Kusha or Kusha : श्राद्ध कर्म, पूजा -पाठ तथा यज्ञ -हवन आदि कार्य इसके बिना अधूरे हैं,क्या आप इसे पहचानते हैं?

938
Kusha or Kusha

Kusha or Kusha : श्राद्ध कर्म, पूजा – पाठ तथा यज्ञ – हवन आदि कार्य इसके बिना अधूरे हैं,क्या आप इसे पहचानते हैं?

                             कुश या कुशा: कुशाग्र तथा कुशल शब्द इसी से बने हैं…
                      कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है
कुश, कुशा या दर्भ एक पवित्र घास है, सनातनी परिवारों में पूजा पाठ के लिए कुशा का प्रयोग किया जाता है, किन्तु फिर भी कुशा की पहचान को लेकर हम आश्वश्त नही रहते। इस अध्याय में हम कुशा के विषय में विस्तार से जानेंगे।
कुशा का केवल धार्मिक महत्व ही नही है, बल्कि इसका सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व भी है। यह एक पवित्र घास है, जिसका धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा, यज्ञ और औषधीय उपयोगों में महत्वपूर्ण स्थान है। इसे पवित्र माना जाता है, और इसके बारे में विभिन्न धार्मिक कथाएँ भी प्रचलित हैं, जैसे कि भगवान विष्णु के शरीर से इसकी उत्पत्ति होना। यह प्राकृतिक रूप से एक शुद्धिकरण एजेंट के रूप में भी काम करती है और ग्रहण के दौरान खाने की चीजों को खराब होने से बचाने के लिए इस्तेमाल की जाती है।
kusha 730 1661265297
कुशा के दस प्रकार : धार्मिक कृत्यों और श्राद्ध आदि कर्मों में कुश का उपयोग होता है। ऐसी मान्यता है कि कुशा के बिना श्राद्ध कर्म पूरा ही नही हो सकता है। कुशा एक प्रकार की घास है। जो पोएसी कुल का सदस्य है। किंतु धार्मिक ग्रंथों में घास परिवार के 10 सदस्यों को कुशा की श्रेणी में रखा गया है, अलग अलग क्षेत्र में उपलब्धता के आधार पर इन सभी का प्रयोग प्रचलन में किन्तु सर्वोत्तम कुशा दर्भ को माना गया है, जिसका वैज्ञानिक नाम Desmostachya bipinnata या Eragrostis cynosuroides है। इसके कई और समानार्थी भी हैं जो भी शंशय का एक मुख्य कारण है।
एक श्लोक से इस बात की पुष्टि होती है-
कुशा: काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।
गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा: ।।
अर्थात कुशा दस प्रकार की होती है – काशा, यवा, दूर्वा, उशीर, सकुंद, गोधूमा, ब्राह्मयो, मौंजा, दश, दर्भा। इनमें से जो भी मिल जाए, उसे पूजा के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।
1. काशा अर्थात कांस (Saccharum spontaneum)
2. यवा अर्थात जौ (Hordeum vulgare)
3. दूर्वा अर्थात दूव घास (Cynodon dactylon)
4. उशीर अर्थात खश(Chrysopogon zizanioides)
5. सकुंद अर्थात मोया घास जो बहुत बड़े कंद के रूप में उगती है (Pennisetum pilosum)
6. गोधूमा का अर्थ पूजन वाली उस घास से है जिसका प्रयोग करवाचौथ में किया जाता है
7. ब्राम्ह्यो इसका अर्थ संभवतः देव झाडू या ब्रम्ह झाडू के पौधे से है (Thysanolaena latifolia)
8. मोंजा अर्थात मूंज (Saccharum munja)
9. दश अर्थात नरकुल या सरकंडा (Phragmites karka)
10. दर्भा अर्थात कुश या कुशा (Desmostachya bipinnata)
