ते शेल्टर होम में ही रहेंगे। कोर्ट ने आदेश में कहा कि इन कुत्तों को नसबंदी के बाद छोड़ा जाए। साथ ही हर कम्युनिसिपल ब्लॉक में आवारा कुत्तों को खिलाने के लिए अलग से जगह बनाई जाए। किसी भी सार्वजनिक स्थान पर कुत्तों को खाना न खिलाएं। कोई ऐसा करे तो उसके विरुद्ध कार्रवाई की जाए। कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि कुत्तों को जहां से उठाया गया है, उन्हें उसी स्थान पर रिलोकेट किया जाए। कुत्तों की नसबंदी, कृमिनाशक और टीकाकरण तथा उनकी देखभाल के लिए पर्याप्त कर्मचारी होने चाहिए। अदालत ने स्पष्ट किया कि हिरासत में लिए गए कुत्तों को वापस सड़कों पर नहीं छोड़ा जा सकता। श्वान आश्रय स्थलों पर सीसीटीवी कैमरों से निगरानी रखी जाए ताकि कुत्तों को हिरासत में रखा जा सके। कोर्ट ने कहा कि ये आदेश दिल्ली समेत पूरे देश में लागू होगा। साथ ही याचिका में शामिल व्यक्ति 25 हजार और NGO 2 लाख रुपए कोर्ट में जमा कराएं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राष्ट्रीय नीति बनाने को भी कहा।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की दो जजों की बेंच द्वारा पूर्व में 11 अगस्त को दिए गए फैसले पर रोक लगा दी। दरसअल सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस पारदीवाला और महादेवन की खंडपीठ ने विगत 28 जुलाई को एक अंग्रेजी दैनिक में छपी खबर का स्वत: संज्ञान लेते हुए आवारा कुत्तों को शेल्टर होम में भेजने का फैसला सुनाया था। कोर्ट ने इस पर अमल के लिए तत्काल डाॅग शेल्टर होम बनाने के लिए कहा था। इस पीठ ने आवारा कुत्तों के पुनर्वास का विरोध करने वाले पशु अधिकार कार्यकर्ताओं को भी आड़े हाथों लेते हुए सवाल किया कि क्या वे कुत्तों के काटने और रेबीज़ से खोई हुई जानें वापस ला सकते हैं ? इससे पशु और खास कर कुत्ता प्रेमियों में गहरी नाराजी फैली। उन्होंने इस प्राणियों के प्रति क्रूरता से जोड़ कर देखा। बात सीजेआई जस्टिस बी.आर. गवई तक पहुंची। सीजेआई ने निर्णय पर पुनर्विचार के लिए मामला 3 सदस्यीय पीठ को सौंपा। लोगों ने कुछ व्यावहारिक सवाल भी उठाए कि दिल्ली के 3 लाख आवारा कुत्तों को शेल्टर होम में कैसे और कहां रखा जाएगा। उनकी कौन देखभाल करेगा? यह कुत्तों के प्रति अन्याय है। परोक्ष रूप से यह बात भी उठी कि अगर गली के कुत्ते आवारा हैं तो इसमें उनका क्या दोष? हालांकि ये लोग आवारा कुत्तों के काटे जाने से हुई इंसानों की मौत पर खामोश ही रहे। विडंबना यह है कि एक आवारा कुत्ते की मौत और उसके उत्पीड़न पर संवेदना व्यक्त करने वाले कुत्ते काटे से किसी मनुष्य की असमय होने वाली मौत पर मातम पुरसी के लिए भी गए हों, ऐसा सुनने में नहीं आया। इस अर्थ में आवारा कुत्तों को बचाने की लड़ाई में भले इंसान साथ हों, लेकिन कुत्ते की मौत मरने वाले आदमी के साथ कोई कुत्ता प्रेमी शायद ही खड़ा दिखता है। कुत्ता काटे से असमय मरने वालों के परिजनों पर क्या बीतती है, यह शायद ही कोई सोचता है। इस पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

