
No Control Over Abuses: गालियों को रोकने वाला न तो कोई धर्मशास्त्र बना, न कोई कानून !
राजा भर्तृहरि लिख गये हैं- ददतु ददतु गालीम्
डॉ.मुरलीधर चाँदनीवाला
यदि कोई गालियों का इतिहास लिखने बैठे, तो वह उसे कभी पूरा नहीं कर पायेगा। राजनीतिक गालियाँ अलग होती हैं, (अ)सामाजिक गालियाँ अलग होती हैं। ये आपस में मिलकर नई-नई तरह की गालियों को भी जन्म देती हैं। हमारा दुर्भाग्य है कि ये गालियाँ किसी सिद्ध मंत्र से भी अधिक लोगों के मुँह चढ़ी हुई हैं, और सभ्य समझे जाने वाले परिवारों में भी खुलकर बोली जाती हैं। इन पर रोक लगाने वाला न तो कोई धर्मशास्त्र बना, न कोई कानून।
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दो हजार साल पहले राजा भर्तृहरि लिख गये हैं- आपके पास देने के लिये गालियाँ ही हैं, तो देते रहिए गाली। हम तो किसी को गाली देने में असमर्थ हैं, क्योंकि हमारे पास तो गालियाँ हैं ही नहीं। कोई भी किसी को वही दे सकता है, जो उसके पास है। कोई किसी को खरगोश के सींग तो नहीं दे सकता।
‘ददतु ददतु गालीं गालिमन्तो भवन्तः
वयमपि तदभावाद् गालिदानेऽसमर्थाः।
जगति विदितमेतद् दीयते विद्यमानम्
न हि शशकविषाणं कोऽपि कस्मै ददाति॥’
कितनी सच्ची बात कही है भर्तृहरि ने। वे तो राजा थे, सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई। उस जमाने में भी एक प्रतापी राजा को गालियाँ खानी पड़ती थी। ऐसा मालूम होता हैं, कुछ लोगों के पास गालियों का खुला भंडार है। वे गालियों के बिना बात ही नहीं कर सकते। गालियों के लिये ‘अपशब्द’ तो बहुत छोटा शब्द है, और इसका समानार्थी शब्द मिलता भी नहीं। शायद इसीलिये राजा भर्तृहरि ने ‘गाली’ शब्द का ही प्रयोग किया। गालियाँ कुछ लोगों की जुबान पर चढ़ जाती हैं, फिर वंशानुगत चलती रहती हैं। यह बिल्कुल जरूरी नहीं कि गाली देने वाला प्रयुक्त गाली का अर्थ जानता हो।
संस्कृत साहित्य में भी गालियाँ मिलती हैं, लेकिन उन्हें देने वाला कोई धीरोदात्त या धीर-ललित नायक नहीं, अपितु कोई खलनायक ही होता है। भर्तृहरि के ही लगभग समकालीन महाकवि शूद्रक के मृच्छकटिकम् में गालियों की भरमार है। हिन्दी की प्रगतिशील समझी जाने वाली कहानियों और उपन्यासों में नामी साहित्यकारों ने गालियों का खुला उपयोग कर शोहरत हासिल कर ली, यह ताज्जुब की बात है। वर्तमान दौर की फिल्मों के निदेशकों ने भी गालियों के प्रयोग को उचित ठहराया। गालियों की शान बढ़ाने से किसका फायदा हुआ, यह तो वे ही जाने। भले लोगों की जुबान से तो भूल कर भी कोई गाली नहीं निकलती। वे कभी बोल कर भी नहीं बता सकते।

यदि कोई गालियों का इतिहास लिखने बैठे, तो वह उसे कभी पूरा नहीं कर पायेगा। राजनीतिक गालियाँ अलग होती हैं, (अ)सामाजिक गालियाँ अलग होती हैं। ये आपस में मिलकर नई-नई तरह की गालियों को भी जन्म देती हैं। हमारा दुर्भाग्य है कि ये गालियाँ किसी सिद्ध मंत्र से भी अधिक लोगों के मुँह चढ़ी हुई हैं, और सभ्य समझे जाने वाले परिवारों में भी खुलकर बोली जाती हैं। इन पर रोक लगाने वाला न तो कोई धर्मशास्त्र बना, न कोई कानून। इसीलिये तो मंच पर कोई तथाकथित नेता बड़ी शान से गालियों की बौछार करता चला जाता है, और उसके साथ उचकते फिरते साथियों को कोई लज्जा नहीं आती।
गालियों पर किसी का नियंत्रण क्यों नहीं? किसी को गालियाँ देने से पहले आदमी सोचता क्यों नहीं? जुबान उसीकी खराब होती है, कचरा उसीके मन में जमा होता है, बदनामी भी उसी की होती है। कहा तो यही जाता है कि गालियाँ लौटकर उसीके पास चली आती है, क्योंकि उसका ग्राहक कहीं कोई मिलता नहीं। हम ऐसे लोगों को जानते हैं, जो गालियों के बिना कभी बात ही नहीं करते। सज्जन लोग उनके समीप जाना भी पसंद नहीं करते, भले ही उनसे कोई काम सधने की उम्मीद हो।
गालियाँ कैसी भी हों, उन पर पूरा प्रतिबंध लगाना चाहिए। उन सब तरह के वाक्य और वाक्यांशों पर भी प्रतिबंध लगाना चाहिए, जिनसे किसी का मन आहत होता हो, और समाज पर बुरा असर पड़ता हो। यह जिम्मेदारी धार्मिक प्रवचन देने वालों की है, समाज के प्रतिष्ठित जनों की है, शिक्षकों की है, बच्चों के अभिभावकों की है, राजनीति में सकारात्मक प्रभाव रखने वालों की भी है। गालियाँ बकने वालों की सार्वजनिक निन्दा होनी चाहिए, और उनका सामाजिक बहिष्कार भी होना चाहिए।

डॉ.मुरलीधर चाँदनीवाला
First Worshipper: सो गणेश जी इसलिए प्रथमेश हुए..!