कुशा की उत्पत्ति : कुशा, जिसे सनातन धर्म में पवित्र घास के रूप में जाना जाता है, का आध्यात्मिक और औषधीय महत्व अत्यंत गहन है। पुराणों के अनुसार, कुशा की उत्पत्ति भगवान श्रीमन्नारायण के वराह अवतार से हुई, जब उन्होंने अपने शरीर को हिलाकर जल और रोम (बाल) को धरती पर गिराया, जो बाद में कुशा के रूप में प्रकट हुआ। इसीलिए कुशा को भगवान का अंश माना जाता है, जिसके मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और अग्रभाग में शिव का वास बताया गया है। सनातन धर्म के सभी संस्कारों और पूजन विधानों में कुशा का उपयोग अनिवार्य है, क्योंकि यह पवित्रता और त्रिदेवों की उपस्थिति का प्रतीक है। इसकी आध्यात्मिक महत्ता इसे यज्ञ, तर्पण और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में अपरिहार्य बनाती है, जो इसे सनातन परंपरा का अभिन्न अंग बनाता है।
एक अन्य पौराणिक मान्यता अनुसार जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया था, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई। उत्तराखंड में सीतोंस्यु पौड़ी गढ़वाल एक स्थान है, यहाँ माना जाता है कि माता सीता इसी स्थान से धरती की गोद में समाई थी, उसके आसपास की घास अभी भी नहीं काटी जाती है। दस प्रकार की कुशा में से दर्भ Desmostachya bipinnata इस क्षेत्र में बहुतायात में पाई जाती है यही कारण है कि इस जाति की कुशा को सर्वाधिक पवित्र माना जाता है जबकि सभी दस प्रकार के कुशा का प्रभाव तथा धार्मिक महत्त्व एक सामान है।
कुशा का संग्रहण करना कब शुभ होता है? कुशा का संग्रहण एक खास दिन किया जाता है। जिसे कुश गृहणी अमावस्या या पिठौरी अमावस्या कहते हैं। यह भादो मास की कृष्ण पक्ष को आने वाली अमावस्या है। इस दिन देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस दिन माता पार्वती ने इंद्राणी को इस व्रत का महत्व बताया था। विवाहित स्त्रियों द्वारा संतान प्राप्ति एवं अपनी संतान के कुशल मंगल के लिए उपवास किया जाता है और देवी दुर्गा सहित सप्तमातृका व 64 अन्य देवियों की पूजा की जाती है। अत्यन्त पवित्र होने के कारण इसका एक नाम पवित्री भी है। इसके सिरे नुकीले होते हैं। इसको उखाड़ते समय सावधानी रखनी पड़ती है कि यह जड़ सहित उखड़े और हाथ भी न कटे। यह कार्य सही तरह से करने वाले कुशल कहलाते हैं, कुशल शब्द इसी से बना। ” ऊँ हुम् फट ” मन्त्र का उच्चारण करते हुए उत्तराभिमुख होकर कुशा उखाडी जाती है ।
धार्मिक एवं पूजन कार्यों में महत्त्व : आज भी नित्यनैमित्तिक धार्मिक कृत्यों और श्राद्ध आदि कर्मों में कुश का उपयोग होता है। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में कुशा या दर्भ से निर्मित आसन बिछाया जाता है। पूजा पाठ आदि कर्मकांड करने से व्यक्ति के भीतर जमा आध्यात्मिक शक्ति पुंज का संचय कहीं भूमि के स्पर्श से पृथ्वी में न समा जाए, उसके लिए कुश का आसन विद्युत कुचालक का कार्य करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरों के माध्यम से शक्ति को नष्ट नहीं होने देता है।
मान्यता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। (देवी भागवत 19/3) अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झड़ते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता। उल्लेखनीय है कि वेदों में कुशा या कुश को तत्काल फल देने वाली, आयु की वृद्धि करने वाली और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाली महत्वपूर्ण वनस्पति बताया है। प्राचीन काल में राजा-महाराज भी कुशा से बनी चटाई पर सोते थे। रामायण से प्राप्त जानकारी के अनुसार भगवान् श्री राम के वनवास के बाद उनके अनुज राजा भरत ने भी चौदह वर्षों तक कुशा के आसन पर शयन किया था ।
