
TV’s warriors: टी.वी. के रणबाँकुरे
शायद आप जानते नहीं कि सीमा पर तैनात हमारे वीर योद्धाओं के अलावा भी योद्धा हैं जो हमारे बीच रहकर एक नहीं अनेक मोर्चों पर तैनात रहते हैं। सुबह से रात तक हम उन्हें टी.वी. पर देखते और सुनते हैं, मगर न तो उन पर विशेष ध्यान देते हैं और न ही उनके काम की सराहना करते हैं। मैं बात कर रही हूँ हमारे टी.वी. के खबरची – यानि संवाददाता की। यह बहुत ही विचित्र प्राणी होता है – कुछ अलग ही किस्म का, अलग ही प्रजाति का।
यह सब संवाददाता शायद जुड़वा पैदा होते हैं, क्योंकि एक भाई कैमरा संभालता है और एक माइक। हमेशा साथ रहते हैं, भाईचारे से काम करते हैं, कभी लड़ते नहीं हैं।
स्वभाव से यह सजग, कर्मठ और फुर्तीले होते हैं। दिल दहला देने वाली विषम परिस्थितियों में, जहाँ आप जाने का सोच भी नहीं सकते, यह बाँकुरे उपस्थित हो जाते हैं। इनकी शारीरिक रचना भी न जाने किस प्रकार की होती है कि इन पर मौसम की मार नहीं पड़ती। हाड़ कंपाने वाली ठंड में यह सीमा पर दन दनाती बंदूकों की परवाह न करते हुए सैनिकों का हाल और दुश्मन की चाल समझने पहुंच जाते हैं। प्रचंड गर्मी में सड़क-दर-सड़क लोगों को रोक-रोक कर पूछते हुए पाए जाते हैं, ‘भाई सा’ब, क्या आपको गरमी लग रही है?’ ‘आप यह बरफ़ का गोला क्यों खा रहे हैं?…’ बाढ़ आने पर स्वयं गरदन तक गंदे पानी में डूबे हुए हैं पर, चकोर पक्षी की भाँति गरदन उठाए, डूबते हुए प्राणी से प्रश्न करते दिखाई दे जाते हैं, ‘भाई सा’ब, बाढ़ आने से आपको कैसा लग रहा है?’, ‘भाई सा’ब गरमी से राहत तो मिली होगी?…’ पूस की ओसीली रातों में अलाव के पास आधे-अधूरे कपड़े पहने बच्चों को अपने प्रश्नों से हतप्रभ करते भी पाये जाते हैं, ‘बेटा तुम्हें ठंड तो नहीं लग रही है?’, ‘बाबा जी, आप तो अनुभवी हैं, इस वक्त रजाई में दुबके लोगों को आप क्या संदेश देंगे?…’ इनका बस चले तो मुर्दे से भी पूछ लें, ‘भाई ! ऊपर का रास्ता ठीक है न? कोई तकलीफ तो नहीं हो रही?’ तात्पर्य यह है कि यह कहीं भी कुछ भी पूछते पाए जा सकते हैं।
इन भोले संवाददाताओं से यदि आप पूछें कि भाई तू यह क्या पूछ रहा है? तो वह बड़े आत्मविश्वास के साथ जवाब देगा, ‘सर यह हमारी ड्यूटी है। हमें ट्रेनिंग के वक्त कुछ बातें बड़ी सख़्ती से सिखाई जाती हैं, जैसे, पहली बात, तुम्हें मौसम की मार से डरना नहीं है, सरदी, गरमी, बरसात का तुम्हारे लिये कोई मायने नहीं हैं। दूसरे, तुम्हें सीधे पीड़ित यानी ‘विक्टिम’ से पूछताछ करनी है – जिसे ‘फर्स्ट हैंड इंफॉर्मेशन’ कहते हैं। इसीलिए चाहे हमारा ‘विक्टिम’ गड्ढे में फंसा हो, लिफ्ट से गिरा हो, हाल बेहाल हो – हम सीधे उसी से पूछताछ करते हैं, दूसरों पर भरोसा नहीं करते। तीसरे, हमें खोजी प्रवृत्ति का होना चाहिए, बिल्कुल पुलिसिया कुत्तों की तरह। सूंघते-सूंघते घटना की जड़ तक पहुंच जाते हैं। फिर बार-बार प्रश्न पूछते चले जाते हैं ताकि हम बात की तह तक पहुंच जायेँ। अगले के बोर होने की हम बिल्कुल परवाह नहीं करते। कहते-कहते उसके मुख पर आई गर्वीली चमक देखकर पूछने वाला बुझ सा जाता है।