आवारा कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम फैसले पर राजनेता की राय भी बंटी दिखी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कोर्ट के संशोधित निर्देशों का स्वागत करते हुए कहा कि यह पशु कल्याण और जन सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने की दिशा में एक प्रगतिशील कदम है। यह दृष्टिकोण न केवल दयालु है, बल्कि वैज्ञानिक तर्क पर आधारित भी है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री मेनका गांधी का सवाल था कि कोर्ट ने खूंखार कुत्तों की पहचान नहीं बताई। दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने फैसले का स्वागत किया, जबकि उन्ही की पार्टी के वरिष्ठ नेता‍ ‍िवजय गोयल ने कहा कि यह आदेश अव्यावहारिक है। इससे तो दिल्ली अंतत: ‘कुत्तों का शहर’ बन जाएगा।

इस पूरे प्रकरण में असल मुद्दा आवारा कुत्तों की संख्या पर अंकुश और मनुष्यों के प्रति उन्हें आक्रामक होने से रोकने का है। कोर्ट ने सभी आवारा कुत्तों की नसबंदी की बात कही है, ताकि उनके प्रजनन पर लगाम लगाई जा सके। लेकिन लाखों कुत्तों की नसबंदी आसान काम नहीं है। नसबंदी की आड़ में होने वाला पैसों का खेला एक अलग कथा है। फिर यह हिसाब रखना भी कठिन है कि कितने कुत्तों की नसंबदी हो चुकी और उसके बाद भी कितनी कुतियाएं चमत्कारिक ढंग से प्रसवित हो गईं। वैसे भी अन्य जंगली जानवरों की तरह कुत्तों के सहवास का कोई निश्चित समय नहीं होता। इसलिए उनकी आबादी इंसानों की तरह बेखटके बढ़ती रहती है। यूं देश में एनीमल बर्थ कंट्रोल (एबीसी) कानून 2023 से लागू है, लेकिन व्यवहार में वो कहीं दिखाई नहीं देता। इसे लागू करने के लिए स्थानीय निकायों के पास सक्षम तंत्र होना चाहिए, जिसका आम तौर पर अभाव है। और यह सब करने के लिए काफी पैसा भी चाहिए। साथ ही खूंखार कुत्तों को शेल्टर होम में रखना भी आसान नहीं है।

हकीकत तो यह है कि नसबंदी छोडि़ए, नगरीय निकायों के अप्रशिक्षित कर्मचारी जब शहर में आवारा कुत्तों को पकड़ने जाते हैं, तो कुत्तों को पहले ही इसका एहसास हो जाता है और वो गाड़ी लौटने तक पतली गलियों में जाकर दुबक जाते हैं, जैसे कि RTO की आकस्मिक चेकिंग की खबर बस-टैक्सी वालों को पहले ही लग जाती है। एक निर्दय तर्क यह भी है कि कुत्तों की आबादी पर काबू के लिए उन्हें दूर जंगलों में ले जाकर मार दिया जाए। लेकिन इससे बहुत कम लोग सहमत होंगे। यूपी के हरदोई से भाजपा विधायक श्याम प्रकाश ने समूची न्याय व्यवस्था पर ही सवाल उठाते हुए सोशल मीडिया पर कहा कि आवारा कुत्तों को तो 10 दिन में न्याय मिल गया, लेकिन उन बेचारे मनुष्यों का क्या जो सालों अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं, फिर भी इंसाफ शायद ही मिलता है। जय भैरवनाथ। अलबत्ता न्यायालय की इस राय से शायद ही कोई असहमत होगा कि सभी जीवों के प्रति करुणा एक संवैधानिक मूल्य है और अधिकारियों का यह दायित्व है कि वे इसे बनाए रखें। लेकिन यह मूल्य मनुष्यों पर भी उतना ही लागू होता है, यह नहीं भूलना चाहिए।