कुश की पवित्री पहनना जरूरी क्यों? कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए । अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य का प्रतिनिधित्व करने वाली उंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। एसा करने के पीछे एक अन्य कारण पूजन, यज्ञकर्म एवं अनुष्ठान से उत्पन्न या प्राप्त इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। यह ऊर्जा भूमि पर जाने से हमें सकारात्मक ऊर्जा का नुक्सान होगा । वैज्ञानिक रूप से भी देखा जाए तो विद्युत ऊर्जा जब किसी प्रवाह स्तोत्र से भूमि पर स्पर्श होती है तो वह भूमि में मिलकर शून्य हो जाती है । वैज्ञानिक भाषा में हम इसे अर्थिंग प्रभाव कहते हैं जिसका तात्पर्य भूमि या अर्थ का प्रभाव है । कुशा मानव शरीर और भूमि के बीच कुचालक का कार्य करता है और यज्ञ-पूजन, व धार्मिक अनुष्ठान द्वारा उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा को शरीर में संगृहीत करने या भूमि से जाने से रोकता है ।
औषधीय महत्व: कुशा की जड़ से मूत्र संबंधी रोग, पाचन संबंधी रोग और प्रदर रोग में लाभ होता है। कुशा की पवित्रता सिर्फ धार्मिक और पौराणिक नही है बल्कि वैज्ञानिक भी है। कुशा की जड़ डालकर रातभर के लिए रखा गया जल प्रातः पीने से मूत्र संबंधी विकारों में आराम मिलता है। इसकी जड़ो में जल शुद्धिकरण की कमाल की क्षमता पाई जाती है। कृत्रिम आद्रभूमि (आर्टिफीसियल वेत्लेंड्स) या रूट ज़ोन टेक्नोलॉजी विषय को पढ़कर इस मामले में जिज्ञासा शांत की जा सकती है। आयुर्वेद में भी कुशा का विशेष स्थान है। प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों जैसे चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में कुशा को मूत्रविरेचक, शीतल, और वात-पित्त नाशक औषधि के रूप में वर्णित किया गया है। यह मूत्र संबंधी रोगों, पथरी, रक्तपित्त, प्रदर, शुगर, और त्वचा संबंधी समस्याओं में लाभकारी है। उदाहरण के लिए, कुशा की जड़ का काढ़ा पथरी को तोड़ने और मूत्रमार्ग की रुकावट को दूर करने में सहायक है, जबकि इसका रस दस्त और उल्टी को नियंत्रित करता है। त्वचा पर इसका लेप जलन को शांत करता है और घाव भरने में मदद करता है। कुशा का एंटी-डायबिटिक गुण रक्त शर्करा को नियंत्रित करने में भी उपयोगी है, जिससे यह आधुनिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए भी प्रासंगिक है।
पौराणिक महत्व: कुशा की शक्ति के विषय मे धर्म ग्रंथो में भी पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। रामायण में उल्लेख मिलता है कि सीता जी ने एक कुशा के तिनके से रावण को अपने निकट आने से रोक दिया था। आगे चलकर माता सीता ने अपने पुत्र का नाम कुश रखा। महाराज कुश के वंशज ही आगे चलकर कुशवाहा कहलाये ऐसी मान्यता है। प्राचीन दस्तावेजों में भी हिन्दुकुश पर्वत का उल्लेख मिलता है। संभवतः वहाँ कुशा वनस्पति की अधिकता रही होगी।
एक अन्य विवरण अनुसार गरुड़ जी अपनी माता की दासत्व से मुक्ति के लिए स्वर्ग से अमृत कलश लाये थे, उसको उन्होंने कुशों पर रखा था। अमृत का संसर्ग होने से कुश को पवित्री कहा जाता है (महाभारत आदिपर्व के अध्याय 23 का 24 वां श्लोक)। इसीलिये कुशा को पवित्र मानकर इसका प्रयोग धार्मिक व पूजन कार्यो में किया जाता है। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्त्व से युक्त है। अथर्ववेद में इसे क्रोधशामक और अशुभ निवारक बताया गया है.