हमारे यह खोजी पुत्र मानें या न मानें, पर हम इतने असंवेदनशील नहीं कि इनकी लाचारी न समझें। विशेष रुप से टी.वी. चैनल में काम करने वालों की। आप गौर करिए, टी.वी. एंकर स्वयं तो सज-धज कर वातानुकूलित कमरे में बैठे हैं, पर इन्हें दर-दर भटकने छोड़ दिया जाता है। यह भोले प्राणी समझते हैं कि वह समाज और चैनल के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। अगर वह ‘सोर्स’ से सूचना नहीं लाएंगे तो चैनल प्रसारण कैसे करेगा? चैनल तो इनके ही बलबूते पर चलता है, यह तो चैनल की रीढ़ हैं। चच, चच, चच। इन्हें अपनी फ़ज़ीहत समझ में नहीं आती। एंकर जब चाहे इनसे संपर्क सूत्र जोड़ लेते हैं, जब चाहे काट देते हैं, ‘होल्ड’ पर तो अक्सर रख लेते हैं। पहले इनको भाव देते हैं – ‘हां अजय त्रिपाठी, हमें विस्तार से वहाँ के हालात बताएँ’, वह बेचारा जब पूरे जोश से बताना शुरु करता है – फट्ट से सेंसर की कैंची चल जाती है, ‘अजय, अजय ! मैं आपको रोकना चाहूंगी, इस बीच हम एक बड़ी ख़बर का रुख़ करते हैं, आप वहाँ पर बने रहिए…, लीजिए, संपर्क टूट गया’, यह जनाब झमाझम बारिश में माइक पकड़े, मुंह उठाए खड़े इंतज़ार कर रहे हैं, क्या पता कब कनेक्ट हो जायेँ।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि यदि एंकर के पास समय बच गया, तो वह अप्रत्याशित सवाल भी कर डालते हैं। अब इस बेचारे को तुरंत, बिना अटके, बिना लड़खड़ाये उसका उत्तर देना है, और सटीक उत्तर देना है। एंकर भी ऐसे अजीबोगरीब सवाल कर डालते हैं, ‘आपको क्या लगता है कि मुजरिम कब तक पकड़ा जाएगा?’ ‘हत्या की साजिश किसने की?’ ‘आत्महत्या के पीछे असली वजह क्या थी?’ ‘सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या निर्णय देगा?’ ‘सरकार की रणनीति क्या होगी?’ ‘सीमा पर लड़ाई और कितने दिन चलेगी?’ ….अब वह बेचारा किस आधार पर और किस अधिकार से इन प्रश्नों के उत्तर दे? जिन प्रश्नों के उत्तर इस धरती पर किसी के पास भी नहीं हैं – इस भोले प्राणी से अपेक्षा की जाती है कि वह एक क्षण में – बिना अटके, बिना लड़खड़ाये उत्तर दे। कमाल की बात यह है कि यह प्राणी परिणाम की चिंता न करते हुए निर्णय भी सुना डालता है और इतना त्वरित और आत्मविश्वास के साथ देता है कि ऐसा लगने लगता है कि क्यों न इसे जज की कुर्सी पर बिठा दिया जाये।
तो आपने देखा कि इन बालकों को कितने मोर्चों का सामना करना पड़ता है। वह विषम परिस्थितियों में घटना स्थल पर पहुँचता है, मौसम की मार खाता है, घटना के कारणों का विश्लेषण करता है, कुछ परिकल्पनाएँ बनाता है, तथ्यों की खोजबीन करता है, अपनी परिकल्पनाओं का सत्यापन करता है, निर्णय भी सुनाता है। एक-एक घटना पर विषद-विस्तृत शोध करने वालों को तो हर दुर्घटना के उपरांत डॉक्टरेट की उपाधि दे देनी चाहिए।
ऐसे जाँबाज़ रणबाँकुरों को मेरा सलाम।