कुशा और सर्पों का सम्बन्ध : मान्यता है कि सतयुग में सभी सांपों की जीभ कुशों के कारण फटी थी। उसकी कथा इस प्रकार से है- सतयुग काल में सभी साँप और गरुड़ के पूर्वज सौतेले भाई थे, लेकिन साँपों की माँ कद्रू ने गरुड़ की माँ विनता को छल से अपनी दासी बना लिया। सभी साँपों ने गरुड़ के सामने यह शर्त रखी कि अगर वह स्वर्ग से उनके लिए अमृत लेकर आयेगा तो उसकी माँ को दासता से मुक्त कर दिया जायेगा। यह सुनकर गरुड़ ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और सभी को परास्त कर दिया। युद्ध में स्वर्ग के देवता इन्द्र को भी उसने मारकर मूर्छित कर दिया। उसका यह पराक्रम देखकर भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और उसे अपना वाहन बना लिया। गरुड़ ने भगवान् विष्णु से यह वरदान भी माँग लिया कि वह हमेशा अमर रहेगा और उसे कोई नहीं मार सकेगा।
अमृत लेकर जब गरुड़ वापस धरती पर आ रहे थे, तभी इंद्र ने उस पर अपने वज्र से प्रहार कर दिया। गरुड़ को अमरता का वरदान मिला था, इसलिए उस पर वज्र के प्रहार का कोई असर नहीं हुआ, किन्तु बज्र के महर्षि दधीचि की अस्थियों से बने होने के कारन सम्मान स्वरूप गरुड़ ने अपना एक पंख गिरा दिया। यह देखकर इंद्र ने चेताया कि तुम जो अमृत साँपों के लिए ले जा रहे हो, उससे वह पूरी सृष्टि का विनाश कर देंगे, इसलिए अमृत को स्वर्ग में ही रहने दो। इंद्र की बात सुनकर गरुड़ ने कहा इस अमृत को देकर वह अपनी माँ को दासता से मुक्त कराना चाहता हूँ किन्तु जब मैं इस अमृत को भूमि पर रख दूंगा, तब आप इसे वहाँ से उठा लीजियेगा। गरुड़ की यह बात सुनकर इंद्र बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि तुम मुझसे कोई वर मांगो। गरुड़ ने कहा कि जिन साँपों ने मेरी माँ को अपनी दासी बनाया है, वे सभी मेरा प्रिय भोजन बने। गरुड़ अमृत लेकर साँपों के पास पहुँचा और साँपों से बोला कि मैं अमृत ले आया हूं। अब तुम मेरी माँ को अपनी दासता से मुक्त कर दो। साँपों ने ऐसा ही किया और उसकी माँ को मुक्त कर दिया। गरुड़ अमृत को एक कुश के आसन पर रख कर बोलता है कि तुम सभी पवित्र होकर इसको पी सकते हो। सभी साँपों ने मिलकर विचार किया और स्नान करने चले गये। दूसरी तरफ इंद्र वहीं घात लगाकर बैठे हुए थे। जैसे ही सभी सांप चले जाते हैं, इन्द्र अमृत कलश लेकर स्वर्ग भाग जाते हैं। जब साँप वापस आये, तो उन्होंने देखा कि अमृत कलश कुश के आसन पर नहीं है। उन्होंने सोचा कि जिस तरह से हमने छल करके गरुड़ की माँ को अपनी दासी बनाया हुआ था, उसी तरह से हमारे साथ भी छल हुआ है, लेकिन उन्हें थोड़ी देर बाद ध्यान आता है कि अमृत इसी कुश के आसन पर रखा हुआ था, तो हो सकता है, इस पर अमृत की कुछ बूंदे गिरी हों! सभी सांप कुश को अपनी अपनी जीभ से चाटने लगते हैं और उनकी जीभ कुशों के कारण बीच से दो भागों में कट जाती है। अमृत कलश से स्पर्श के बाद कुशा को पवित्री नाम मिला।
ज्योतिषीय महत्त्व एवं गृह शांति : कुश का उपयोग ग्रहों की अशुभता को दूर करने के लिए किया जाता है । ज्योतिष शास्त्र में ऐसी भी मान्यता है कि जब किसी भी जातक के जन्म कुंडली या लग्न कुण्डली में राहु महादशा की आती है तो कुश के पानी मे ड़ालकर स्नान करने से राहु की कृपा प्राप्त होती है। माना जाता है कि कुशा नकारात्मक ऊर्जा से रक्षा करती है और ग्रहण काल में भोजन तथा जल में मिलाकर ग्रहण के दुष्प्रभावों से बचाने में सहायक होती है। ग्रहण के दौरान खाने की चीजों को खराब होने से बचाने के लिए कुश का इस्तेमाल किया जाता है, जो एक प्राकृतिक प्रिजर्वेटिव का काम करता है.
योग एवं ध्यान में महत्व:योग साधना व पूजन कार्यो में कुशा की चटाई पर बैठना उत्तम माना जाता है। कुशा विद्युत की कुचालक होती है तो योग व ध्यान के समय शरीर की ऊर्जा पृथ्वी में समाहित नही होती है। पुराने समय मे राजा महाराजा व ऋषि मुनि भी कुशा के आसन पर बैठते व शैया पर शयन करते थे।
वैज्ञानिक महत्त्व : कुशा एकबीजपत्री प्रकार की वनस्पति है। सभी दस प्रकार की कुशा वानस्पतिक रूप से एकबीज पत्री समूह के पोएसी कुल के सदस्य हैं। सभी कुशा धार्मिक पूजन कार्यों के लिए सामान महत्त्व के हैं किन्तु इसके अतिरिक्त इनके कई औषधीय महत्त्व भी हैं विशेषकर मूत्र संबंधी रोगों और विकिरण के प्रभाव संबंधी दोष निवारण में इनकी प्रमुख भूमिका है। ग्रामीण क्षेर्तों में आज भी ठनका लगने, पेशाब में जलन होने या पथरी जैसे रोगों के उपचार के लिए कुशा की जड़ का ही प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा सूरज की तीव्र विकिरणों से उत्पन्न सन बर्न अर्थात त्वचा दाह तथा लू लगने जैसे रूगों में भी कुशा की जड़ को घिसकर पिलाया जाता है। पूर्व के समय में कुशा से तेल प्राप्त किया जाता था, उसे ही संगृहीत कर वर्ष भर औषधीय प्रयोग किया जाता था। ग्रहण के समय भी विकिरणों का नकारात्मक प्रभाव होता है, यह बात विज्ञान भी मानता है, कुशा के प्रयोग से विकिरणों के इन्ही हानिकारक प्रभावों को कम किया जा सकता है।
एक अन्य सिद्धांत के अनुसार कुशा के पौधों में किसी अन्य पौधे की तुलना में अधिक प्रदूषकों को अवशोषित करने की क्षमता होती है। इसी तरह कुशा की जड़ों में किसी अन्य पौधे की तुलना में सर्वाधिक प्रदूषकों को एकत्र कर उन्हें कम हानिकारक पदार्थों में ब्वादालने की क्षमता होती है। कुशा के इन्ही गुणों के कारन कुशा वर्गीय पौधों को रूट ज़ोन टेक्नोलॉजी नामक आधुनिक व वैज्ञानिक पद्धति के अंतर्गत प्रदुषण निवारण के लिए प्रयोग किया जाता है।
कुशा से संरक्षण : रामायण काल में कुशा ने रावण से माता सीता का संरक्षण किया था और आज भी कुशा धरती माता का संरक्षण कर रहा है। जिस तरह माता सीता धरती की संतान हैं ठीक उसी तरह कुशा भी धरती माता की संतान है अतः वह रिश्ते में माता सीता का भाई हुआ। सभी प्रकार के कुशा उबड़ खाबड़ और बंजर भूमि में उग कर भूमि को उर्वर बनाते हैं। ये बहुत कम जल की उपलब्धता वाले स्थान स्थान से लेकर अत्यधिक जल भराव व दलदली स्थानों तक में आसानी से उग जाते हैं और फलते फूलते रहते हैं। अधिक जल भराव व तीव्र जल बहाव वाले स्थानों पर उगकर ये मिट्टी के कटाव को रोकते हैं और पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित बनाये रखने में मदद करते हैं।
WhatsApp Image 2025 06 09 at 11.13.01

डॉ विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई
जिला छिंदवाड़ा (म. प्र.)